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व्याख्यान

देववाणी

स्वामी विवेकानंद


बुधवार जून , १८९५

यह वह दिवस है जब स्वामी विवेकानंद ने थाउजेंड आइलैंड पार्क में अपने शिष्यों को नियमित रूप से उपदेश देना प्रारंभ किया। उस समय तक हम सभी लोग एकत्र नहीं हो पाए थे; किंतु गुरुदेव का हृदय सदैव अपने कार्य मैं ही लगा रहता था, अत: उन्होंने जो तीन-चार लोग उनके साथ थे, उन्हीं को तत्काल उपदेश देना आरंभ कर दिया। इस प्रथम प्रभात में स्वामी जी बाइबिल की एक पुस्तक हाथ में लेकर छात्रों के समक्ष उपस्थित हुए एवं उसके नए व्यवस्थान (New Testament) के संत जॉन द्वारा संकलित उपदेशों को खोलकर बोले, "जब तुम लोग सब ईसाई हो, तो ईसाई शास्त्रा से ही शुरू करना ठीक होगा।"

(जॉन के ग्रंथ के प्रारम्भ में ही यह उपदेश है) आदि में शब्द मात्र था, वह शब्द ब्रह्म के साथ विद्यमान था और वह शब्द ही ब्रह्म है।

हिंदू लोग इस (शब्द) माया या ब्रह्म का व्यक्त भाव कहते हैं, क्योंकि यह ब्रह्म की ही शक्ति हैं। जब उस निरपेक्ष ब्रह्मसत्ता को हम माया के आवरण में से देखते हैं, तब हम उसे प्रकृति कहते हैं। शब्द की अभिव्यक्तियाँ हैं कृष्ण, बुद्ध, ईसा, रामकृष्ण आदि सब अवतार-पुरुष। उस निर्गुण ब्रह्म की विशेष अभिव्यक्ति-ईसा-को हम जानते हैं, वे हमारे लिए ज्ञेय हैं। किंतु निर्गुण ब्रह्म को हम नहीं जान सकते। हम परम पिता को नहीं जान सकते, उसके पुत्र को जान सकते हैं। निर्गुण ब्रह्म को हम केवल 'मानवत्व रूपी रंग के; ईसा के माध्यम से ही देख सकते हैं।

जॉन-रचित ग्रंथ के प्रथम पाँच श्लोकों में ईसाई धर्म का सार निहित है। इसका प्रत्येक श्लोक गंभीरतम दार्शनिक तथ्य से परिपूर्ण है।

पूर्ण कभी अपूर्ण नहीं होता। अंधकार के मध्य रहते हुए भी वह अंधकार से अस्पृष्ट रहता है। ईश्वर की दया सभी के ऊपर रहती है, किंतु उनका (मनुष्यों का) पाप उसे छू नहीं सकता। हम नेत्ररोग से ग्रसित हो सूर्य को अन्य प्रकार का देख सकते है, किंतु सूर्य जैसा पहले था, वैसा ही रहता है। जॉन के उनतीसवें श्लोक में जो लिखा है-'जगत का पाप दूर करते हैं'-उसका अभिप्राय यह है कि ईसा हमें पूर्णता प्राप्त करने का पथ दिखला देंगे। ईश्वर ने ईसा होकर जन्म लिया-मनुष्य को उसके प्रकृत स्वरूप को दिखला देने और यह समझा देने के लिए कि वह भी वस्तुत: ब्रह्मस्वरूप ही है। हम लोग हैं देवत्व के ऊपर मनुष्यत्व का आवरण मात्र, किंतु देवभावापन्न मनुष्य की दृष्टि से ईसा और हम अभिन्न हैं।

त्रित्ववादियों (Trinitarians) के ईसा हमसे बहुत ही उच्च स्तर पर स्थित हैं। एकत्ववादियों (Unitarians) के एक साधु पुरुष मात्र हैं। इन दोनों में कोई भी हमारी सहायता नहीं कर सकता। किंतु जो ईसा ईश्वर के अवतार हैं, जो अपने ईश्वरत्व को नहीं भूलते, वे ईसा ही हमारी सहायता कर सकते हैं। उनमें किसी प्रकार की अपूर्णता नहीं है। इन सभी अवतारों को अपने ईश्वरत्व का ज्ञान सदैव रहता है, और वह उन्हें अपने जन्मकाल से ही रहता है। वे उन अभिनेताओं के समान हैं, जिनका अपना अभिनय समाप्त हो चुका है, जिनका निजी अन्य कोई प्रायोजन नहीं है तो भी जो दूसरों को आनंद देने के लिए रंगमंच पर बारंबार आते रहते हैं। इन महापुरुषों को संसार की कोई वस्तु नहीं छू पाती। वे हमें कुछ काल तक शिक्षा देने भर के लिए हमारा रूप और सीमाएं धारण करके आते हैं, वे ऐसा अभिनय करते हैं, मानो वे हमारे ही सदृश बद्ध हैं, किंतु वास्तव में वे सीमित नहीं होते, वे सर्वदा मुक्तस्वभाव ही रहते हैं।

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'शुभ' यद्यपि सत्य के समीपवर्ती है, फिर भी वह सत्य नहीं है; 'अशुभ' हमें विचलित न कर सके, यह सीखने के बाद हमें यह सीखना होगा कि 'शुभ' भी हमें सुखी न कर सके। हमें जानना होगा कि हम शुभ और अशुभ, दोनों के परे हैं, उनका समायोजन कैसे होता है, और वे दोनों ही आवश्यक हैं।

द्वैतवाद का भाव प्राचीन ईरानियों से आया है। वास्तव में शुभ और अशुभ दोनों एक ही हैं और हमारे मन पर अवलंबित हैं। मन जब स्थिर और शांत रहता है, तब शुभाशुभ कुछ भी उसे स्पर्श नहीं कर पाता। शुभ और अशुभ दोनों के बंधन को काटकर संपूर्ण रूप से मुक्त हो जाओ, तब इन दोनों में से कोई भी तुम्हें स्पर्श नहीं कर सकेगा और तुम मुक्त होकर परम आनंद का अनुभव करोगे। अशुभ मानो लोहे की जंजीर है और शुभ सोने की, किंतु जंजीर दोनों ही हैं। मुक्त हो जाओ और सदा के लिए यह जान लो कि कोई भी जंजीर तुम्हें बाँध नहीं सकती। सोने की जंजीर की सहायता से लोहे की जंजीर को ढीली कर दो और फिर दोनों को फेंक दो। अशुभ रूपी काँटा हमारे शरीर में चुभा हुआ है; उसी वृक्ष का एक और काँटा (शुभ रूपी) लेकर पहले काँटे को निकाल लो, फिर दोनों को फेंक दो और मुक्त हो जाओ।

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संसार में सर्वदा दाता का आसन ग्रहण करो। सर्वस्व दे दो, पर बदले में कुछ न चाहो। प्रेम दो, सहायता दो, सेवा दो; इसमें से जो तुम्हारे पास देने के लिए है, वह दे डालो; किंतु सावधान रहो, उसके बदले में कुछ लेने की इच्छा कभी न करो। किसी तरह की कोई सर्त मत रखो। ऐसा करने पर तुम्हारे लिए भी कोई किसी तरह की शर्त नहीं रखेगा। अपनी हार्दिक दानशीलता के कारण ही हम देते चलें-ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार ईश्वर हमें देता है।

एक मात्र ईश्वर ही देने वाला है, संसार के अन्य सभी लोग दुकानदार मात्र हैं।-उसी के हस्ताक्षर वाले चेक को प्राप्त करने का यत्न करो; उसे लेकर जहाँ जाओगे, वहीं तुम्हारा स्वागत होगा।

'ईश्वर अनिर्वचनीय प्रेमस्वरूप हैं', उपलब्धि की वस्तु है; किंतु 'इति' 'इति' शब्द से वो भी निर्दिष्ट नहीं हो सकता।

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हम जब किसी दु:ख या संघर्ष में फँसते हैं, तब संसार हमें अत्यंत भयावह प्रतीत होने लगता है। किंतु जैसे हम कुत्ते के दो बच्चों को आपस में खेल करते हुए या एक दूसरे को काटते हुए देखकर पहले तो उस ओर ध्यान ही नहीं देते, समझते हैं ये दोनों आपस में खेल कर रहे हैं; इतना ही नहीं, बीच बीच में यदि कभी वे एक दूसरे को जरा गहराई से काट लें तो हम समझते हैं कि इससे इनका कोई विशेष अनिष्ट नहीं होगा, उसी प्रकार हम लोगों के संघर्ष भी ईश्वर की दृष्टि में खेल मात्र हैं। यह संपूर्ण जगत केवल खेल के लिए है-भगवान को इसमें आनंद आता है। संसार में कुछ भी क्यों न हो, उन्हें क्रोध नहीं आता।

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माँ, इस जीवन-समुद्र में मेरी नौका डूब रही है।

भ्रमजाल की आंधी और मोह-ममता का प्रचंड झंझावात प्रति क्षण बढ़ता जा रहा है।

मेरे पांचों मांझी (पंचइंद्रियां) मूर्ख हैं और कर्णधार (मन) दुर्बल है।

मेरी स्थिति डांवाडोल है, मेरी नाव डूब रही है।

माँ, मुझे बचा !

'माँ, तेरा प्रकाश केवल साधुओं में ही नहीं, पापियों में भी है; वह प्रेमियों के भीतर जैसा जैसे रहता है, वैसे ही हत्यारों के भीतर भी विद्यमान है। माँ ही सभी रूपों में स्वयं को अभिव्यक्त कर रही है। आलोक अशुद्ध वस्तु पर पड़ने से अशुद्ध नहीं होता, इसी तरह शुद्ध वस्तु पर पड़ने से उसके गुण में वृद्धि नहीं होती। आलोक नित्यशुद्ध सदा अब परिणामी है। सभी प्राणियों के भीतर वही सौम्यात्सौम्यतरा, नित्यशुद्धस्वभावा, सदा अपरिणामिनी माँ विराजमान है।' 'जो माँ समस्त प्राणियों में प्रकाश रूप विद्यमान है, उसको मैं प्रणाम करता हूँ।'

वह दु:ख दर्द में, भूख-प्यास में उसी प्रकार विद्यमान है, जिस प्रकार सुख में तथा उदात्त भावों में। 'या भ्रमर जो मधुपान कर रहा है, वह दूसरा कोई नहीं है, वह स्वयं प्रभु ही इस भ्रमररूप में मधुबन कर रहे हैं।' ईश्वर ही सबके भीतर है यह जानकर ज्ञानी व्यक्ति निंदा, स्तुति दोनों का परित्याग करते हैं। जान लो, कोई भी तुम्हारा अनिष्ट नहीं कर सकता। कैसे कर सकेगा ? क्या तुम आत्मा नहीं हो ? वह हमारे प्राणों का भी प्राण, चक्षु का भी चक्षु और स्रोत का भी स्रोत है।

हम लोग संसार के बीच इस प्रकार भागे चले जा रहे हैं मानो हमें कोई सिपाही पकड़ने आ रहा हो- इसलिए हमें जगत के सौंदर्य का लेश मात्र ही आभास मिलता है। हमें यह जो इतना भय हो रहा है उसका कारण है जड़ को सत्य समझ कर उसमें विश्वास करना। जड़ की जो कुछ तथाकथित सत्ता प्रतीत हो रही है, वह हमारे मन के ही कारण है। हम जो कुछ देख रहे हैं, वह प्रकृति के बीच से अपने को अभिव्यक्त कर रहा ईश्वर ही है।

23 जून , रविवार

साहसी और निष्कपट बनो। उसके बाद जिस मार्ग पर चाहो अपनी इच्छानुसार भक्तिपूर्वक अग्रसर होओ। निश्चय ही तुम उस पूर्ण वस्तु को प्राप्त करोगे। यदि एक बार किसी तरह जंजीर की एक कड़ी पकड़ सको तो पूरी जंजीर को क्रमशः अपने पास खींच लाने में समर्थ हो सकोगे। वृक्ष की जड़ में यदि जल डाला जाए, (अर्थात प्रभु को प्राप्त कर लिया जाए) तो समस्त वृक्ष जल प्राप्त हो प्राप्त कर लेता है। यदि हम भगवान को पा सके तो सब कुछ पा लेंगे।

एकांगी भाव ही जगत के लिए अति अनिष्ट कर वस्तु है। तुम अपने अंदर जितने विविध पक्षों को विकसित कर सकोगे, उतनी ही आत्माएं तुमको उपलब्ध होंगी और जगत को तुम समस्त आत्माओं के माध्यम से, कभी भक्त के, कभी ज्ञानी के माध्यम से, देख सकोगे। पहले अपने स्वभाव को ठीक ठीक पहचान लो, फिर उसमें दृढ़ रहो। आरंभ करने वाले के लिए निष्ठा (एक भाव में दृढ़ रहना) ही एकमात्र उपाय है, निष्ठा और ईमानदारी ही तुमको सब कुछ प्राप्त करा देगी। गिरजा, मंदिर, मत-मतांतर, विविध अनुष्ठान आदि तो पौधे की रक्षा के लिए लगाए गए घेरे के समान हैं। यदि पौधे को बढ़ाना चाहते हो तो अंत में इस घेरे को काटना ही पड़ेगा। इसी प्रकार विभिन्न धर्म, वेद, बाइबिल, मत-मतांतर- ये सभी पौधों के गमलों के सदृश्य हैं, किंतु इन गमलों में उन्हें एक न एक दिन बाहर निकलना ही पड़ेगा। निष्ठा भी पौधे के गमले के समान ही अपने पत्र में संघर्षरत साधक की रक्षा करती है।

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एक एक तरंग को नहीं, सारे समुद्र को देखो; चींटी और देवता में भेद-दृष्टि मत रखो। प्रत्येक कीट-पतंग तक प्रभु ईसा का भाई है। फिर एक को बड़ा, एक को छोटा कैसे कहते हो ? अपने अपने स्थान पर सभी बड़े हैं। हम जिस प्रकार यहाँ रहते हैं उसी प्रकार सूर्य, चंद्र और तारों में भी रहते हैं। आत्मा देश-कालातीत और सर्वव्यापी है। जिस मुख से भी हम उस प्रभु का गुणगान हो रहा है, वह हमारा ही मुख है; जो भी आंख वस्तु को देख रही है, वह हमारी आंखे है। हम किसी निर्दिष्ट स्थान में सीमाबद्ध नहीं हैं, हम दे नहीं हैं, समग्र ब्रह्मांड हमारी दे है। हम एक जादूगर के समान जादू का डंडा घुमाते हैं और अपने सम्मुख इच्छानुसार नाना प्रकार के दृश्यों की सृष्टि करते हैं। हम एक ऐसी मकड़ी के समान स्वनिर्मित विशाल जाल के बीच रहते हैं जो अपनी इच्छानुसार जाल के किसी भी तार पर जा सकती है। आज वह जिस स्थान में रहती है, उतने को ही जान पाती है, परंतु बाद में वह समस्त जाल को जान सकेगी। आज हमारा शरीर जिस स्थान में है, उसी स्थान में हम अपनी सत्ता का अनुभव करते हैं। इस समय हम केवल एक मस्तिष्क का व्यवहार कर पाते हैं , किंतु जब हम पूर्ण ज्ञान अथवा परा चेतना अवस्था में पहुँचेंगे, तब हम सब कुछ जान लेंगे हम सब मस्तिष्कों का उपयोग कर सकेंगे। आज भी हम अपनी वर्तमान चेतना को धक्का देकर इस प्रकार ठेल सकते हैं कि वह आगे बढ़ जाए और ज्ञानातीत या पूर्ण ज्ञान की भूमि में कार्य करने लगे।

हम केवल 'अस्ति' स्वरूप, सत्स्वरूप होने की चेष्टा कर रहे हैं, और कुछ नहीं, उसमें 'अहं' भी नहीं रहेगा, शुद्ध स्फटिक के समान उसमें समग्र जगत का केवल प्रतिबिंब पड़ेगा, किंतु वह जैसा है वैसा ही वैसे ही रहेगा। यह अवस्था प्राप्त होने पर क्रिया नहीं रहती, शरीर केवल यंत्रवत हो जाता है; वह सर्वदा शुद्ध भाव युक्त ही रहता है, उसकी शुद्धि के लिए चेष्टा नहीं करनी पड़ती, वह अपवित्र हो ही नहीं सकता।

अपने को वही अनंत स्वरूप समझो, ऐसा करने से भय बिल्कुल चला जाएगा। सर्वदा कहो - "मैं और मेरा पिता (ईश्वर) एक हैं।"

अंगूर की लता पर जिस प्रकार गुच्छों में अंगूर चलते हैं, उसी प्रकार भविष्य में सैकड़ों आशाओं का आविर्भाव होगा। उस समय संसार का खेल समाप्त हो जाएगा। सभी संसार-चक्र के से बाहर निकल जाएंगे और मुक्त हो जाएंगे। मान लो, एक पतीली में पानी रखा गया है; उबालने से पहले पानी में एक के बाद एक बुलबुले उठते हैं, कोई बड़ा, कोई छोटा; क्रमश: इन बुलबुलों की संख्या बढ़ने लगती है। अंत में सभी पानी एक आवाज के साथ खोलने लगता है और भाप बनकर बाहर निकल जाता है। बुद्ध और ईसा भी इस जगत में सर्वापेक्षा बड़े बुलबुले हैं। मूसा एक छोटे बुलबुले थे, उसके बाद और भी कई बड़े बड़े बुलबुले उठे। इसी प्रकार एक समय ऐसा आएगा जब संपूर्ण जगत बुलबुले होकर भाप के समान अदृश्य हो जाएगा। परंतु सृष्टि-प्रवाह अविरल चलता ही रहेगा, फिर नूतन जल की सृष्टि होगी ही; और वह सृष्टि भी फिर इसी प्रक्रिया के अनुसार चलती रहेगी।

24 जून , सोमवार

(आज स्वामी जी ने नारदीय भक्तिसूत्र के विशेष स्थलों को पढ़कर उनकी व्याख्या की।)

'भक्ति ईश्वर के प्रति परम प्रेमरूप है, अमृतस्वरूप है, जिसे पाकर मनुष्य पूर्ण परितृप्त हो जाता है, किसी हानि के निमित्त शोक नहीं करता, कभी ईर्ष्या नहीं करता, और जिसे जान कर वह उन्मत्त हो जाता है।'

मेरे गुरुदेव कहा करते थे- 'यह जगत एक विशाल पागलखाना है। यहाँ तो सभी पागल हैं- कोई धन के लिए, कोई स्त्री के लिए, कोई नाम और यश के लिए और कुछ मनुष्य ऐसे भी हैं जो ईश्वर के लिए पागल हैं। मैं अन्यान्य वस्तुओं के लिए पागल ना होकर ईश्वर के लिए पागल होना सबसे उत्तम समझता हूँ। ईश्वर है पारस मणि। उसके स्पर्श से मनुष्य एक ही क्षण में सोना बन जाता है; यद्यपि आकार पूर्ववत ही रहता है, किंतु प्रकृति बदल जाती है- मनुष्य का आकार रहता है, किंतु उससे किसी का भी अनिष्ट नहीं होता, उससे अन्याय का कोई कार्य हो ही नहीं सकता।'

'ईश्वर का चिंतन करते करते कोई रोने लगता है, कोई हंसने लगता है; कोई गाता है; कोई नाचता है; और किसी के मुख से अद्भुत बातें निकलने लगती हैं किंतु सब उस एक ईश्वर की ही बातें करते हैं।

पैगंबर धर्म का प्रचार करते हैं, किंतु ईसा बुद्ध, रामकृष्ण आदि के समान अवतार-पुरुष ही धर्म प्रदान करते हैं। उनका एक स्पर्श मात्र, एक दृक्पात मात्र पर्याप्त होता है। ईसाई धर्म में इसको पवित्रात्मा (Holy Ghost) की शक्ति कहते हैं इसी कार्य को लक्ष्य करके 'हस्तस्पर्श' (The laying on of hands) की कथा बाईबिल में कही गई है। इस प्रभु ईसा ने अपने शिष्यों के भीतर सचमुच शक्ति संचार किया था। इसको 'गुरुपरंपरागत शक्ति' कहते हैं। यही यथार्थ बपतिस्मा (Baptism-दीक्षा) है और अनादि काल से चली आ रही है।

'भक्ति को किसी कामना की पूर्ति का साधन साधन नहीं बनाना नहीं बनाया जा सकता, क्योंकि भक्ति तो समस्त कामनाओं का निरोध है।' नारद ने भक्ति का लक्षण इस प्रकार बतलाया है-'जब समस्त मन, समस्त वचन और समस्त कर्म उनके प्रति अर्पित हो जाते हैं और क्षण मात्र के लिए भी उनकी विस्मृति हृदय में परम व्याकुलता उत्पन्न कर देती है, तभी यथार्थ भक्ति का उदय समझना चाहिए।

यह भक्ति प्रेम की सर्वोच्च अवस्था है; क्योंकि इसमें पारस्परिकता की कामना नहीं है, जो समस्त मानवीय प्रेम में होती है।

'जो व्यक्ति समस्त लौकिक और वैदिक कर्मों का त्याग कर देता है वह संन्यासी है। जब आत्मा पूर्णरूपेण ईश्वर की ओर उन्मुख होती है और केवल ईश्वर में ही शरण लेती है तब हम कह सकते हैं कि अब हमें इस प्रकार का प्रेम प्राप्त होने वाला है।'

जब तक शास्त्र-विधियों का पालन छोड़ देने का सामर्थ्य प्राप्त हो, तब तक इन सबको मानते चलो, किंतु उसके बाद तुम्हें शास्त्र के परे जाना होगा। शास्त्र चरम लक्ष्य नहीं है। आध्यात्मिक सत्य का एकमात्र प्रमाण है-सत्यनुसंधान। प्रत्येक को स्वयं परीक्षा करके देखना होगा कि यह सत्य है या नहीं। जो धर्माचार्य यह कहते हैं कि मैंने इस सत्य का दर्शन किया है, किंतु तुम कभी नहीं कर सकते, उनकी बात पर विश्वास मत करो; किंतु जो यह कहते हैं कि तुम भी चेष्टा करने पर दर्शन पा सकोगे, केवल उन्हीं की बात पर विश्वास करो।

इस संसार में सभी युगों के, सभी देशों के सभी शास्त्र और सभी सत्य वेद हैं; क्योंकि यह सभी सत्य अनुभव में है और सभी लोग इन सब सत्यों की उपलब्धि कर सकते हैं।

जब प्रेम का सूर्य क्षितिज पर उदित होने लगता है, तब हम सभी कर्मों को ईश्वरार्पण कर देना चाहते हैं; और उस उसकी एक क्षण की भी विस्मृति से हमें बड़े क्लेश का अनुभव होता है। ईश्वर और उसके प्रति तुम्हारी भक्ति-दोनों के बीच कोई भी अन्य वस्तु नहीं होनी चाहिए। उनकी भक्ति करो, उनकी भक्ति करो, उनसे प्रेम करो। लोग कुछ भी कहें, कहने दो, उसकी परवाह मत करो। प्रेम (भक्ति) तीन प्रकार का होता है-पहला वह जो माँगना ही जानता है, देना नहीं; दूसरा है विनिमय; और तीसरा है प्रतिदान के विचार मात्र से ही से भी रहित, प्रेम-दीपक के प्रति पतंग के प्रेम के सदृश।

'यह भक्ति कर्म, ज्ञान और योग से भी श्रेष्ठ है।'

कर्म के द्वारा केवल कर्म करने वाले का ही प्रशिक्षण होता है, उससे दूसरा का कुछ उपकार नहीं होता। हमें अपनी समस्या को स्वयं ही सुलझाना है, महापुरुष तो हमारा केवल पथ-प्रदर्शन करते हैं। और 'जो तुम विचार करते हो, वह तुम बन भी जाते हो।' ईसा के श्री चरणों में यदि तुम अपने को समर्पित कर दोगे तो तुम्हें सर्वदा उनका चिंतन करना होगा और इस चिंतन के फलस्वरूप तुम तद्वत् बन जाओगे, इस प्रकार तुम उनसे 'प्रेम' करते हो।

'पराभक्ति और पराविद्या दोनों एक ही हैं।'

किंतु ईश्वर के संबंध में केवल नानाविध मत-मतानंतर की आलोचना करने से काम नहीं चलेगा। ईश्वर से प्रेम करना होगा और साधन कर साधना करनी होगी। संसार और सांसारिक विषयों का त्याग विशेषत: तब करो जब 'पौधा' सुकुमार रहता है। दिन-रात ईश्वर का चिंतन करो; जहाँ तक हो सके दूसरे विषयों का चिंतन छोड़ दो। सभी आवश्यक दैनंदिन विचारों का चिंतन ईश्वर के माध्यम से किया जा सकता है। ईश्वर को अर्पित करके खाओ, उसको अर्पित करके पियो, उसको अर्पित करके सोओ, सब में उसीको देखो। दूसरों से उसकी चर्चा करो, यह सबसे अधिक उपयोगी है। इन प्रेमा भक्ति के रूपों को क्रमशः साधारणी, समंजसा तथा समर्था कहा गया है।

भगवान की कृपा अथवा उसकी योग्यतम संतान महापुरुषों की कृपा प्राप्त कर लो। यह भी दो भागवत्प्राप्ति के प्रधान उपाय हैं। ऐसे महापुरुषों का संग-लाभ होना बहुत ही कठिन है, पाँच मिनट भी उनका ठीक-ठीक संग-लाभ हो जाए तो सारा जीवन ही बदल जाता है। यदि तुम इन महापुरुषों की संगति के सचमुच इच्छुक हो तो तुम्हें किसी न किसी महापुरुष का संगलाभ अवश्य होगा। ये भक्त, ये महापुरुष जहाँ रहते हैं, वह स्थान पवित्र हो जाता है, 'प्रभु की संतानों का ऐसा ही महात्मा महात्मा है।' वे स्वयं प्रभु हैं, वे जो कहते हैं वही शास्त्र हो जाता है। ऐसा है उनका महात्म्य ! वे जिस स्थान पर निवास करते हैं, वह उनके देहनि:सृत पवित्र शक्ति-स्पंदन से परिपूर्ण हो जाता है; जो कोई उस स्थान पर जाता है, वही उस स्पंदन का अनुभव करता है और इसी कारण उसके भीतर भी पवित्र बनने की प्रवृत्ति जाग उठती है।

'इस प्रकार के प्रेमियों में जाति, विद्या, रूप, कूल, धन आदि का भेद नहीं रहता, क्योंकि वह उनके (ईश्वर के) हैं।

कुसंग पूर्ण रूप से छोड़ दो, विशेषता: प्रारंभिक अवस्था में। विषयी लोगों का संग कभी न करो, क्योंकि उनकी संगति से चित्त चंचल हो जाता है। 'मैं' और 'मेरा' के भाव को सर्वथा छोड़ दो। जिसके लिए जगत में 'मेरा' कुछ भी नहीं है, उसीके निकट भगवान आविर्भूत होते हैं। सभी प्रकार के मायिक प्रेम वह बंधनों को काट डालो। आलस्य का त्याग करो, और 'मेरा क्या होगा' इस प्रकार की चिंता कभी ना करो। तुमने जो कुछ काम किया है, उसका फलाफल जानने के लिए पीछे की ओर मुड़कर मत देखो। भगवान को समर्पण कर कर्म करते चलो, फलाफल की कुछ भी चिंता ना करो। जब मन और प्राण अविच्छिन्न प्रवाह के रूप में भगवान की ओर जाते हैं, जब रुपये-पैसे या नाम-यश की प्राप्ति के लिए समय नहीं बचता, भगवान को छोड़ अन्य किसी के चिंतन का अवसर नहीं मिलता, तभी हृदय में उस अपार अपूर्व प्रेमानंद का उदय होता है। वासनाएँ तो शीशे की गुड़ियों के समान आसार हैं। प्रकृति प्रेम या भक्ति नित्य नूतन और प्रतिक्षण वर्धिष्णु है, और है सूक्ष्म अनुभवस्वरूप। अनुभव के द्वारा ही इसे समझना होता है, व्याख्यान के द्वारा यह नहीं समझायी जा सकती। भक्ति ही सबसे सहज साधना है। भक्ति स्वभाविक है, इसमें किसी युक्ति या तर्क की अपेक्षा नहीं; भक्ति स्वयं प्राण है, इसके लिए और किसी प्रमाण की आवश्यकता नहीं। मुक्ति-तर्क क्या है ? अपने मन के द्वारा किसी विषय को सीमाबद्ध करना ही युक्ति-तर्क है। हम मानो अपने मन का जाल फैलाकर किसी विषय को पकड़ते हैं और कहते हैं हमने इस विषय को प्रमाणित किया है। किंतु ईश्वर को हम जाल के द्वारा पकड़ नहीं सकते--कभी भी नहीं।

भक्ति आहैतुकी होना चाहिए। हम जब प्रेम के अयोग्य किसी वस्तु या व्यक्ति से प्यार करते हैं, तब वह प्रेम भी उसी प्रकृत प्रेम और प्रकृत आनंद की अभिव्यक्ति मात्र है। प्रेम को चाहे जिस रूप से व्यवहार में क्यों ना लाओ, प्रेम स्वभाव से ही शांति और आनंदस्वरूप है। हत्यारा जब अपने शिशु का चुंबन करता है, उस समय वह प्रेम को छोड़ अन्य सब कुछ भूल जाता है। 'अहं' का बिल्कुल नाश कर डालो। काम-क्रोध का त्याग करो-अपना सर्वस्व ईश्वर को समर्पित कर दो। नाहं नाहं, त्वमेव त्वमेव-'मैं नहीं हूँ, मैं नहीं हूँ, तू ही है, तू ही है-'मैं' मर गया, रहे हो केवल 'तुम' ही। 'मैं तुम ही हूँ'। किसी की निंदा मत करो। यदि दु:ख-विपत्ति आए, तो समझो ईश्वर तुम्हारे साथ खेल रहे हैं-- और यही समझकर दु:ख में भी परम सुखी रहो।

प्रेम देशकालातीत है, वह पूर्णस्वरूप है।

२५ जून ,मंगलवार

प्रत्येक सुखोपभोग के बाद दु:ख आता है-यह दु:ख उसी क्षण आ सकता है, अथवा संभव है, कुछ देर में आए। जो आत्मा जितनी उन्नत है, उसे सुख के बाद दु:ख भी उतनी ही शीघ्र प्राप्त होती है। हमें सुख-दु:ख दोनों ही नहीं चाहिए। ये दोनों ही हमारे प्रकृत स्वरूप को भूला देते हैं। दोनों ही जंजीर हैं-एक लोहे की, दूसरी सोने की। इन दोनों के पीछे ही आत्मा है-उसमें ना सुख है, न दु:ख। सुख-दु:ख दोनों ही अवस्था विशेष है और प्रत्येक अवस्था सदा परिवर्तनशील होती है परंतु आत्मा आनंदस्वरूप अपरिणामी और शांतिस्वरूप है। हमें आत्मा की प्राप्ति नहीं करनी है, वह तो हमारा प्रकृत रूप ही है, केवल मैल को धो डालो, तभी उसका दर्शन होगा।

इस आत्मस्वरूप में प्रतिष्ठित होकर ही हम जगत से ठीक ठीक प्रेम कर सकेंगे। खूब उच्च भाव में अपने को प्रतिष्ठित करो, 'मैं अनंत आत्मस्वरूप हूँ', यह समझकर हमें जगत्प्रपंच की ओर संपूर्ण शांत भाव से दृष्टिपात करना होगा। यह जगह तो एक छोटे बच्चे के खिलौने के समान है; हम जब उसे समझ लेंगे तब जगत में कुछ भी क्यों न हो, वह हमें चंचल ना कर सकेगा। यदि प्रशंसा नाम मन प्रसन्न होगा तो निंदा से वह अवश्य ही विषण्ण हो जाएगा। केवल इंद्रियों का ही नहीं, मन का भी समस्त सुख अनित्य है; किंतु हमारे भीतर ही वह निरपेक्ष सुख रहता है, जो किसी और के ऊपर निर्भर नहीं करता। यह सुख पूरी तरह स्वायत्त और आनंदस्वरूप है। सुख के लिए आभ्यांतरिक आत्मा पर हम जितना निर्भर रहेंगे, उतना ही हम आध्यात्मिक होंगे। इस आत्मानंद को ही जगत में धर्म कहते हैं।

अंतर्जगत-जो कि वास्तविक सत्य है-बहिर्जगत की अपेक्षा अनंत गुना श्रेष्ठ है। बहिर्जगत तो उस सत्य अंतर्जगत का छायामय प्रक्षेप मात्र है। वह जगह न तो सत्य है, न मिथ्या। यह तो सत्य की छाया मात्र है। कभी कहते हैं, 'यह कल्पना सत्य की स्वर्णिम छाया है।

हम जब जगत में प्रवेश करते हैं, तभी वह हमारे लिए सजीव हो उठता है। हम यदि अलग कर दिए जाएं, तो जगत अचेतन, मृत और जड़ पदार्थ मात्र रह जाता है। हम ही जगत के पदार्थसमूह को जीवन दान करते हैं, किंतु एक निर्बोध जीव के समान इस तथ्य को भूलकर कभी हम उनसे भयभीत हो जाते हैं और कभी उनका उपभोग करने लगते हैं। मछली की टोकरी यदि पास में न रहे तो नींद नहीं आएगी-यह जैसे उन मछली बेचनेवाली औरतों को हुआ था वैसा ही तुम लोगों को कहीं न हो : कुछ मछली वाली सिर पर मछली की टोकरीयाँ लेकर बाजार से घर लौट रही थीं। उसी समय खूब जोर से वर्षा होने लगी। घर जाने में असमर्थ हो उन्होंने रास्ते में अपनी पहचान की एक मालिन के बगीचे में आश्रय लिया। मालिन ने रात में सोने के लिए जो कोठरी उन्हें दी, ठीक उसके पास ही फूलों का बगीचा था। हवा के कारण बगीचे के सुंदर फूलों की महक उन औरतों की नाक में आने लगी, किंतु वह महक उनके लिए इतनी असह्य हो उठी कि वह किसी तरह भी न सकीं। अंत में उनमें से एक ने सुझाव दिया-'आओ' हम मछली की टोकरियों को भिगोकर सिर के पास रख लें। वैसा करने पर जब उन टोकरियों से मछलियों की गंध उनकी नाक में आने लगी, तब वे आराम से खर्राटे भरने लगीं !

यह संसार भी हमारे लिए उस मछली की टोकरी के समान है-हमें सुखभोग के लिए उस पर निर्भर ना रहना चाहिए। जो उस पर निर्भर रहते हैं, वे तामस प्रकृति अथवा बद्ध जीव हैं। उनके बाद राजस प्रकृति के लोग हैं; उनका अहंकार खूब प्रबल होता है, वह सर्वदा 'मैं-मैं' कहते रहते हैं। कभी-कभी वे सत्कार्य भी करते हैं, चेष्टा करने पर वे धार्मिक भी हो सकते हैं। किंतु सात्विक प्रकृति वाले ही सर्वश्रेष्ठ हैं वे सर्वदा अंतरमुख और आत्मनिष्ठ रहते हैं। प्रत्येक व्यक्ति में सत्व, रज और तमोगुण हैं। एक एक समय में मनुष्य में एक एक गुण का प्राधान्य होता है।

सृष्टि का अर्थ कुछ निर्माण करना या बनाना नहीं है; सृष्टि का अर्थ है-जो साम्य भाव नष्ट हो गया है, उसीको पुनः प्राप्त करने की चेष्टा-जैसे यदि एक काग को टुकड़े-टुकड़े कर उसे पानी में नीचे फेंक दे तो वे सब टुकड़े अलग-अलग या एक साथ मिलकर पानी के ऊपर आने की चेष्टा करते हैं। जीवन अशुभ है और अशुभ सदा उसके साथ रहता है। किंचित् अशुभ से ही जगत की सृष्टि हुई है। जगत में थोड़ा बहुत अशुभ है, उसे अच्छा ही कहना चाहिए, क्योंकि साम्य भाव आने पर यह जगत ही नष्ट हो जाएगा। साम्य और विनाश दोनों एक ही हैं। जितने दिनों तक यह जगत चल रहा है, उतने दिनों तक साथ ही साथ शुभ और अशुभ भी चलते रहेंगे, किंतु जब हम जगत के परे चले जाते हैं, तब शुभाशुभ दोनों से अतीत हो जाते हैं अर्थात परमानंद प्राप्त कर लेते हैं।

जगत में दु:खविरहित सुख, अशुभविरहित शुभ पाने की संभावना कदापि नहीं है; क्योंकि जीवन का अर्थ ही है साम्य भाव की विच्युति। हमें हमें चाहिए मुक्ति; जीवन, सुख अथवा शुभ कुछ भी नहीं। सृष्टि-प्रवाह अनंत काल से चल रहा है-न उसका आदि है, न अंत-एक अनंत सागर के ऊपर की निरंतर गतिशील तरंग के समान है। इसमें कुछ ऐसे गहरे स्थल हैं, जहाँ हम अब भी नहीं पहुँचे है, और ऐसे भी कुछ स्थल हैं, जहाँ साम्य भाव पुनः स्थापित हो चुका है, किंतु ऊपर की सतह पर सरल तरंग सर्वदा ही उठती रहती है, वहाँ पर अनंत काल से इस साम्यावस्था को प्राप्त करने की चेष्टा चलती ही रहती है। जीवन और मृत्यु एक ही वस्तु के विभिन्न नाम मात्र हैं, एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। दोनों ही माया है-यह अवस्था स्पष्ट रूप से समझी नहीं जा सकती-एक समय जीवित रहने की चेष्टा होती है, तो दूसरे ही क्षण विनाश मृत्यु की। हमारा यथार्थ स्वरूप आत्मा इन दोनों से परे है। जब हम ईश्वर का अस्तित्व स्वीकार करते हैं तो ईश्वर, और कुछ नहीं, वास्तव में आत्मा ही है, जिससे हमने अपने को अलग कर लिया है और जिसे हम अपने से अलग मानकर पूजते हैं; किंतु वास्तव में यह उपासना उसी की है जो चिर काल से एकमात्र ईश्वरपदवाच्य हमारा अंतरात्मा ही है।

उस नष्ट साम्यावस्था को पुनः प्राप्त करने के लिए पहले हमें रजत द्वारा तमस को और सत्व द्वारा रजत को जीतना होगा। सत्व का अभिप्राय उस प्रकार की स्थिर, धीर, प्रशांत अवस्था से है, जिसके धीरे- धीरे बढ़ने पर अंत में अन्यान्य भाव अर्थात रजत और तमस सर्वथा लुप्त हो जाते हैं। बंधन काट डालो, मुक्त बनो, यथार्थ 'पुत्र' बनो, तभी ईसा के समान 'पिता को देख सकोगे।' धर्म और ईश्वर कहने से अनंत शक्ति और अनंत वीर्य समझा जाता है। दुर्बलता और दासत्व का त्याग करो। जब तुम मुक्त स्वभाव हो, केवल तभी तुम आत्मा हो; यदि तुम मुक्त मुक्तस्वभाव हो तभी अमृतत्व तुम्हारे करतलगत है; तभी ईश्वर वास्तव में है, यदि वह मुक्तस्वभाव है।

* * *

जगत मेरे लिए है, मैं जगत के लिए कदापि नहीं हूँ। शुभ-अशुभ सभी मेरे दास हैं, मैं उनका दास कदापि नहीं हूँ। जिस अवस्था में पड़ा है, उसी अवस्था में पड़े रहना पशु का स्वभाव है; मनुष्य का स्वभाव है-अशुभ छोड़कर शुभ प्राप्त करने की चेष्टा करना; और शुभाशुभ की किसी के लिए भी चेष्टा न करना-सर्वदा सब अवस्थाओं में आनंदमय होकर रहना ईश्वर का स्वभाव है। हमें ईश्वर होना होगा। हृदय को समुद्र के समान महान बना लो, संसार के क्षुद्र भावों के परे चले जाओ, इतना ही नहीं, अशुभ आने पर भी आनंद से उन्मत्त हो जाओ; जगत को एक तस्वीर के समान देखो; और यह जानकर कि जगत में तुम्हें कोई भी वस्तु विचलित नहीं कर सकती, जगह के सौंदर्य का उपभोग करो। जगत के सुख इस प्रकार हैं, जैसे छोटे छोटे लड़के खेल करते-करते कीचड़ में काँच की गुड़िया पा जाते हैं। जगत के सु:ख-दु:ख के ऊपर शांत भाव से दृष्टिपात करो; शुभ और अशुभ दोनों को एक दृष्टि से देखो-दोनों ही भगवान के खेल हैं, इसलिए सभी में आनंद का अनुभव करो।

* * *

मेरे गुरुदेव कहते थे-'सभी नारायण हैं, किंतु बाघ नारायण से दूर रहना होता है; सभी जल नारायण हैं, तो सभी गंदा जल नहीं पिया जाता।'

'आकाशरूपी थाली में रवि-चंद्र रूपी दीपक जलते हैं-फिर अन्य मंदिरों की क्या आवश्यकता ? सभी नेत्र तेरे नेत्र हैं, फिर भी तेरा एक भी नेत्र नहीं है; सभी हाथ तेरे हाथ हैं, फिर भी तेरा एक भी हाथ नहीं है।'

न कुछ पाने की चेष्टा करो, ना कुछ छोड़ने की चेष्टा करो, यदृच्छलाभ से संतुष्ट बनो किसी भी विषय से तुम विचलित ना हो, तभी समझो कि तुमने मुक्ति या स्वाधीनता प्राप्त कर ली। केवल सहन करने से ना होगा-बिल्कुल अनासक्त बनो। उस साँड़ की कहानी मन में रखो जिसके सींग पर एक मच्छर बहुत समय तक बैठा रहा--इतनी देर बैठने के बाद उसकी औचित्त्य बुद्धि जाग्रत हो उठी; यह सोचकर कि संभव है साँड के सींग पर मेरे बैठने से उसे बहुत कष्ट हो रहा हो, वह साँड़ को संबोधित कर कहने लगा, "भाई साँड़! मैं बहुत देर से तुम्हारे सींग पर बैठा हूँ। मालूम होता है तुम्हें बहुत असुविधा हो रही है, मुझे क्षमा करना। यह लो, मैं उड़ जाता हूँ।" साँड़ बोला-"नहीं, नहीं, तुम सपरिवार आकर भी मेरे सींग पर निवास करो न। मेरा उससे कुछ न बिगड़ेगा।"

२६ जून बुधवार

जब हमारा 'अहंज्ञान' नहीं रहता, तभी हम अपना सर्वोत्तम कार्य कर सकते हैं, दूसरों को सर्वाधिक प्रभावित कर पाते हैं। सभी महान प्रतिभाशाली व्यक्ति इस बात को जानते हैं। उस दिव्य कर्ता के प्रति अपना हृदय खोल दो, तुम स्वयं कुछ भी करने मत जाओ। श्री कृष्ण गीता में कहते हैं-'हे अर्जुन, त्रिलोक में मेरे लिए कर्तव्य नामक कुछ भी नहीं है।' उनके ऊपर संपूर्णतया निर्भर रहो, संपूर्ण रूप से अनासक्त होओ, ऐसा होने पर ही तुम्हारे द्वारा कुछ यथार्थ कार्य हो सकता है। जिस शक्ति के द्वारा यह सभी कार्य होते हैं, उसे हम देख नहीं पाते, हम केवल उसका फलमात्र देख पाते हैं। अहं को निकाल डालो, उसका नाश कर डालो, उसे भूल जाओ; अपने द्वारा ईश्वर को कार्य करने दो-यह उन्हीं का कार्य है, उन्हें करने दो। हमें और कुछ नहीं करना होगा-केवल स्वयं हटकर उन्हें काम करने देना होगा। हम जितना दूर हटते जाएँगे, ईश्वर उतना ही हमारे भीतर आएगा। 'तुछ अहं' को नष्ट कर डालो--केवल 'महत्त्व अहं' रहने दो। हम अभी जो कुछ हैं। वह सब अपने चिंतन का ही फल है। इसलिए तुम क्या चिंतन करते हो, इस विषय में विशेष ध्यान रखो। शब्द तो गौण वस्तु है। चिंतन ही बहुकाल-स्थायी है और उसकी गति भी बहु-दूरव्यापी है। हम जो कुछ चिंतन करते हैं। उसमें हमारे चरित्र की छाप लग जाती है; इस कारण साधु पुरुषों की हँसी या गाली में भी उस के हृदय का प्रेम और पवित्रता रहती है और उससे हमारा कल्याण ही होता है।

कुछ भी कामना मत करो। ईश्वर का चिंतन करो, किंतु किसी भी फल की कामना मत करो। जो कामनाशुन्य होते हैं, उन्हींका कार्य फलप्रद होता है। भिक्षाजीवी सन्यासी द्वारा द्वार पर धर्म का संदेश लेकर जाते हैं, किंतु वे मन में सोचते हैं, हम कुछ भी नहीं करते। यह किसी प्रकार की अपनी अधिकार-सत्ता भी नहीं दर्शाते, उनका कार्य उनके अनजान में हो जाता है। यदि वे (ऐहिक) ज्ञानरूपी वृक्ष का फल खाएं तो उन्हें अहंकार आ जाए फिर वे जो कुछ लोककल्याण करेंगे-सब नष्ट हो जाएगा। जब हम 'मैं-मैं' करते हैं, तब हम मूर्ख से बन जाते हैं, और कहते हैं-हमने 'ज्ञान' लाभ कर लिया है, किंतु वास्तव में तो हम 'आँख बाँधे बैल' के समान कोल्हू में ही लगातार घूमते रहते हैं। भगवान खूब अच्छी तरह अपने को छिपाकर रखते हैं, इसीलिए उनका कार्य भी सर्वोत्तम है। इसी प्रकार जो अपने को संपूर्ण रूप से छिपाकर रख सकते हैं, वे ही सब की अपेक्षा अधिक कार्य कर पाते हैं। पहले अपने को जीत लो, फिर संपूर्ण जगत तुम्हारे पैरों के नीचे आ जाएगा।

सत्व गुण में अवस्थित होने पर हम सभी वस्तुओं के असली रूप को देख सकते हैं, उस समय हम पंचेंद्रियों और बुद्धि के अतीत प्रदेश में चले जाते हैं। 'अहं' ही वज्रदृढ़ प्राचीर है, जिसने हमें बंद कर रखा है-सत्य के मुक्त वायुमंडल में वह हमें नहीं जाने देता-सभी विषयों में, सभी कार्यों में इसी से 'मैं, मेरा' यह भाव आता है-हम सोचते हैं, मैं यह कार्य करता हूँ, वह कार्य करता हूँ, इत्यादि। इस क्षुद्र अहंम भाव को दूर कर डालो, हममें यह जो अहंरूप पैशाचिक भाव रहता है, उसे बिल्कुल नष्ट कर डालो। नाहं नाहं, त्वमेव त्वमेव, इस मंत्र का उच्चारण करो, हृदय से उसे अनुभव करो, समग्र जीवन उससे अनुप्राणित कर दो। जब तक हम इस अहंभाव-गठित जगत का परित्याग नहीं कर पाते, तब तक हम स्वर्ग-राज्य में कभी भी प्रवेश नहीं कर सकेंगे-न कोई कभी कर सका है और न कर सकेगा। संसार त्याग करने का अर्थ है-इस अहंभाव को बिल्कुल भूल जाना, अहं भाव की ओर कभी भी ध्यान ना देना; देह में वास करना, लेकिन देह का ना होना। इस दुष्ट अहंभाव को बिल्कुल नष्ट कर डाल डालना होगा। लोग जब तुम्हारी बुराई करें, तो तुम उन्हें आशीर्वाद दो; सोचकर देखो, वे तुम्हारा कितना उपकार करते हैं; अनिष्ट यदि किसी का होता है, तो केवल उनका अपना ही होता है। ऐसे स्थान पर जाओ जहाँ लोग तुमसे घृणा करें; तुम अपनी अहंता को उन्हें मार मार कर अपने भीतर से बाहर निकाल फेंकने दो-ऐसा होने पर तुम भगवान के सन्निकट पहुँच जाओगे। बंदरिया जैसे अपने बच्चे को गोद में दबाए रहती है, किंतु अंत में बाध्य होने पर उसको हटाकर फेंक देती है, उसे कुचल डालने में भी पीछे नहीं रहती, उसी प्रकार हम भी संसार को जितने दिन तक संभव होता है, छाती से चिपकाए रहते हैं, किंतु अंत में जब हम उसे पददलित करने पर बाध्य होते हैं, तभी हम ईश्वर के समीप जाने के अधिकारी होते हैं। धर्म के लिए यदि दूसरा दूसरों का अत्याचार सहन करना पड़े तो हम धन्य हो जाएंगे ; यदि हम लिखना-पढ़ना न जाने तो हम धन्य हैं, क्योंकि ईश्वर के सान्निध्य से दूर करनेवाली अनेक बातें उससे कम हो जाती हैं।

भोग है लाख फनवाला सांप-हमें उसे कुचलना ही होगा। हम भोगों को त्यागकर अग्रसर होने लगें कुछ भी न पाने पर संभव है हम निराश हो जाएँ; किंतु लगे रहो, लगे रहो-कभी छोड़ो मत। यह संसार एक पिशाच के समान है। यह संसार मानो एक राज्य है-हमारा क्षुद्र अहं मानो उसका राजा है। उसे दूर कर दृढ़ होकर खड़े हो जाओ। काम-कंचन, नाथ-यश को छोड़ दृढ़ भाव से ईश्वर की शरण लो, अंत में हम सुख-दु:ख में संपूर्ण उदासीनता लाभ करेंगे। इंद्रियचरितार्थ ही सुख है-यह धारणा संपूर्ण जड़वादात्मक है। उसमें एक बिंदु मात्र भी यथार्थ सुख नहीं है। उसमें जो कुछ सुख है, वह वास्तविक आनंद का प्रतिबिंब मात्र है।

जिन्होंने ईश्वर के श्रीचरणों में आत्मसमर्पण किया है, वह जगत के लिए उन तथाकथित कर्मियों की अपेक्षा अनेक अधिक कार्य करते हैं। जिसने स्वयं को संपूर्ण रूप शुद्ध रूप बना लिया है वह सैकड़ों धर्म-प्रचारकों की अपेक्षा अधिक कार्य करता है। चित्तशुद्धि और मौन वाणी में शक्ति आती है।

लिली फूल के सदृश बनो-एक ही स्थान में रहो, अपनी पंखुड़ियों को मुकुलित करो, मधुमक्खियों स्वयं ही आ जुटेंगी। श्रीयुत केशवचन्द्र सेन और श्री रामकृष्ण के बीच एक बड़ा अंतर था। श्री रामकृष्ण देव जगत में पाप या अशुभ नहीं देख पाते थे-वे जगत में कुछ भी अशुभ नहीं देख पाते थे, और वे उस अशुभ को दूर करने का लिए चेष्टा करने का भी कोई प्रयोजन नहीं देखते थे। और केशवचन्द्र एक महान धर्मसंस्कारक, नेता एवं भारतवर्षीय ब्राह्म समाज के प्रतिष्ठाता थे। बारह वर्षों के पश्चात इन शांत दक्षिणेश्वरवासी महापुरुषों ने केवल भारत में ही नहीं, वरन समग्र संसार में एक क्रांति कर दी। यह सभी महापुरुष वास्तव में महाशक्ति के आधार हैं-वे जीते हैं, प्रेम करते हैं और फिर अपने व्यक्तित्व को खींच लेते हैं। वह कभी भी, 'मैं, मेरा' नहीं करते। वे अपने को ईश्वर का यंत्रस्वरूप समझकर ही अपने को धन्य मानते हैं। ऐसे व्यक्ति ईसा और बुद्ध आदि के निर्माता हैं। वे सदैव ईश्वर के साथ संपूर्ण भाव से तादात्म्य लाभ करके एक आदर्श जगत में निवास करते हैं। वे कुछ नहीं चाहते और अहंभाव से कुछ भी नहीं करते। वे ही वस्तुत: प्रेरकस्वरूप हैं-वे जीवन्मुक्त एवं बिल्कुल अहंशून्य हैं। उनका शुद्र अहंज्ञान पूर्ण रूप से नष्ट हो गया है, उन्हें महत्वाकांक्षा बिल्कुल नहीं है। उनका व्यक्तित्व पूर्ण रूप से लुप्त हो गया है, वे निराकार तत्वस्वरूप हैं।

27 जून , बृहस्पतिवार

(स्वामी जी आज बाइबिल का नया व्यवस्थान लेकर आए तथा दूसरी बार बाइबिल में जॉन के ग्रंथ की व्याख्यान की।)

मुहम्मद इस बात का दावा करते थे कि वे वही शांतिदाता हैं, जिन्हें भेजने का ईसा मसीह ने वचन दिया था। स्वामी जी के मत से इस बात को स्वीकार करने की कुछ भी आवश्यकता नहीं है कि ईसा मसीह का अलौकिक भाव से जन्म हुआ था। सभी युगों में, सभी देशों में इस प्रकार का दावा देखने में आता है। सभी बड़े लोगों ने दावा किया है कि उनका जन्म देवताओं से हुआ है।

ज्ञान सापेक्षिक मात्र है। हम ईश्वर हो सकते हैं, किंतु उन्हें कभी जा नहीं सकते। ज्ञान निम्नतर अवस्था मात्र है। तुम्हारी बाइबिल में भी है, आदम ने जब ज्ञान लाभ किया उसी समय उनका पतन हो गया। उससे पहले वे स्वयं सत्यस्वरूप, पवित्रतास्वरूप, एवं ईश्वरस्वरूप थे। हमारा मुख्य हमसे कोई भी वस्तु नहीं है, किंतु हम कभी भी असली मुख को देख नहीं पाते, हम केवल उसका प्रतिबिंब ही देख सकते हैं। हम स्वयं प्रेमस्वरूप हैं, किंतु जब हम इस प्रेम के संबंध में सोचने लगते हैं तो देखते हैं कि हमें एक कल्पना का आश्रय ग्रहण करना पड़ता है; इसी से यह प्रमाणित होता है कि हम जिसे जड़ कहते हैं, वह तो चित् की बहिरभिव्यक्ति मात्र है। क्योंकि ज्ञाता अपने प्रतिबिंब को ही जान सकता है, स्वयं को नहीं, वह सदा अज्ञेय है। अतः ज्ञान ज्ञाता से भिन्न और पृथक होता है। हम इस प्रकार वह बाह्यकृत विचार है अथवा हम पृथक वस्तु के रूप में ज्ञाता से बाहर स्थित विचार। चूँकि ज्ञाता आत्मा ने नाम से विख्यात है, जो उससे भिन्न और पृथक है उसे जड़ या भौतिक तत्व कहा जाना चाहिए। 'इसलिए स्वामी जी कहते हैं कि 'जड़ या भौतिक तत्व विख्यात विचार है।'

निवृत्ति का अर्थ है संसार से विमुख हो जाना। हिंदुओं के पुराण में है, प्रथम पृष्ठ चार ऋषियों को हंस रूपी भगवान ने शिक्षा दी थी कि जगत-प्रपंच गौण मात्र है ; इसलिए ऋषियों ने सृष्टि नहीं की। इसका तात्पर्य यह है कि अभिव्यक्ति का अर्थ ही अवस्थित है; क्योंकि आत्मा अभिव्यक्ति शब्द के द्वारा साधित होती है, और 'शब्द भाव को नष्ट कर डालता है।' फिर भी तत्व जड़ावरण से आवृत हुए बिना नहीं रह सकता, यद्यपि हम जानते हैं कि अंत में इस प्रकार के आवरण की ओर ध्यान रखते रखते हम असल को भी खो बैठते हैं। सभी महान आचार्य इस बात को जानते हैं और इसीलिए पैगंबर पुनः पुनः आकर हमें मूल तत्व समझा देते हैं और इसीलिए तत्कालोपयोगी उसका एक और नवीन आवरण दे जाते हैं। मेरे गुरुदेव कहते थे-धर्म एक है, सभी पैगंबरों की शिक्षा वही होती है, किंतु उस तत्व को प्रकाशित करने के लिए सभी को उसे कोई न कोई आकार देना पड़ा। इसलिए उन्होंने उसके पुरातन आकार को त्यागकर उसे नए आकार में हमारे सामने रखा है। जब हम नाम-रूप से, विशेषत: देह से मुक्त होते हैं, जब हमारे लिए भली-बुरी किसी भी देह का प्रयोजन नहीं रहता, तभी हम बंधनमुक्त हो सकते हैं। अनंत उन्नति का अर्थ है, अनंत काल से लिए बंधन; उसकी अपेक्षा सभी प्रकार के आकार का ध्वंस ही वांछनीय है। हमें सभी प्रकार की देह से, देवता-देह से भी मुक्त होना है। ईश्वर ही एकमात्र यथार्थ सत्य वस्तु है, दो सत्य पदार्थ एक साथ कभी नहीं रह सकते। एकमात्र आत्मा ही है और मैं ही वह हूँ। शुभ कर्म का मूल्य केवल इतना ही है कि वह मुक्ति लाभ का सहायक है। उसके द्वारा कर्ता का ही कल्याण होता है, दूसरे का नहीं।

ज्ञान का अर्थ है वर्गीकरण। हम एक ही जाति के अनेक पदार्थों को देखते हैं तो उन सबको कोई एक नाम दे देते हैं। इससे हमारा मन शांत हो गया। हम केवल तथ्यों का ही अविष्कार करते हैं, 'क्यों' का नहीं। हम अंधकार के ही कुछ विस्तृत क्षेत्र में अधिक घूम-फिरकर यह सोचने लगते हैं कि हमने सचमुच कुछ ज्ञान लाभ कर लिया है। इस जगत में 'क्यों' का कुछ भी उत्तर नहीं हो सकता। 'क्यों' का उत्तर पाने के लिए हमें ईश्वर के समीप जाना होगा। जो सभी के ज्ञाता हैं, उन्हें कभी भी प्रकाशित नहीं किया जा सकता। यह ऐसा ही है, जैसे नमक का कण सागर में प्रवेश करते ही गलकर उसमें मिल जाता है।

वैषम्य ही सृष्टि का मूल है-एकरसता या साम्य ही ईश्वर है। इस वैषम्य भाव के परे चले जाओ; ऐसा करने पर ही जीवन और मृत्यु दोनों को जीत लोगे एवं अनंत समत्व में पहुंच जाओगे। तभी तुम ब्रह्म में प्रतिष्ठित होगे, स्वयं ब्रह्मस्वरूप हो जाओगे। मुक्ति प्राप्त करने की चेष्टा करो, उसमें प्राण जाएँ, वह भी स्वीकार करो। एक पुस्तक के साथ उसके पृष्ठों का जो संबंध हैं, वही हमारा साथ हमारे जन्मों का भी है, किंतु हम अपरिणामी, साक्षिस्वरूप और आत्मस्वरूप हैं; और इसी आत्मा के ऊपर जन्म-जन्मांतर की छाया पड़ती है, जैसे एक मशाल को खूब जोर-जोर से घुमाओ तो नेत्र के सामने वृत्ताकार प्रतीत होने लगता है। आत्मा में ही समस्त व्यक्तित्व का एकत्व है; और चूंकि आत्मा अनंत, अपरिणामी और अंचचल है, अतः आत्मा ब्रह्मस्वरूप है। आत्मा को जीवन नहीं कहा जा सकता किंतु उससे समुदाय जीवन गठित होता है; उसे सुख नहीं कहा जा सकता, किंतु उससे सुख की उत्पत्ति होती है।

आजकल संसार ईश्वर को छोड़ रहा है, क्योंकि वह संसार के लिए पर्याप्त कुछ कर नहीं रहा है। अतः वे कहते हैं-"उससे हमें क्या लाभ है?" क्या हमें ईश्वर का 'चिंतन' केवल एक नगरपालिका के अधिकारी के रूप में करना होगा ? हम इतना तो कर सकते हैं कि हम अपनी सभी वासना, ईर्ष्या, घृणा और भेद बुद्धि दूर कर दें, 'क्षुद्र अहं' को नष्ट कर डालें, एक प्रकार की मानसिक आत्महत्या जैसी कर डालें। शरीर और मन को पवित्र और स्वस्थ रखो-किंतु केवल ईश्वर लाभ करने के यंत्ररूप में, इतना ही उनका एकमात्र यथार्थ प्रयोजन है। केवल सत्य के लिए सत्य का अनुसंधान करो; इस बात को मत सोचो कि उसके द्वारा आनंद लाभ होगा। आनंद स्वयं आ सकता है, किंतु इसलिए उसे अपने लाभ का प्रेरक मत बनाओ। ईश्वर लाभ को छोड़कर और किसी प्रकार का उद्देश्य मत रखो। सत्य लाभ करने के लिए यदि नरक होकर जाना पड़े तो भी पीछे मत हटो।

28 जून शुक्रवार

(आज हम सब लोग स्वामी जी के साथ एक स्थान में वनगोष्टी के लिए गऐ। जहाँ कहीं स्वामी जी रहते थे, वहीं उनका लगातार उपदेश चलता था और उनके नोट्स लिए जाते थे, किंतु आज हुए उपदेश नहीं लिए गए और इस कारण उनका कोई आलेख उपलब्ध नहीं हैं।)

परंतु बाहर निकलने के पहले सबेरे जलपान के समय उन्होंने यह कहा: सभी प्रकार के अन्न के लिए भगवान के प्रति कृतज्ञ होओ-अन्य ब्रह्मस्वरूप है। उनकी सर्वव्यापिनी शक्ति ही हमारी व्यष्ठि-शक्ति में परिणत होकर हमारे सभी प्रकार के कार्य करने में सहायक होती है।

28 जून , शनिवार

(आज स्वामी जी गीता हाथ में लेकर उपस्थित हुए।)

गीता में हृषीकेश अर्थात जीवात्माओं ईश्वर, गुड़ाकेश अर्थात निद्रा के अधीश्वर अथवा निद्राजयी अर्जुन को उपदेश दे रहे हैं। यह जगत ही 'धर्मक्षेत्र' कुरुक्षेत्र है। पंच पांडव (अर्थात धर्म) शत कौरवों के साथ (हम जिन सभी विषयों में आसक्त रहते हैं और जिसके साथ हमारा सतत विरोध चलता रहता है ) युद्ध कर रहे हैं। पांच पांडवों के मध्य सर्वश्रेष्ठ वीर अर्जुन (अर्थात प्रबुद्ध जीवात्मा) सेनापति है। हमें समस्त इंद्रिय-सुखों के साथ-जिन सभी वस्तुओं में हम अत्यंत आसक्त हैं उनके साथ--युद्ध करना होगा, उन्हें मार डालना होगा। हमें नि:संग होकर खड़े होना होगा। हम ब्रह्मस्वरूप है, इस भाव में हमें अन्य सब भावों को तिरोहित कर देना होगा।

श्री कृष्ण सब प्रकार के कर्म करते थे, किंतु सभी प्रकार की आसक्ति से रहित होकर। वे संसार में थे अवश्य, किंतु कभी संसारी नहीं थे। सभी कर्म करो, किंतु अनासक्त होकर करो; कर्म के लिए ही कर्म करो; अपने लिए कभी मत करो।

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कोई भी नाम-रूपात्मक पदार्थ कभी भी मुक्तस्वभाव नहीं हो सकता। हम (पात्र) इस नाम-रूप की मिट्टी से ही बने हैं; फिर नाम-रूप सीमित है और मुक्त नहीं है, अतः जो सापेक्ष है, उसे मुक्त नहीं कहा जा सकता। घट जब तक घट है, तब तक अपने को कभी भी मुक्त नहीं कर सकता; जब वह नाम-रूप से अतीत हो जाता है, तभी मुक्त हो जाता है। समग्र जगत ही आत्मस्वरूप है-यही आत्मा विभिन्न रूपों में अभिव्यक्त है, जैसे एक सुर से अनेक प्रकार के सुरों की अभिव्यक्ति। यदि ऐसा ना हो तो सभी एक ही प्रकार के हो जाएँ, सभी एक दूसरे हो जाएँ। समय समय पर बेसुक है अवश्य,परन्तु बाद में परवर्ती सुरों का ऐक्य तो और भी मधुर लगता है। महान विश्व-संगीत में तीन भावों का विशेष प्रकार दिखाई देता है-साम्य, बल और स्वाधीनता।

यदि तुम्हारी स्वाधीनता के कारण दूसरे की कुछ क्षति होती है, तो तुम्हें समझना होगा कि वह वास्तविक स्वाधीनता नहीं है। दूसरे की किसी प्रकार की क्षति कभी मत करो।

मिल्टन कहते हैं-'दुर्बल होना ही क्लेश भोगना है।' कर्म और फलभोग--इन दोनों का अविच्छिन्न संबंध है। (अधिकतर देखा जाता है कि जो अधिक हँसता है, उसको उतना रोना होता है-जितनी हँसी उतना रोना।) कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन-'कर्म में ही तुम्हारा अधिकार है, फल में नहीं।'

* * *

स्थूल दृष्टि से देखने पर कुविचारों को रोगबीजाणु कहा जा सकता है। हमारा शरीर मानो एक लोहपिंड है और हमारा प्रत्येक विचार मानो धीरे-धीरे उसके ऊपर हथौड़ी की चोट मारता है-उसके द्वारा हम अपने शरीर का गढ़न इच्छानुसार करते हैं। हम जगत के संपूर्ण शुभ विचारों के उत्तराधिकारीस्वरूप हैं-यदि हम अपने को उसके प्रति मुक्त कर दें।

शास्त्र तो वह हमारे ही भीतर हैं। 'मूर्ख, क्या तू सुन नहीं रहा है, तेरे ह्रदय के भीतर दिन-रात वही अनंत संगीत ध्वनित हो रहा है-सच्चिदाननन्द: सच्चिदाननन्द:, सोऽहं सोऽहं?'

हम से प्रत्येक के भीतर-क्या क्षुद्र पिपीलिका और क्या स्वर्ग के देवता--सभी के भीतर अनंत ज्ञान का स्रोत विद्यमान है। यथार्थ धर्म एक है; हम उसे विभिन्न रूपों, विभिन्न प्रतीकों और उसके विभिन्न दृष्टांतों को लेकर व्यर्थ में झगड़ा करके मारते रहते हैं। जो यह जानता है कि किस प्रकार खोजना चाहिए, उसके लिए सत्य युग तो सदा ही विद्यमान रहता है। हम स्वयं नष्ट हो गए हैं, इसलिए जगत को नष्ट समझते हैं।

इस जगत में पूर्ण शक्ति का कोई कार्य नहीं रहता; उसे केवल 'अस्ति' या 'सत' मात्र कहा जाता है, उसका कोई कार्य नहीं रहता।

यथार्थ सिद्धिलाभ तो एक ही प्रकार का है, किंतु सापेक्षिक सिद्धि अनेक प्रकार की हो सकती है।

३० जून , रविवार

किसी एक कल्पना का आश्रय लिए बिना विचार करने की चेष्टा असंभव को संभव करने की चेष्टा है। स्तनपायी किसी जीवविशेष का उदाहरण लिए बिना स्तनपायी जीव की किसी प्रकार की धारणा हम नहीं कर सकते। ईश्वर की धारणा के संबंध में भी यही बात है।

जगत में जितने प्रकार के भाव या धारणाएँ हैं, उनका जो सूक्ष्म सारनिष्कर्ष है, उसी को हम ईश्वर कहते हैं।

प्रत्येक विचार के दो भाग -एक है विचारणा और दूसरा है उसी भाव का द्योतक 'शब्द'-और वे दोनों ही आवश्यक है। क्या प्रत्ययवादी (idealist), क्या जड़वादी (materialist) किसी का भी मत शुद्ध सत्य नहीं है। हमें भाव और उसकी अभिव्यक्ति दोनों ही लेने होंगे।

हम दर्पण में अपना मुख देख पाते हैं-समुदाय ज्ञान भी उसी प्रकार का है-बाहर जो प्रतिबिंबित है, उसका ज्ञान होता है। कोई भी अपनी आस्था या ईश्वर को नहीं जान सकता, किंतु हम स्वयं ही वह आत्मा हैं, हमीं ईश्वर हैं।

निर्वाण की अवस्था में तुम तभी होते हो, जब 'तुम' नहीं होते: बुद्धदेव ने कहा है-'जब तुम नहीं जाते, तभी तुम सर्वोत्तम और सत्य होते हो'-जब तुच्छ अहं नष्ट हो जाता है।

अधिकांश लोगों में वही अभ्यांतरीण ईश्वरीय ज्योति आवृत एवं अस्पष्ट होकर रहती है, जैसे एक लोहे के पीपे के भीतर प्रदीप रखा रहता है, पर उस प्रदीप की थोड़ी सी भी ज्योति बाहर नहीं आ पाती। पवित्रता एवं नि:स्वार्थता का थोड़ा-थोड़ा अभ्यास करते-करते हम इस आच्छादक माध्यम को कम घना कर सकते हैं। अंत में वह काँच के समान पारदर्शी हो जाता है। श्री रामकृष्ण में मानो यह लोहे का पीपा काँच के रूप में परिणत हो गया है। उसके भीतर से वह आभ्यंतरीण ज्योति यथास्वरूप दिखाई देती है। हम सभी कभी ना कभी ऐसे ही काँच के पीपे हो जाएँगे-इतना ही नहीं, उसकी भी अपेक्षा उच्च प्रतिबिंबों के आधारस्वरूप होंगे। किंतु जब तक कोई 'पीपा' रहता है, तब तक उसे जड़ उपायों की सहायता से ही चिंतन करना पड़ता है। धैर्यहीन व्यक्ति कभी भी सिद्ध नहीं हो सकता।

महान संत पुरुष सिद्धांत (principles) के दृष्टांत स्वरूप हैं; किंतु शिष्य तो महात्माओं को ही सिद्धांत बना लेते हैं और उस व्यक्ति विशेष को ही सब कुछ समझकर सिद्धांत को भूल जाते हैं।

सगुण ईश्वर के विरुद्ध बुद्ध के लगातार तर्क करने के फलस्वरूप भारत में प्रतिमा-पूजा का सूत्रपात हुआ ! वैदिक युग में प्रतिमा का अस्तित्व नहीं था, उस समय लोगों की यही धारणा थी कि ईश्वर सर्वत्र विराजमान है। किंतु बुद्ध के प्रचार के कारण हम जगत्स्त्रष्टा एवं उसने सखास्वरूप ईश्वर को खो बैठे और उसकी प्रतिक्रियास्वरुप प्रतिमा-पूजा की उत्पत्ति हुई। लोगों ने बुद्ध की मूर्ति गढ़कर पूजा करना आरंभ किया। ईसा मसीह के संबंध में भी वैसा ही हुआ है। काठ-पत्थर की पूजा से लेकर ईसा और बुद्ध की पूजा तक सभी प्रतिमा पूजा है; किसी ना किसी प्रकार की मूर्ति के बिना हमारा काम चल ही नहीं सकता।

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सुधार की उग्र चेष्टा का फल यही होता है कि उससे सुधार की गति रुक- रुक जाती है। किसी से ऐसा मत कहो कि 'तुम बुरे हो', वरन उससे यह कहो-'तुम अच्छे हो, और भी अच्छे बनो।'

सभी देशों में पुरोहित अनिष्ट करते हैं, क्योंकि वे लोगों को गाली देते हैं और उनकी आलोचना करते हैं। वे डोरी को ठीक करने के लिए उसे खींचते हैं, किंतु उससे दूसरी दो या तीन डोरियाँ स्थान भ्रष्ट हो जाती हैं। प्रेम कभी निंदा नहीं करता, ऐसा तो महत्वाकांक्षा ही करती है। न्यायसंगत क्रोध या वैध हिंसा नाम की कोई वस्तु नहीं है।

यदि तुम किसी को सिंह नहीं होने दोगे, तो वह लोमड़ी हो जाएगा। स्त्री एक शक्ति है, किंतु अब इस शक्ति का प्रयोग केवल बुरे विषयों में ही हो रहा हैं। इसका कारण यह है कि पुरुष स्त्रियों के ऊपर अत्याचार कर रहे हैं। आज स्त्रियाँ लोमड़ी के समान हैं, किंतु जब उसके ऊपर और अधिक अत्याचार नहीं होगा, तब वे सिंहिनी होकर खड़ी होंगी।

साधारणतः धर्मभाव को बुद्धि द्वारा नियमित करना उचित है। नहीं तो इस भाव की अवनति हो जाती है और वह भावुकता मात्र में परिणत हो जाता है।

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सभी ईश्वरवादी यह स्वीकार करते हैं कि इस परिणामी जगत के पीछे एक अपरिणामी वस्तु है, यद्यपि उस चरम वस्तु की धारणा के संबंध में उसमें आपस में मतभेद है। बुद्ध इसे संपूर्णत: अस्वीकार करते थे। उन्होंने कहा-"ब्रह्म या आत्मा नाम की कोई वस्तु नहीं है।"

चरित्र की दृष्टि से बुद्ध संसार से सबसे अधिक महान हुए हैं। उनके बाद हैं-ईसा। किंतु गीता में श्री कृष्ण जो कह गए हैं, उसके समान महान उपदेश जगत में और कहीं नहीं है। जिन्होंने उस अद्भुत काव्य की रचना की थी, वे उन सब विरले महात्माओं में से एक थे, जिसके जीवन द्वारा समग्र जगत में नव जीवन की एक लहर दौड़ जाती है। जिन्होंने गीता लिखी है, उसके सदृश्य आश्चर्यजनक मस्तिष्क मनुष्य जाति और कभी नहीं देख पाएगी।

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जगत में एकमात्र शक्ति ही विद्यमान है-वही कभी अशुभ, कभी शुभ भाव में अभिव्यक्त होती है। ईश्वर और शैतान एक सी नदी हैं-जिनकी धाराएँ विपरीत दिशाओं में बहती हैं।

१ जुलाई , सोमवार

श्री रामकृष्ण देव

श्री रामकृष्ण देव एक अत्यंत निष्ठावान ब्राह्मण के पुत्र थे। उनके पिता ब्राह्मणों की एक जाति विशेष को छोड़कर अन्य किसी का दान नहीं ग्रहण करते थे। जीविकोपार्जन के लिए सर्वसाधारण व्यक्ति के समान वे कोई काम भी नहीं कर सकते थे, पुस्तकें बेचना या किसी के यहाँ नौकरी करना तो दूर की बात है, किसी देवमंदिर में पौरोहित्य करना भी उनके लिए संभव नहीं था। उनकी वृत्ति आकाशी वृत्ति थी; जो अयाचित् भाव से उपस्थित होता था, उसी से उसके भोजन-वस्त्र का निर्वाह होता था; किंतु वह भी वे किसी पतित ब्राह्मण के पास से नहीं लेते थे। हिंदू धर्म में देवमंदिरों का ऐसा कोई प्राधान्य नहीं है। चाहे सभी मंदिर नष्ट हो जाएं, फिर भी धर्म की बिंदु मात्र भी क्षति नहीं होगी। हिंदुओं के मत में अपने लिए घर बनवाना स्वार्थपरायणता का कार्य है; केवल देवता और अतिथि के लिए ही घर बनवाया जा सकता है। इसीलिए लोग भगवान के निवासस्वरूप मंदिर आदि का निर्माण करवाते हैं।

अपनी पारिवारिक स्थिति अत्यंत विपन्न होने के कारण श्री रामकृष्ण बहुत थोड़ी अवस्था में एक मंदिर में पुजारी होने के लिए बाध्य हुए। मंदिर में जगज्जननी की मूर्ति प्रतिष्ठित थी-उन्हें प्रकृति या काली भी कहा जाता है। एक स्त्रीमूर्ति एक पुरुषमूर्ति पर खड़ी हैं-इसका अर्थ यह है कि मायावरण को हटाए बिना हम ज्ञान लाभ नहीं कर सकते। ब्रह्म निर्लिंग है-वह अज्ञात और अज्ञेय है। वह जब अपने को अभिव्यक्त करता है, तब अपने को माया के आवरण से आवृत्त कर जगज्जननी का स्वरूप धारण करता और सृष्टि-प्रपंच का विस्तार करता है। धराशायी पुरुष (शिव का ब्रह्म) मायावृत्त होने के कारण शव हो गया है। ज्ञानी कहता है-'मैं बलपूर्वक माया को हटाकर ब्रह्म को प्रकाशित करूँगा' (अद्धैतवाद), किंतु द्वैतवादी या भक्त कहता है-उस जगज्जननी से प्रार्थना करने पर वे द्वार छोड़ देंगी, तभी ब्रह्म प्रकाशित होगा-उन्हीं के हाथ में चाभी है।'

प्रतिदिन माँ काली की सेवा तथा पूजा-अर्चना करते करते इन तरुण पुरोहित के ह्रदय में क्रमश: ऐसी तीव्र व्याकुलता तथा भक्ति का उद्रेक हुआ कि वे फिर नियमित रूप से मंदिर में पूजा आदि कार्य करने में असमर्थ हो गए। इसलिए वे उसे छोड़कर मंदिर के अहाते के भीतर ही एक छोटे से जंगल में जाकर दिन-रात ध्यान-धारणा करने लगे। वह जंगल ठीक गंगा जी के किनारे था; एक दिन गंगा जी की प्रबल धारा में ठीक एक कुटी के निर्माणोपयोगी सामग्री उसके पास बहकर आ गयी। उसी कुटीर में रहकर वे सर्वदा प्रार्थना करने और रोने लगे-जगन्माता को छोड़कर और किसी भी विषय की चिंता उन्हें नहीं रही; इतना ही नहीं, अपने शरीर की भी चिंता उन्हें नहीं रही। इस समय उनका एक आत्मीय प्रतिदिन मध्याह्न में एक बार उनको भोजन करा जाता था और उनकी देख-रेख करता था। कुछ दिनों के बाद एक संन्यासिनी आकर उन्हें उनकी 'माँ' से मिलाने के लिए सहायता करने लगीं। उन्हें जिस प्रकार के गुरु की आवश्यकता होती थी, वह स्वयं उसके पास आकर उपस्थित हो जाते थे। सभी संप्रदाय के कोई न कोई साधु आकर उन्हें उपदेश देते थे और वे ध्यानपूर्वक सभी का उद्देश्य सुनते थे। परंतु वे केवल उन जगन्माता की ही उपासना करते थे-वे सभी में जगन्माता को ही देखते थे।

श्री रामकृष्ण ने कभी किसी से विरुद्ध कोई कड़ी बात नहीं कही। उनका ह्रदय इतना उदार था कि उनके बारे में कभी संप्रदाय सोचते थे कि वे उन्हीं के हैं। वह सभी से प्रेम करते थे। उनकी दृष्टि में सभी धर्म सत्य थे-वे कहते थे, धर्मजगत में सभी धर्मों का स्थान है। वह मुक्तस्वभाव थे, किंतु सर्वसाधारण के प्रति समान प्रेम में ही उनके मुक्तस्वभाव का परिचय पाया जाता था, वज्त्रवत कठोरता में नहीं। इस प्रकार के कोमलह्रदय व्यक्ति ही नूतन भाव की सृष्टि करते हैं। और कर्मप्रवण लोग इस भाव को चारों ओर फैला देते हैं। संत पॉल इस दूसरी कोटि के थे। इसलिए उन्होंने सत्य का आलोक चारों ओर फैलाया था।

किंतु अब संत पॉल का युग नहीं है। हमको ही आधुनिक जगत का नूतन आलोकस्वरूप होना होगा। हमारे युग की विशेष आवश्यकता है एक ऐसे संघ का निर्माण जो स्वयं अपना समायोजन कर ले। जब ऐसा होगा, तब वही जगत का अंतिम धर्म होगा। संसार-चक्र चलेगा ही-हमें उसकी सहायता करनी होगी, बाधा देने के काम नहीं चलेगा। धार्मिक विचार-धाराओं की तरंग उठती है, गिरती है और उन सभी तरंगों के शीर्ष-प्रदेश में उसी युग के पैगंबर विराजते हैं: श्री रामकृष्ण वर्तमान युग के उपयुक्त धर्म की शिक्षा देने आए थे, जो विधायक हैं, न कि विध्वंसक। उन्हें अभिनव ढंग से प्रकृति के समीप जाकर सत्य जानने की चेष्टा करनी पड़ी थी, फलस्वरूप उन्होंने वैज्ञानिक धर्म को प्राप्त कर लिया था। वह धर्म किसी को कुछ मान लेने को नहीं कहता है, स्वयं परख लेने को कहता है। 'मैं सत्य का दर्शन करता हूँ, तुम भी इच्छा करने पर उनका दर्शन कर सकते हो।' मैंने जिस साधन का अवलंबन किया है, तुम भी उसी का अवलंबन करो, वैसा करने पर तुम भी हमारे सदृश सत्य का दर्शन करोगे। ईश्वर सभी के समीप आएंगे-इस समत्व भाव को सभी प्राप्त कर सकेंगे। श्री रामकृष्ण जो कुछ उपदेश दिए गए हैं, वह सब हिंदू धर्म का सारस्वरूप है, उन्होंने अपनी ओर से कोई नई बात नहीं कही। और वे उन सब बातों को अपनी बतलाने का भी कभी दावा नहीं करते थे; वे नाम-यश के लिए किंचित् मात्र भी आकांक्षा नहीं रखते थे।

उनकी अवस्था जब लगभग चालीस वर्ष की थी, तब उन्होंने उपदेश करना प्रारंभ किया। किंतु इस प्रचार के लिए कभी भी नहीं बाहर नहीं गए। जो उनके पास आकर उपदेश ग्रहण करने की इच्छा करते थे, उन्हीं की प्रतीक्षा करते थे। हिंदू समाज की प्रथा के अनुसार उनके माता-पिता ने उनके यौवनकाल के आरंभ में पाँच वर्ष की एक छोटी लड़की के साथ उनका विवाह कर दिया था। विवाह के उपरांत यह बालिका बहुत दूर के एक ग्राम में अपने परिवारवालों के साथ रहती रही वह यह नहीं जानती थी कि उसके तरुण पति कितने कठोर संघर्षों में व्यस्त हैं। जब वह सयानी हुई, उस समय उसका पति भगवत्प्रेम में तन्मय हो चुका था। वह पैदल ही अपने गाँव से दक्षिणेश्वर काली मंदिर में पति के समीप उपस्थित हुई। वह अपने पति को देखते ही उनकी वास्तविक अवस्था को समझ गयी; क्योंकि वह स्वयं अत्यंत विशुद्ध एवं उन्नत स्वभाव की थी। वह केवल अपने पति के कार्य में सहायता करने की ही इच्छुक थी; उसे कभी भी ऐसी इच्छा नहीं हुई कि वह अपने पति को गृहस्थ जीवन की ओर खींच लावे। श्री रामकृष्णा की पूजा भारत में एक महान अवतार के रूप में होती है। उनका जन्म-दिन वहाँ पर एक धर्मोत्सव-रूप में मनाया जाता है।

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एक विशिष्ट लक्षणयुक्त गोलाकार शीला विष्णु अर्थात सर्वव्यापी भगवान के प्रतीक-रूप में व्यवहृत होती है। प्रातःकाल पुरोहित आकर उस शालिग्राम शिला की पुष्पचंदन, नैवेद्य आदि के द्वारा पूजा करते हैं, धूप-कर्पूरादि के द्वारा आरती करते हैं, उसके बाद उन्हें सुलाकर उस प्रकार की पूजा के लिए उनके समीप क्षमा-प्रार्थना करते हैं। ईश्वर के स्वरूपत: रूपविवर्जित होने पर भी वे इस प्रकार के प्रतीक या जड़ वस्तु की सहायता के बिना उनकी उपासना नहीं कर पाते--इस दोष या दूर दुर्बलता के लिए वे उनके निकट क्षमा प्रार्थना करते हैं। वे शिला को स्नान कराते हैं, कपड़ा पहनाते हैं, और अपनी चैतन्य-शक्ति के द्वारा उनकी प्राण-प्रतिष्ठा करते हैं।

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एक संप्रदाय है, जो कहता है-भगवान की केवल शिव और सुंदर रूप में पूजा करना दुर्बलता मात्र है, हमें अशिव और वीभत्स रूप से भी प्रेम करना होगा और उसकी पूजा करनी होगी। यह संप्रदाय तिब्बत देश में सर्वत्र विद्यमान है और उसके भीतर विवाह-प्रथा नहीं है। भारत में यह संप्रदाय प्रकट रूप में रह नहीं सकता, इसलिए वे गुप्त रूप में वहाँ अपने समाज का संगठन करते हैं। कोई भी सत्पुरुष गुप्त रूप के अतिरिक्त इस संप्रदायों में योग नहीं दे सकता। तिब्बत देश में तीन बार साम्यवाद को कार्य में परिणत करने की चेष्टा की गयी है, किंतु प्रत्येक बार वह चेष्टा विफल हो गयी। वे खूब तपस्या करते हैं और शक्ति (विभूति) लाभ की दृष्टि से उसमें खूब सफलता भी प्राप्त करते हैं।

'तपस' शब्द का धात्वर्थ है, ताप देना या उत्तत करना। यह हमारी उच्च प्रकृति को 'तप्त' या उत्तेजित करने की साधना या प्रक्रिया विशेष है, उदाहरणार्थ, सूर्योदय से लेकर सूर्यस्त पर्यत ओंकार का लगातार जप करना। इन सभी क्रियाओं के द्वारा एक ऐसी शक्ति उत्पन्न होती है, जिसे अपनी इच्छानुसार आध्यात्मिक या भौतिक, किसी भी रूप में परिणत किया जा सकता है। इस तपस्या का भाव समग्र हिंदू धर्म में ओतप्रोत है। इतना ही नहीं, हिंदू लोग कहते हैं कि ईश्वर को भी जगत की सृष्टि करने के लिए तपस्या करनी पड़ी थी। यह मानो मानसिक यंत्र विशेष है-इसके द्वारा सब कुछ किया जा सकता है। शास्त्र में कहा है-'त्रिभुवन में ऐसा कुछ भी नहीं है, जो तपस्या के द्वारा पाया नहीं जा सकता।'

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जो लोग ऐसे संप्रदायों के मतामत या कार्य-कलाप का दोष-दृष्टि से वर्णन करते हैं, जिनके साथ उनकी सहानुभूति नहीं है, वे जान या अनजान में मिथ्यावादी होते हैं। जो संप्रदाय-विशेष में दृढ़ विश्वासी हैं, वे प्राय: यह देख नहीं पाते कि दूसरे संप्रदाय में भी सत्य है।

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भक्तश्रेष्ठ हनुमान से एक बार पूछा गया था-"आज महीने की कौन सी तिथि है?" उन्होंने उत्तर दिया, "राम ही मेरे संवत, तिथि आदि सब कुछ हैं। मैं और कोई तिथि आदि कुछ नहीं जानता।"

2 जुलाई , मंगलवार

जगज्जननी

शाक्त जगत की उस सर्वव्यापिनी शक्ति को 'माँ' कहकर उसकी पूजा करते हैं-क्योंकि 'माँ' नाम की अपेक्षा अधिक मधुर और दूसरा नाम नहीं है। भारत में माता ही स्त्री-चरित्र का चरम आदर्श है। भगवान की मातृरूप में तथा प्रेम के उच्चतम विकास रूप में पूजा करने को हिंदू लोग दक्षिणाचार्य या दक्षिण-मार्ग कहते हैं; उपासना से हमारी आध्यात्मिक उन्नति होती है, मुक्ति होती है-इसके द्वारा कभी भी ऐहिक उन्नति नहीं होती। उसके भीषण रूप की अर्थात रुद्रमूर्त्ति की उपासना को वामाचार या वाम-मार्ग कहते हैं। साधारणत: इसमें संसारिक उन्नति खूब होती है, किंतु आध्यात्मिक उन्नति विशेष रूप से नहीं होती। काल-क्रम से अवनति होती है और जो जाति उसका साधन करती है, उसका बिल्कुल ध्वंस हो जाता है।

बताया गया है। 'माँ' नाम लेने से ही शक्ति का भाव, सर्वशक्तिमान और दैवी शक्ति का भाव आ जाता है, जैसे शिशु अपनी माँ को सर्वशक्तिमती समझता है अर्थात माँ सब कुछ कर सकती है। वह जगज्जननी भगवती ही हमारी अभ्यंतरिक द्रिता कुंडलिनी हैं-उनकी उपासना किए बिना हम कभी भी अपने को पहचान नहीं सकते। सर्वशक्तिमत्ता, सर्वव्यापिता और अनंत दया उन्हीं जगज्जननी भगवती के गुण हैं। जगत में जितनी शक्ति है, उसकी समष्टिस्वरूपिणी वही हैं। जगत में समस्त शक्ति की वह पूर्ण योग हैं। जगत में शक्ति की सभी अभिव्यक्तियाँ 'माँ' ही हैं। वही प्राणरूपिणी हैं, वही बुद्धिरूपिणी हैं, वही है प्रेमरूपिणी। वे समग्र जगत के भीतर विराजमान है, फिर भी वे जगत से संपूर्ण पृथक हैं। वे एक व्यक्ति रूप हैं-उनको जाना जा सकता है, देखा जा सकता है (जैसे श्री रामकृष्ण ने उनको जाना और देखा था)। उन जगन्माता के भाव में प्रतिष्ठित होकर हम जो चाहे कर सकते हैं। वे तुरंत ही हमारी प्रार्थनाओं का उत्तर देती हैं।

वे जब चाहें, किसी भी रूप में हमें दर्शन दे सकती हैं। उन जगज्जननी के नाम-रूप दोनों रह सकते हैं। अथवा रूपों के न रहने पर केवल नाम रह सकता है। उनकी इन सभी विभिन्न भावों में उपासना करते करते हम एक ऐसी अवस्था में पहुंचते हैं, जहाँ पर नाम-रूप कुछ भी नहीं रहता, केवल शुद्ध सत्ता मात्र रह जाती है।

जैसे किसी शरीर विशेष के समुदय कोषों से (cell) मिलकर एक मनुष्य बनता है, उसी प्रकार प्रत्येक जीव आत्मा मानो एक एक कोषस्वरूप है, एवं उन सबकी समष्टि ईश्वर है-और वह अनंत पूर्ण तत्व (ब्रह्मा) उससे भी अतीत है। समुद्र जब स्थिर रहता है, तब उसे कहा जाता है 'ब्रह्म', और उसी समुद्र में जब तरंग उठती है, तब उसी को हम 'शक्ति' यां 'माँ' कहते हैं। वह शक्ति या महामाया ही देश-काल निमित्त-स्वरूप है। वह ब्रह्म ही माँ है। उसके दो रूप हैं-एक सविशेष या सगुण, और दूसरा निर्विशेष या निर्गुण। प्रथम रूप में वह ईश्वर, जीव और जगत है, द्वितीय रूप में वह अज्ञात और अज्ञेय है। उस निरुपाधिक सत्ता से ही ईश्वर, जीव और जगत यह भाव आता है। समस्त सत्ता-जो कुछ हम जान सकते हैं, सभी यह त्रिकोणात्मक हैं; यही विशिष्टाद्वैत भाव है।

उन्हीं जगदंबा का एक कण, एक बिंदु है कृष्ण, और एक कण बुद्ध, और एक कण ईसा। हमारी पार्थिव व जननी में अन जगन्माता का जो एक कण प्रकाशित रहता है, उसी की उपासना से महानता का लाभ होता है। यदि परम ज्ञान और आनंद चाहते हो, तो जगज्जननी की उपासना करो।

3 जुलाई , बुधवार

सामान्यतया कह सकते हैं, भय से ही मनुष्य के धर्म का प्रारंभ होता है। 'ईश्वर-भीति ही ज्ञान का आरंभ है।' किंतु बाद में उससे यह उच्चतर भाव आता है कि 'पूर्ण प्रेम के उदय होने पर भय दूर हो जाता है।' जब तक हम ज्ञान लाभ नहीं करते, जब तक ईश्वर क्या है, यह हम नहीं जान पाते, तब तक कुछ न कुछ भय रहेगा ही। ईसा मनुष्य थे, इसलिए वे जगत में अपवित्रता देख पाते थे-और उसकी खूब भर्त्सना भी कर गए हैं। किंतु ईश्वर अनंत गुने श्रेष्ठ हैं, वे जगत में कुछ भी अन्याय नहीं देख पाते, इसलिए उन्हें क्रोध करने का भी कोई कारण नहीं है। निंदावाद कभी भी सर्वोच्च नहीं हो सकता। डेविड का हाथ रक्त से पंकिल था, इसलिए वह मंदिर नहीं बनवा सका।

हमारे ह्रदय में प्रेम, धर्म और पवित्रता का भाव जितना बढ़ता जाता है, उतना ही हम बाहर प्रेम, धर्म और पवित्रता देख सकते हैं। हम दूसरों के कार्यों की जो निंदा करते हैं, वह वास्तव में हमारी अपनी ही निंदा है। तुम अपने क्षुद्र ब्रह्मांड को ठीक करो, जो तुम्हारे हाथ में है, वैसा होने पर वृहद ब्रह्मांड भी तुम्हारे लिए आप ही आप ठीक हो जाएगा। यह मानो जलस्थिति विज्ञान (Hydrostatics) की समस्या के समान है-एक बिंदु जल की शक्ति से समग्र जगत को साम्यावस्था में रखा जा सकता है। हमारे भीतर जो नहीं है, बाहर भी हम उसे नहीं देख सकते। वृहद इंजन के सामने अत्यंत छोटा इंजन जैसा है, समग्र जगत की तुलना में हम भी वैसे ही हैं। छोटे इंजन के भीतर कुछ गड़बड़ी देखकर, बड़े इंजन के भीतर भी कोई गड़बड़ी है, ऐसी हम कल्पना करते हैं।

जगत में जो कुछ यथार्थ उन्नति हुई है, वह प्रेम की शक्ति से ही हुई है। दोष बता बताकर कभी भी अच्छा काम नहीं किया जा सकता। हजार हजार वर्ष परीक्षा करके यह बात देखी जा चुकी है। निंदावाद से कुछ भी फल नहीं होता।

यथार्थ वेदांती को सभी के साथ सहानुभूति करनी होगी, क्योंकि अद्वैतवाद या संपूर्ण एकत्व भाव ही वेदांत का सार मर्म है। द्वैतवादी साधारणत: कट्टर होते हैं-वे सोचते हैं, उन्हीं का मार्ग एकमात्र मार्ग है। भारत में वैष्णव संप्रदाय द्वैतवादी हैं और वे लोग अत्यंत कट्टर हैं। शैव भी एक अन्य द्वैतवादी संप्रदाय है, उनमें घंटाकर्ण नामक एक भक्त की कथा प्रचलित है। वह शिव जी का ऐसा कट्टर भक्त था, उसकी यह प्रतिज्ञा थी कि किसी दूसरे देवता का नाम कान से भी नहीं सुनूँगा। किसी देवता का नाम सुनना न पड़े, इस भय से वह अपने दोनों कानों में दो घंटे बाँधे रखता था। उसकी प्रगाढ़ भक्ति से संतुष्ट होकर शिव जी ने सोचा कि इसे यह समझा देना उचित् है कि शिव और विष्णु में कोई भेद नहीं। इसलिए उसके समक्ष अर्ध शिव,अर्ध विष्णु अर्थात हरिहर रूप में वे प्रकट हुए। उस समय घंटाकर्ण उसकी आरती कर रहा था। किंतु उसकी ऐसी कट्टरता भी कि जब उसने देखा कि धूप की सुगंध विष्णु की नाक में जा रही है, उसने उसकी नाक दबा दी।

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मांसाहारी प्राणी, जैसे सिंह, एक आगत करके ही क्लांत हो जाता है, किंतु सहनशील बैल सारा दिन चलता रहता है, चलते- चलते ही वह खा भी लेता है और निद्रा भी ले लेता है। चंचल, सदा क्रियाशील यांकी भात खानेवाले चीनी कुलियों के साथ साथ काम नहीं कर पाते। जब तक सैनिक शक्ति का प्राधान्य रहेगा, तब तक मांस भोजन प्रचलित रहेगा। किंतु विज्ञान की उन्नति के साथ-साथ युद्ध जब कम हो जाएंगे, उस समय निरामिष भोजियों का दल प्रबल होगा।

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जब हम भगवान से प्रेम करते हैं, तब मानो हम अपने को दो भागों में विभक्त कर डालते हैं-हम स्वयं अपने को प्रेम करते हैं। ईश्वर ने हमारी सृष्टि की है और हमने ईश्वर की। हम अपने भाव के अनुसार ईश्वर की सृष्टि करते हैं। हम ही ईश्वर को अपना प्रभु बनाने के लिए उनकी सृष्टि करते हैं, ईश्वर हमें अपना दास नहीं बनाते। जब हम जान लेते हैं कि हम ईश्वर के साथ अभिन्न हैं, ईश्वर हमारे सखा हैं, तभी वास्तविक साम्यावस्था प्राप्त होती है, तभी हमारी मुक्ति होती है। उस अनंत पुरुष से जब तक तुम अपने को किंचित् भी पृथक रखोगे, तब तक भय कभी भी दूर नहीं हो सकता।

भगवत्साधना कहने पर, भगवान से प्रेम करने पर जगत का क्या कल्याण होगा-मूर्ख के समान ऐसा प्रश्न कभी मत करना। संसार की परवाह मत करो, भगवान से प्रेम करो-और कुछ मत चाहो। केवल प्रेम करो और अन्य किसी वस्तु की प्रत्याशा मत रखो। प्रेम करो-और सब मत-मतांतर भूल जाओ। प्रेम का प्याला पीकर पागल हो जाओ। बोलो, 'हे प्रभु, मैं तुम्हारा ही हूँ-चिर काल के लिए तुम्हारा ही हूँ', और सब कुछ भूलकर कूद पड़ो। प्रेम ही ईश्वर है। एक बिल्ली को अपने बच्चों को प्यार करते देखकर उस स्थान पर खड़े हो जाओ, और ऐसे ही प्रेम से भगवान की उपासना करो। उस स्थान में भगवान का आविर्भाव हुआ है, यह अक्षरश: सत्य है; इस कथन में विश्वास करो। सर्वदा कहो, 'मैं तुम्हारा हूँ, तुम्हारा हूँ ;' क्योंकि हम सर्वत्र भगवान का दर्शन कर सकते हैं। उन्हें खोजने के लिए कहीं भी चक्कर मत काटो-वे तो प्रत्यक्ष हैं, उन्हें केवल देखो। 'वही विश्वात्मा, जगज्ज्योति प्रभु सर्वदा तुम्हारी रक्षा करें।'

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निर्गुण परब्रह्म की उपासना नहीं की जा सकती, इसलिए हमें अपने ही सदृश प्रकृति-सम्पन्न उनके प्रकाश विशेष की उपासना करनी होगी। ईसा हम लोगों के समान मनुष्य प्रकृति सम्पन्न थे-वे ख्रिस्त हो गए थे। हम भी उनका समान ख्रिस्त हो सकते हैं और हमें वह होना ही होगा। ख्रिस्त और बुद्ध अवस्था विशेष का नाम हैं-जो हमें प्राप्त करनी होगी। ईसा और गौतम वे व्यक्ति हैं जिनमें यह अवस्था व्यक्त हुई। जगन्माता या आद्या शक्ति ही ब्रह्म का प्रथम और सर्वश्रेष्ठ प्रकाश हैं-उसके बाद ख्रिस्त और बुद्ध उनसे प्रकाशित हुए हैं। हम स्वयं ही अपनी परिस्थिति का निर्माण कर अपने को बुद्ध कर देते हैं और हम स्वयं ही इस जंजीर को तोड़कर मुक्त हो जाते हैं। आत्मा अभयस्वरूप है। जब हम अपनी आत्मा के बहिर्देश में अवस्थित ईश्वर की उपासना करते हैं, तब ठीक ही करते हैं,पर उस समय हम यह नहीं जानते कि हम वास्तव में क्या कर रहे हैं। हम जब अपनी आत्मा का स्वरूप समझ पते हैं, तभी इस रहस्य को जान पाते हैं। एकत्व ही प्रेम की सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्ति है।

ईरानी सूफियों की एक कविता में है-

'एक दिन ऐसा था, जब मैं नारी और वह पुरुष था।

दोनों के बीच प्रेम बढ़ने लगा-अंत में वह या मैं कोई भी नहीं रहा।

अब केवल इतना ही अस्पष्ट रूप से स्मरण आता है कि एक समय दो पृथक व्यक्ति थे;

किंतु अंत में प्रेम ने आकर दोनों को एक कर दिया।'

ज्ञान अनादि अनंत काल तक वर्तमान रहता है-वह ईश्वर के साथ सहअस्तित्ववाद है। जो व्यक्ति किसी प्रकार के आध्यात्मिक नियम का आविष्कार करते हैं, उन्हीं को प्रेरित (inspired) या प्रत्यादिष्ट पुरुष या ऋषि कहते हैं। वे जो कुछ प्रकाशित करते हैं, उसे रहस्य प्रकाशन (revelation) या अपौरुषेय वाक्य कहते हैं। किंतु इस प्रकार के अपौरुषेय वाक्य भी अनंत हैं--यह नहीं कि अब तक जो कुछ हुआ, वहीं पर उनका अंत हो गया है और अब अंध भाव से उसी का अनुसरण करना पड़ेगा। हिंदुओं के विजेताओं ने उनकी अनेक वर्षों तक समालोचना की, जिससे उन्होंने (हिंदुओं ने) अब स्वयं ही अपने धर्म की समालोचना करने का साहस किया और उससे वह उदार भावापन्न हो गए। उसके विदेशी शासकों ने अनजान में उनके पैरों की बेड़ियाँ तोड़ डाली हैं। हिंदू लोग जगत में सर्वापेक्षा धार्मिक जाति होते हुए भी वास्तव में भगवत निंदा या धर्म निंदा क्या है, यह नहीं जानते। उनके मतानुसार भगवान या धर्म के संबंध में किसी भी भाव से आलोचना करने से भी उससे पवित्रता और कल्याण प्राप्त होते हैं। और वे लोग पैगंबर, ग्रंथों या पाखंडपूर्ण पवित्रता आदि के प्रति किसी प्रकार की कृत्रिम श्रद्धा या भक्ति नहीं प्रदर्शित करते।

ईसाई संघ ईसा को अपने मत के अनुसार गढ़ने की चेष्टा कर रहा है, किंतु स्वयं को ईसा के जीवनादर्श के अनुसार गढ़ने की चेष्टा नहीं करता। इसीलिए जो ग्रंथ सामयिक उद्देश्य सिद्ध करने में सहायक हुए थे, केवल उन्हीं ग्रंथों को रखा गया था। अतः उन ग्रंथों पर कभी भी निर्भर नहीं रहा जा सकता। और इस प्रकार के ग्रंथ या शास्त्र की उपासना तो सबसे निकृष्ट प्रतिमा-पूजन है-वह तो हमारे हाथ-पैर को बिल्कुल बाँध देती हैं। इनके मत में क्या विज्ञान, क्या धर्म, क्या दर्शन-सभी को इस शास्त्र का मतानुयायी होना होगा। प्रोसेस्टैंटों की बाइबिल का अत्याचार इनमें सबसे बढ़कर भयानक अत्याचार है। ईसाई देशों में प्रत्येक के सिर पर एक विशाल गिरजा का दबाव रहता है और उसके शिखर पर धर्म ग्रंथ-किंतु फिर भी मानव जीवित है, और उसकी उन्नति भी हो रही है। क्या इसीसे यह प्रमाणित नहीं होता कि मनुष्य ईश्वरस्वरूप है ?

जीवो में मनुष्य की सर्वोच्च जीव है और यह लोक ही सर्वोच्च लोक है। ईश्वर को मनुष्य की अपेक्षा बड़ा समझकर हम उनकी कल्पना नहीं कर पाते; इसलिए हमारा ईश्वर भी मानव है-और मानव भी ईश्वर है। जब हम मनुष्य भाव से ऊपर उठकर उससे अतीत किसी उच्च वस्तु का साक्षात्कार करते हैं, तब हमें इस जगत को छोड़कर, देह, मन, कल्पना-इस सबके भी परे जाना पड़ता है। जब हम उच्चावस्था प्राप्त कर वही अनंतस्वरूप हो जाते हैं, तब हम फिर इस जगत में नहीं रहते। हमारे लिए इस जगत को छोड़ अन्य किसी जगत को जानने की संभावना नहीं है और मनुष्य ही इस जगत की सर्वोच्च सीमा है। पशुओं के संबंध में हम जो कुछ जान पाते हैं, वह केवल सादृश्यमूलक ज्ञान है। हम स्वयं जो कुछ करते हैं अथवा अनुभव करते हैं, उसी के द्वारा हम उनका विचार करते हैं। ज्ञान की समष्टि सर्वदा ही समान रहती है-हाँ, कभी वह अधिक और कभी कम अभिव्यक्त होता है, बस इतना ही। इस ज्ञान का एकमात्र स्रोत हमारे ही भीतर है और केवल वहीं यह ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है।

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समस्त काव्य, चित्रकला और संगीत शब्द, रंम और ध्वनि के द्वारा भावना की ही अभिव्यक्ति है।

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वे धन्य हैं, जो जल्दी जल्दी पापों का फल भोग लेते हैं-उनका हिसाब जल्दी जल्दी निपट गया। जिन्हें पाप का फल विलंब से मिलता है, उनका बड़ा दुर्भाग्य है-उन्हें बहुत अधिक भुगतना पड़ता है।

जिन्होंने समस्त भाव को प्राप्त कर लिया है, वे ही ब्रह्म में अवस्थित कहलाते हैं। सभी प्रकार की घृणा का अर्थ है आत्मा के द्वारा आत्मा का हनन। इसलिए प्रेम ही जीवन का यथार्थ नियामक है। प्रेम की अवस्था को प्राप्त करना ही सिद्धांवस्था है; किंतु हम जितना ही सिद्धि की ओर अग्रसर होते हैं, उतना ही हम कर्म (तथाकथित) कर पाते हैं। सात्विक व्यक्ति जानते हैं और देखते हैं कि सभी मानो लड़कों का खिलवाड़ मात्र है; इसलिए वे किसी भी बात के लिए चिंतित नहीं होते।

एक आघात कर देना सरल है, किंतु हाथ रोककर, स्थिर होकर 'हे प्रभु, मैं तुम्हारी शरण में आया हूँ,' यह कहना और फिर प्रतीक्षा करना कि जैसी उसकी इच्छा हो करें, बड़ा कठिन है।

५ जुलाई, शुक्रवार

जब तक तुम किसी भी क्षण बदलने को प्रस्तुत नहीं होते, तब तक तुम सत्य लाभ कभी नहीं कर सकते; अवश्यमेव तुम्हें सत्य के अनुसंधान में भाव से लगे रहना होगा।

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चार्वाक के अनुयायियों का भारत में एक अत्यंत प्राचीन संप्रदाय था। उनके अनुयायी घोर जड़वादी थे। इस समय वह संप्रदाय लुप्त हो गया है और उनके अधिकांश ग्रंथ भी लुप्त हो गए हैं। उनके मतानुसार आत्मा और भौतिक शक्ति से उत्पन्न होती है-इसलिए देह का नाश होने से आत्मा का भी नाश हो जाता है और देह-नाश के बाद भी आत्मा का अस्तित्व है, इसका भी कोई प्रमाण नहीं है। वह केवल इंद्रियजन्य प्रत्यक्ष ज्ञान स्वीकार करता है-अनुमान द्वारा भी ज्ञान प्राप्त हो सकता है, इसे वह स्वीकार नहीं करता।

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समाधि का अर्थ है-जीवात्मा और परमात्मा का अभेद भाव, अथवा समत्व भाव की प्राप्ति।

जड़वादी कहता है कि मुक्ति की वाणी एक भ्रम है। विज्ञानवादी कहता है कि बंधन का अस्तित्व बतालाने वाले वाणी भ्रम है। वेदान्ती कहता है, तुम एक ही साथ मुक्त और बद्ध दोनों हो; पार्थिव स्तर पर तुम कभी भी मुक्त नहीं हो, किंतु पारमार्थिक या आध्यात्मिक स्तर पर तुम नित्य मुक्त हो।

मुक्ति और बंधन दोनों के परे चले जाओ।

हम शिवस्वरूप, अतीन्द्रिय, अविनाशी ज्ञानस्वरूप हैं। प्रत्येक व्यक्ति के पीछे अनंत शक्ति रहती है; जगन्माता की प्रार्थना करने से ही यह शक्ति तुम्हें प्राप्त होगी।

'हे मां वागीश्वरी, तू स्वयंभू है, तु मेरी जिह्वा पर वाक् रूप से आविर्भूत हो !

'हे माँ, वज्र तेरी वाणी है-तू मेरे भीतर आविर्भूत हो ! हे काली, तू अनंत कालरूपिणी है, तू अमोघ शक्ति-स्वरूपिणी है !'

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6 जुलाई , शनिवार

(आज स्वामी जी ने व्यासकृत वेदांत सूत्र के शंकर भाषण पर उपदेश दिया।)

ॐ तत सत !

शंकर के मतानुसार जगत को दो भागों में विभक्त किया जा सकता है-अस्मद (मैं) और युष्मद् (तुम)। और प्रकाश एवं अंधकार जैसे संपूर्ण विरुद्ध पदार्थ हैं, ये दोनों भी वैसे ही हैं; इसलिए यह कहने की आवश्यकता नहीं कि इन दोनों में किसी एक से दूसरा उत्पन्न नहीं हो सकता। इस 'मैं' या विषयो के ऊपर 'तुम' या विषय का अध्यास हुआ है। विषयी ही एकमात्र सत्य वस्तु है और दूसरा अर्थात विषय आपात-प्रतीयमान सत्ता मात्र है। इसके विरुद्ध मत कभी भी प्रमाणित नहीं किया जा सकता। जड़ पदार्थ और बहिर्जगत आत्मा की ही अवस्थाविशेष मात्र है। वास्तव में वही एकमात्र है।

हमारा यह जगत सत्य और मिथ्या के सम्मिक्षण से उत्पन्न होता है। यह संसार, शक्तियों के समानांतर चतुर्भुज मंप गेंद की कर्णाभिमुखी गति के सदृश्य हमारे ऊपर क्रिया करनेवाली परस्पर विरोधी शक्तियों का परिणाम है। यह जगत ब्रह्मस्वरूप और सत्य है; किंतु हम जिस जगत को देखते हैं वह उस प्रकार का नहीं है; जिस तरह सीप में रजत का भ्रम होता है, उसी तरह हमें भी ब्रह्म में जगत का भ्रम होता है। इसी को कहते हैं अध्यास, अर्थात सत्य सत्ता पर निर्भर एक सापेक्ष सत्ता, किसी देखे हुए दृश्य के अनुस्मरण की भाँति; एक अवधि के लिए तो उसका अस्तित्व रहता है, किंतु उसका अस्तित्व सत्य नहीं होता। अथवा अध्यास का दृष्टांत दूसरे लोग इस प्रकार देते हैं-उष्णता जल का धर्म नहीं है, परंतु हम कल्पना कर लेते हैं कि जल उष्ण है। इसलिए अध्यास का अर्थ है अतस्मिन तदबुद्धि: -जो वस्तु जैसी नहीं है, उसको वैसा ग्रहण करना। हम सत्य का ही दर्शन करते हैं, किंतु जिस माध्यम से हम उसे देखते हैं, उसके कारण उसका रूप विकृत हो जाता है।

स्वयं अपने को विषय बनाए बिना तुम कभी भी अपने को नहीं जान सकते। जब हम एक वस्तु को दूसरी समझ लेते हैं, तब हम सदैव अपने सम्मुख प्रस्तुत वस्तु को ही सत्य मानते हैं, अदृश्य वस्तु को नहीं; इस प्रकार हम विषय को विषयी समझ लेते हैं। किंतु आत्मा कभी भी विषय नहीं होती। मन है अंतररिन्द्रय, और सब बहिरिन्द्रियाँ उसी की यंत्रस्वरूप हैं। विषयी में बहि:प्रक्षेप शक्ति (Objectifying Power) विद्यमान है-इसीलिए वह 'मैं हूँ', इस प्रकार अपने को जान पाता है। किंतु वह आत्मा या विषयी अपना ही विषय है, मन या इंद्रियों का नहीं। फिर भी हम एक भाव (idea) का एक दूसरे भाव पर अध्यास कर सकते हैं; उदाहरणार्थ हम कहते हैं, 'आकाश नीला है', किंतु आकाश स्वयं एक भाव या प्रत्यय मात्र है। विद्या और अविद्या दोनों हैं, किंतु आत्मा कभी भी अविद्याच्छन्न नहीं होती। सापेक्षिक ज्ञान भी उपयोगी है, क्योंकि वह उसी चरम ज्ञान में पहुँचने की सीढ़ी है। किंतु इंद्रियजन्य ज्ञान या मानसिक ज्ञान, इतना ही नहीं, वेद-प्रमाणजन्य ज्ञान भी कभी परमार्थ सत्य नहीं हो सकता, क्योंकि ये सब सापेक्षिक ज्ञान की सीमा के भीतर हैं। पहले 'मैं देह हूँ', इस भ्रम को दूर कर दो, तभी यथार्थ ज्ञान की आकांक्षा होगी। मानवीय ज्ञान पशुज्ञान की ही उच्चतर अवस्था मात्र है।

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वेद के एक अंश में कर्मकांड-अनेकविध अनुष्ठानपद्धति, यज्ञयागादि-का उपदेश है। दूसरे अंश में ब्रह्मज्ञान और धर्म का विषय वर्णित है। वेद का यही भाग आत्म-तत्व के संबंध में उपदेश देता है और इसीलिए वेद के इस भाग का ज्ञान यथार्थ पारमार्थिक ज्ञान का अति समीपवर्ती है। परब्रह्म का ज्ञान किसी शास्त्र के ऊपर या और किसी अन्य वस्तु पर निर्भर नहीं होता; वह स्वयं पूर्ण-स्वरूप होता है। शास्त्रों के अध्ययन से यह ज्ञान नहीं मिलता; यह कोई सिद्धांत नहीं है, यह है सत्य का साक्षात्कार। दर्पण के ऊपर जो मैल जम गया है, उसे साफ कर डालो, अपने मन को पवित्र करो, ऐसा होने से उसी क्षण इस ज्ञान का उदय होगा कि तुम ब्रह्म हो।

केवल ब्रह्म ही है-जन्म नहीं, मृत्यु नहीं, दुख नहीं, कष्ट नहीं, नरहत्या नहीं, किसी तरह का परिणाम नहीं, शुभ नहीं, अशुभ भी नहीं; सभी कुछ ब्रह्म है। हम रस्सी को साँप मान लेते हैं, भूल हमारी है।-हम केवल तभी जगत का कल्याण कर सकते हैं, जब हम भगवान से प्रेम करते हैं और वे भी हमसे प्यार करते हैं। हत्यारा व्यक्ति भी ब्रह्म है-हत्यारा का आवरण उस पर अध्यस्त या आरोपित मात्र हुआ है। उसे हाथ पकड़कर इस सत्य का ज्ञान करा दो।

आत्मा में किसी प्रकार का जाति-भेद नहीं है; उसमें 'जाति-भेद है', यह मानना भ्रांति है। इसी प्रकार 'आत्मा का जीवन या मरण या कोई गति अथवा गुण है', यह भावना भी भ्रम है। आत्मा का कभी भी परिवर्तन नहीं होता, न वह कहीं आती है, न जाती है। वह अपनी समग्र अभिव्यक्तियों की चिरंतर साक्षिस्वरूप है, किंतु हम उस अभिव्यक्तियों को भी आत्मा समझ बैठते हैं। यह अनादि अनंत भ्रम अनंत काल से चला आ रहा है। वेदों को हमारे स्तर पर आकर हमें उपदेश देना पड़ता है, क्योंकि यदि वेद उच्चतम सत्य को उच्चतम भाव या भाषा में हमारे लिए कहते तो हम वह समझ ही नहीं पाते।

स्वर्ग हमारी कामना से सृष्ट अंधविश्वास मात्र है और कामना चिर काल के लिए बंधन-अवनति का द्वारस्वरूप है। ब्रह्मदृष्टि को छोड़कर अन्य किसी भाव से किसी वस्तु को मत देखो। यदि ऐसा करोगे तो अन्याय और अशुभ ही देखने में आएगा; क्योंकि हम जिस वस्तु को देखने जाते हैं, उसके ऊपर एक भ्रमात्मक आवरण डाल देते हैं, और इसी कारण अशुभ देखते हैं। इस सब भ्रमों से मुक्त हो जाओ और परमानंद का उपभोग करो। सभी प्रकार के भ्रमों से मुक्त होना ही मुक्ति है।

एक दृष्टि से प्रत्येक मनुष्य ब्रह्म को जानता है; क्योंकि वह जानता है, 'मैं हूँ'; किंतु मनुष्य अपना यथार्थ स्वरूप नहीं जानता। हम सभी जानते हैं कि हम हैं, किंतु कैसे हैं, यह नहीं जानते। सभी निम्नतर व्याख्याएँ आंशिक सत्य मात्र हैं। किंतु देव का सार-तत्व यह है कि हममें से प्रत्येक के भीतर जो आत्मा रहती है, वह ब्रह्मस्वरूप है। जगत्प्रपंच के भीतर जो कुछ है-सब जन्म, वृद्धि, मृत्यु, उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय में अंतर्भूत है। हमारी अपरोक्षानुभूति वेदों से भी अतीत है; क्योंकि वेदों का भी प्रामाण्य इस अपरोक्षानुभूति के ऊपर ही निर्भर है। सर्वोच्च वेदांत है-प्रपंचातीत सत्ता का तत्व-ज्ञान।

सृष्टि का आदि है, यह कहने से सभी प्रकार के दार्शनिक विचारों के मूल में कुठाराघात होता है।

माया जगत्प्रपंच की अव्यक्त और व्यक्ति शक्ति है। जब तक वह मातृस्वरूपिणी हमें नहीं छोड़ देती, तब तक हम मुक्त नहीं हो सकते।

जगत हमारे उपभोग के लिए पड़ा हुआ है; किंतु कभी भी किसी वस्तु का अभाव-बोध मत करो। अभाव-बोध करना दुर्बलता है, अभाव-बोध ही हमें भिक्षुक बना डालता है। किंतु हम हैं राजपुत्र, भिक्षुक नहीं।

७ जुलाई, रविवार (प्रातःकाल)

अनंत अभिव्यक्ति स्वयं को खंडों में विभाजित करने पर भी अनंत ही रहती है और उसका प्रत्येक भाग भी अनंत रहता है।

परिणामी और अपरिणामी, व्यक्त और अव्यक्त-दोनों ही अवस्थाओं में ब्रह्म एक है। ज्ञाता और ज्ञेय को एक ही समझो। ज्ञाता, ज्ञान और ज्ञेय-यही त्रिपुटी जगत्प्रपंच रूप में प्रकाशित हुई है। योगी ध्यान में जो ईश्वर का दर्शन करते हैं, वे अपनी आत्मा की शक्ति से ही कर पाते हैं।

हम जिसे प्रकृति ये अदृष्ट कहते हैं, वह केवल ईश्वरेच्छा मात्र है। जब तक भोग-सुख खोजा जाता है, तब तक बंधन रहता है। जब तक हम अपूर्ण हैं, तब तक भोग संभव है; क्योंकि भोग का अर्थ है-अपूर्ण वासना की परिपूर्ति। जीवात्मा प्राकृति का उपभोग करता है। प्रकृति, जीवात्मा और ईश्वर-इनके अंतर्निहित सत्य है ब्रह्म। किंतु जब तक हम उसे प्रकाशित नहीं करते, तब तक हम उसे नहीं देख पाते। जैसे घर्षण के द्वारा अग्नि उत्पन्न की जा सकती है, उसी प्रकार ब्रह्म को भी मंथन द्वारा प्रकाशित किया जा सकता है। देह को नीचे की अरणि और प्रणव या ओंकार को ऊपर की अरणि समझो और ध्यान को मंथन स्वरूप समझो। इस प्रकार मंथन करने पर ब्रह्मज्ञान रूपी अग्नि आत्मा में प्रकाशित हो जाएगी। तपस्या द्वारा यही करने की चेष्टा करो। देह को सीधी रखकर इंद्रियों की आहुति मन में दो। इंद्रियों का केंद्र भीतर है, बाहर तो उनके यंत्र हैं। इसलिए बलपूर्वक मन में उसका प्रवेश करा दो। उसके बाद धारणा की सहायता से मन को ध्यान में स्थिर करो। जैसे दूध के भीतर सर्वत्र मक्खन रहता है, ब्रह्म भी उसी तरह जगत में सर्वत्र विद्यमान है। किंतु मंथन द्वारा वह एक विशिष्ट स्थान में प्रकाशित होता है। जैसे मथने पर दूध का मक्खन ऊपर आ जाता है, उसी प्रकार ध्यान के द्वारा आत्मा में ब्रह्म का साक्षात्कार हो जाता है।

सब हिंदू दर्शन कहते हैं कि हम उनमें पांच इंद्रियों के अतिरिक्त एक छठी अतिचेतन इंद्रिय भी है। उसके द्वारा ही अतींद्रिय ज्ञान लाभ होता है।

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जगत गतिस्वरूप है और अनंत: घर्षण द्वारा (friction) प्रत्येक वस्तु का अंत कर देगा; उसके बाद कुछ काल तक स्थिति की अवस्था रहने पर फिर उसी तरह सृष्टि का आरंभ होगा।

जब तक यह 'त्वगंबर' मनुष्य को वेष्टित करके रखता है, अर्थात जब तक वह अपने को देह के साथ अभिन्न मानता है, तब तक वह 'ईश्वर' को देख नहीं पाता।

रविवार, अपराह्न

भारत में छ: दर्शनों को सनातनी दर्शन कहा जाता है, क्योंकि वे वेद में विश्वास करते हैं।

व्यास का दर्शन मुख्यतया उपनिषदों पर प्रतिष्ठित है। उन्होंने उसे सूत्रशैली में, कर्ता-क्रिया आदि रहित बीजगणित के प्रतीकों में लिखा है। इस कारण व्यास-सूत्र का अर्थ समझने में बहुत गड़बड़ी हुई। इस एक सूत्र से ही द्वैतवाद, विशिष्टाद्वैतवाद एवं अद्वैतवाद या 'वेदान्त केसरी' की उत्पत्ति हुई। और इन सभी विभिन्न मतों के बड़े-बड़े भाषाकारों ने सूत्रों के साथ अपने अपने दर्शन का मेल बैठाने के लिए समय समय पर जान-बूझकर मिथ्या भाषण भी किया है।

उपनिषद में किसी व्यक्ति विशेष के कार्यकलाप का इतिहास बहुत अल्प ही पाया जाता है, किंतु प्रायः अन्य सभी शास्त्र प्रधानत: किसी व्यक्ति विशेष के ही इतिहास हैं। वेद में प्रायः केवल दार्शनिक तत्वों की ही आलोचना है। दर्शनरहित धर्म अंधविश्वास में और धर्मरहित दर्शन सुखी नास्तिकता में परिणत हो जाता है।

विशिष्टाद्वैतवाद का अर्थ है-अद्वैतवेद, किंतु विशेषयुक्त। उसके व्याख्याता हैं रामानुज। वे कहते हैं, 'वेदरूपी क्षीरसमुद्र का मंथन करके व्यास ने मानव जाति के कल्याण के लिए इस वेदांत दर्शन रूपी मक्खन को निकाला है।' वे यह भी कहते हैं, 'समस्त शुभ गुण और लक्षण विश्व के प्रति ब्रह्म के हैं। वह पुरुषोत्तम हैं।' मध्य पूर्णतया द्वैतवादी हैं। वे कहते हैं, 'स्त्रियों को भी वेदपाठ करने का अधिकार है।' वे प्रधानत: पुराणों से ही उद्धरण देते हैं। वे कहते हैं, ब्रह्म का अर्थ विष्णु है-शिव किंचित् भी नहीं, क्योंकि विष्णु को छोड़कर अन्य कोई भी मुक्तिदाता नहीं है।

८ जुलाई , सोमवार

मध्वाचार्य की व्याख्या में तर्क का स्थान नहीं है-केवल वेदों के श्रुति-ज्ञान पर ही सब का सब आधारित है।

रामानुज कहते हैं, वेद ही सर्वापेक्षा पवित्र पठनीय ग्रंथ है। त्रैवर्णिक अर्थात ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य इन तीन उच्च वर्णों की संतानों को यज्ञोपवीत सस्कार के बाद अष्टम, दशम या एकादश वर्ष की अवस्था में वेदाध्ययन आरंभ करना उचित् है। वेदाध्ययन का अर्थ है, गुरुगृह में जाकर नियमित स्वर और उच्चारण के सहित वेदों की शब्दराशि को आद्यांत कंठस्थ करना।

जब का अर्थ है पवित्र नाम की बारंबार आवृत्ति। यह जप करते करते साधन क्रमशः उस अनंत तक जाता है। यागयज्ञादि तो मानो कमजोर नौका के समान है। ब्रह्मज्ञान के लिए इन यागयज्ञादि के अतिरिक्त और भी कुछ चाहिए; और ब्रह्म ज्ञान ही मुक्ति है। मुक्ति और कुछ नहीं-अज्ञान का विनाश ही मुक्ति है; ब्रह्मज्ञान से ही इस अज्ञान का विनाश होता है। वेदांत का तात्पर्य जानने के लिए इन सब यागयज्ञादि करने की कोई आवश्यकता नहीं। केवल ओंकार जप करना ही पर्याप्त है।

भेद दर्शन ही समस्त दु:ख का कारण है और अज्ञान ही इस भेद दर्शन का कारण है। इसी हेतु यागयज्ञादि अनुष्ठान अनावश्यक हैं, क्योंकि वह भेद ज्ञान को और भी बढ़ा देते हैं। इन सब यागयज्ञादि का उद्देश्य कुछ लाभ करना-अथवा कुछ से छुटकारा पाना है। ब्रह्म निष्क्रिय है, आत्मा ही ब्रह्म है, एवं हम ही वह आत्मस्वरूप हैं-इस प्रकार के ज्ञान के द्वारा ही सारी भ्रांतियां दूर हो जाती हैं। यह तत्व पहले सुनना होगा, बाद में मनन अर्थात विचार द्वारा धारण करनी होगी, अंत में उसकी प्रत्यक्ष उपलब्धि करनी होगी। मनन है, विचार के द्वारा युक्ति-तर्क के द्वारा ज्ञान अपने भीतर प्रतिष्ठित करना ! प्रत्यक्षानुभूति या साक्षात्कार का अर्थ है-सर्वदा चिंतन और ध्यान के द्वारा उसे अपने जीवन का अंग बना डालना। यह अविराम चिंता या ध्यान मानो एक मात्र से दूसरे पात्र में प्रक्षिप्त अविच्छिन्न तैलधारा के समान है। ध्यान दिन-रात मन को इस भाव के बीच में रख देता है और उसके द्वारा हमें मुक्ति-लाभ करने में सहायता पहुंचाता है। सर्वदा सोऽहं, सोऽहं, यह चिंता करो-इस प्रकार की अविच्छिन्न चिंता प्रायः मुक्ति के समान है। दिन-रात कहो-सोऽहं, सोऽहं। इस प्रकार सर्वदा चिंतन करने से अपरोक्षानुभूति प्राप्त होगी। भगवान को इस प्रकार तन्मय भाव से सदा-सर्वदा स्मरण करना ही भक्ति है।

सभी प्रकार के शुभ कर्म भक्ति लाभ कराने में गौण भाव से सहायता करते हैं। शुभ चिंतन तथा शुभ कार्य अशुभ चिंता और अशुभ का कर्म की अपेक्षा कम भेद ज्ञान उत्पन्न करते हैं, इसलिए गौण भाव से ये मुक्ति की ओर ले जाते हैं। कर्म करो, किंतु कर्मफल भगवान को समर्पित कर दो। केवल ज्ञान के द्वारा ही पूर्णता या सिद्धावस्था प्राप्त होती है। जो भक्तिपूर्वक सत्यस्वरूप भगवान की साधना करते हैं, उसके निकट वही सत्यस्वरूप भगवान प्रकाशित होते हैं।

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हम मानो प्रदीपस्वरूप हैं और इस प्रदीप के ज्वलन को ही हम जीवन कहते हैं। ऑक्सीजन समाप्त होने पर दीपक भी बूझ जाएगा। हम केवल प्रदीप को साफ रख सकते हैं। जीवन केवल कुछ वस्तुओं का मिश्रणस्वरूप है, यह एक कार्यस्वरूप है, इसलिए यह अवश्यमेव अपने उपादान कारणों में विलीन होगा।

9 जुलाई , मंगलवार

आत्मा की दृष्टि से मनुष्य वास्तव में मुक्त ही है, किंतु मनुष्य की अपनी दृष्टि से वह बद्ध है और प्रत्येक भौतिक अवस्था द्वारा उसका परिवर्तन होता रहता है। मनुष्य की दृष्टि से उसे एक यंत्र विशेष कहा जा सकता है, केवल उसके भीतर मुक्ति या स्वाधीनता का भाव विद्यमान है, बस इतना ही। किंतु जगत के सभी शरीरों में यह मनुष्य शरीर ही सर्वश्रेष्ठ शरीर है तथा मनुष्य मन ही सर्वश्रेष्ठ मन है। जब मनुष्य आत्मोपलब्धि करता है, तब आवश्यकता के अनुसार वह कोई भी शरीर धारण कर सकता है; तब वह कभी नियमों के परे हो जाता है। यह प्रथमत: एक उक्ति मात्र है; इसे प्रमाणित करके दिखाना होगा। प्रत्येक व्यक्ति को इसे स्वयं प्रमाणित करके देखना होगा; हम अपने मन का समाधान कर सकते हैं, किंतु दूसरों के मन का नहीं। धर्मविज्ञानों में एकमात्र राजयोग को प्रमाणित किया जा सकता है--और मैं केवल उस बात की शिक्षा देता हूँ, जिसको मैंने स्वयं अनुभव करके सत्य पाया है, विचार शक्ति की चरम अवस्था ही अपरोक्ष ज्ञान है, किंतु वह कभी बुद्धिविरोधी नहीं हो सकता।

कर्म के द्वारा चित्त शुद्ध होता है, इसलिए कर्म विद्या या ज्ञान का सहायक है। बौद्धों के मत में मानव और पशुओं का हित ही एकमात्र कर्म है; ब्राह्मण या हिंदुओं के मत में उपासना तथा सभी प्रकार के यज्ञयागादि अनुष्ठान भी ठीक वैसा ही कर्म है, एवं चित्र-शुद्धि के सहायक स्वरुप हैं। शंकर के मतानुसार 'सभी प्रकार के शुभाशुभ कर्म ज्ञान के प्रतिबंधक है।' जो सभी कार्य अज्ञान की ओर ले जाते हैं, वे पाप हैं-साक्षात्संबंध से नहीं, किंतु कारणस्वरूप से-क्योंकि उनके द्वारा रज और तम बढ़ जाते हैं। केवल सत्य के द्वारा ही ज्ञान-लाभ होता है। पुण्य या शुभ कर्म के द्वारा ज्ञान का आवरण दूर होता है और केवल ज्ञान द्वारा ही ईश्वर-दर्शन होता है।

ज्ञान कभी उत्पन्न नहीं किया जा सकता, उसका केवल आविष्कार किया जा सकता है; और जो कोई व्यक्ति कोई बड़ा अविष्कार करते हैं, उन्हीं को प्रेरित (inspired) पुरुष कहा जा सकता है। यदि वे केवल आध्यात्मिक सत्य का आविष्कार करते हैं, तो हम उन्हें पैगंबर या ऋषि कहते हैं; और जब वह आविष्कार जड़ जगत संबंधी कोई सत्य होता है, तो उन्हें हम वैज्ञानिक कहते हैं। यद्यपि सत्यों का मूल एक ब्रह्म ही है, तथापि हम प्रथमोक्त श्रेणी के उच्चतर आसन देते हैं।

शंकर कहते हैं, ब्रह्म सभी प्रकार के ज्ञान का सार है, उसकी भित्तिस्वरूप है, तथा ज्ञाता, ज्ञान, ज्ञेय रूपी जो अभिव्यक्ति हैं, वे ब्रह्म में काल्पनिक भेद मात्र है। रामानुज ब्रह्म ज्ञान का अस्तित्व स्वीकार करते हैं। विशुद्ध अद्वैतवादी ब्रह्म में कोई भी गुण स्वीकार नहीं करते-यहाँ तक की सत्ता तक को स्वीकार नहीं करते, सत्ता शब्द को हम चाहे किसी भी अर्थ में क्यों न लें। रामानुज कहते हैं, ब्रह्म सचेतन ज्ञान का सारस्वरूप है। अव्यक्त या सा साम्यभावापन्न ज्ञान जब व्यक्त वैषम्यावस्था को प्राप्त होता है तभी जगत्प्रपंच की उत्पत्ति होती है।

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बौद्ध धर्म-जो कि जगत के उच्चतम दार्शनिक धर्मों में से एक है-भारत की सर्वसाधारण जनता में फैल गया था। जरा विचार कर देखो, ढाई हजार वर्ष पहले आर्यों की सभ्यता और शिक्षा कैसी अद्भुत रही होगी, जिससे वे लोग इस प्रकार के उच्च विचारों को समझ सकें ! भारत के महान दार्शनिकों में एकमात्र बुद्धदेव ने ही जातिभेद नहीं माना और आज भारत में एक भी बुद्ध देखने में नहीं आता। अन्यान्य दार्शनिक अल्पाधिक मात्रा में सामाजिक कुसंस्कारों को प्रश्रय देते थे; उनकी उड़ान भले ही कितनी ऊँची क्यों ना रही हो, उसके भीतर गिद्ध का थोड़ा अंश विद्यमान ही रहा। मेरे गुरुदेव जैसा कहते थे, 'गिद्ध इतना ऊंचा उड़ते हैं कि वे दिखाई नहीं पड़ते, किंतु दृष्टि उनकी रहती है जमीन पर पड़े हुए सड़े मांस के टुकड़ों पर ही।'

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प्राचीन हिंदू लोग अद्भुत पंडित थे-मानो जीवित विश्वकोष ! वे कहते थे-'विद्या यदि किताबों में ही रहे और धन यदि दूसरों के हाथ में रहे, तो कार्यकाल उपस्थित होने पर वह विद्या भी विद्या नहीं है और वह धन भी धन नहीं है।'

शंकर को अनेक लोग शिव का अवतार मानते हैं।

१० जुलाई , बुधवार

भारत में साढ़े छ: करोड़ मुसलमान हैं-उसमें से कुछ सूफी हैं। ये सूफी लोग जीवात्मा को परमात्मा से अभिन्न मानते हैं। और उन्हीं के द्वारा यह भाव यूरोप में आया है। वह कहते हैं-'अनलहक' अर्थात मैं वही सत्यस्वरूप हूँ। फिर भी उनके भीतर बहिरंग या प्रकाश्य (exoteric) एवं अंतरंग या गुह्म (esoteric) मत हैं, यद्यपि मुहम्मद स्वयं इसमें विश्वास नहीं करते थे।

'हाशाशिन' शब्द से अंग्रेजी Assassin (हत्याकारी) शब्द आया है . मुसलमानों का एक प्राचीन संप्रदाय अविश्वासियों की अर्थात मुसलमानों को छोड़कर अन्य धर्मावलंबियों की हत्या, उसे अपने धर्म का एक अंग मान कर, करता था। मुसलमान लोग उपासना के समय एक घड़ा जल सामने रखते हैं। ईश्वर संपूर्ण जगत् में व्याप्त है--इसी भाव का यह प्रतीकस्वरूप है।

हिंदू लोग दशावतार में विश्वास करते हैं। उनके मत में नौ अवतार हो गए हैं, दशम अवतार बाद में होगा।

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शंकर को यह प्रमाणित करने के लिए कि वेदों के सभी वाक्य उनके दर्शन के समर्थक हैं, फूट तर्क का आश्रय लेना पड़ा। बुद्धदेव अन्य सभी धर्माचार्यों की अपेक्षा अधिक साहसी और निष्कपट थे। वे कह गए हैं, 'किसी शास्त्र में विश्वास मत करो। वेद मिथ्या हैं। यदि मेरी उपलब्धि से साथ वेद मिलते-जुलते हैं, तो वह देवों का ही सौभाग्य है। मैं ही सर्वश्रेष्ठ शास्त्र हूँ, यज्ञयाग और प्रार्थना व्यर्थ है।' बुद्धदेव पहले मानव हैं जिन्होंने संसार को ही सर्वांगसंपन्न नीतिविज्ञान की शिक्षा दी थी। वे शुभ के लिए ही शुभ करते थे, प्रेम के लिए प्रेम करते थे।

शंकर कहते हैं, ब्रह्म का मनन करना होगा; क्योंकि वेद की यह आज्ञा है। विचार अतींद्रिय ज्ञान का सहायक है। वेद और सिद्ध मनन-व्यष्टिकृत अनुभूति--यह दोनों ही ब्रह्म के अस्तित्व के प्रमाण हैं। उनके मत में वेद एक प्रकार से सार्वभौम ज्ञान के अवतार हैं। वेदों का प्रामाण्य, इसलिए है कि वह ब्रह्म से प्रस्तुत हैं और ब्रह्म का प्रामाण्य इसलिए है कि वेद उनसे उत्पन्न हुए हैं। वेद सर्वविध ज्ञान की खान है; और मनुष्य जैसे नि:स्वार्थ के द्वारा वायु को बाहर प्रक्षिप्त करता है, उसी प्रकार वेद भी ब्रह्म के भीतर से प्रकाशित हुए हैं। इसीलिए हम समझ सकते हैं कि वे सर्वशक्तिमान और सर्वज्ञ हैं। वे जगत की सृष्टि करते हों या न करते हों, उससे कुछ तात्पर्य नहीं, किंतु उन्होंने जो वेदों को प्रकाशित किया है, यही बहुत बड़ी बात है। वेदों की सहायता से ही संसार को ब्रह्म के बारे में ज्ञान हुआ है--ब्रह्म को जानने का और दूसरा उपाय नहीं।

वेदों को समस्त ज्ञान की खान मानने का शंकर का विश्वास इतना सर्वव्यापी हो गया है कि संपूर्ण हिंदुओं में एक कहावत हो गयी है कि खोयी हुई गौ भी वेदों में पायी जा सकती है।

इसके अतिरिक्त शंकर यह भी कहते हैं कि कर्मकांड का अनुसरण ज्ञान नहीं है। ब्रह्मज्ञान किसी प्रकार के नैतिक नियम, यज्ञयागादि अनुष्ठान अथवा हमारे मतामत के ऊपर निर्भर नहीं है, वह इन सबके परे है। यह ऐसा ही है, जैसे एक स्थाणु को एक व्यक्ति भूत समझता है और दूसरा स्थाणु ही समझता है, पर इससे स्थाणु का कुछ बनता-बिगड़ता नहीं, वह स्थाणु स्थाणु ही रहता है।

हमारे लिए वेदांत की विशेष आवश्यकता है, क्योंकि विचार या शास्त्र द्वारा हमें ब्रह्म की उपलब्धि नहीं हो सकती। समाधि के द्वारा उसकी उपलब्धि करनी होगी और वेदांत ही इस अवस्था को पाने का उपाय दिखलाता है। हमें सगुण ब्रह्म या ईश्वर का भाव अतिक्रमण कर उस निर्गुण ब्रह्म में पहुंचना होगा। प्रत्येक व्यक्ति ब्रह्म का अनुभव करता है; ब्रह्म छोड़कर अनुभव करने की दूसरी कोई वस्तु है ही नहीं। हमारे भीतर जो 'मैं' 'मैं' करता है, वही ब्रह्म है। किंतु यद्यपि हम दिन-रात उसका अनुभव करते रहते हैं, फिर भी हम यह जान नहीं पाते कि हम उसका अनुभव कर रहे हैं। जिस क्षण हम इस सत्य को समझ लेंगे, उसी क्षण हमारे सभी क्लेश नष्ट हो जाएंगे , इसलिए हमें यह सत्य जानना ही होगा। एकत्व अवस्था को प्राप्त कर लो, ऐसा करने पर फिर द्वैत भाव नहीं आएगा। किंतु यज्ञयागादि के द्वारा ज्ञानलाभ नहीं होता; आत्मा का अन्वेषण, उपासना और साक्षात्कार करने से ही वह ज्ञान प्राप्त होगा।

ब्रह्मविद्या ही परा विद्या है और अपरा विद्या है विज्ञान-मुण्डकोपनिषद (संन्यासियों के लिए उपदिष्ट उपनिषद) इस विषय का उपदेश देता है। विद्या दो प्रकार की है-परा और अपरा। वेदों के जिस अंश में देवतोपासना और नानाविध यज्ञयागादिकों का उपदेश है वह कर्मकांड, तथा सर्वविध लौकिक ज्ञान ही अपरा विद्या है। जिसके द्वारा उस अक्षर पुरुष का लाभ होता है, वही परा विद्या है। वह अक्षर पुरुष अपने भीतर से ही सबकी सृष्टि करता है--बाहर दूसरा कुछ भी नहीं है, न कोई कारण है। वह ब्रह्म शक्तिस्वरुप है, जो कुछ है सब ब्रह्म ही है। जो आत्मजयी हैं, वे ही केवल ब्रह्म को जानते हैं। ब्रह्म पूजा को अज्ञानी लोग ही श्रेष्ठ मानते हैं; वे सोचते हैं कि कर्म के द्वारा हम ब्रह्म को प्राप्त कर सकते हैं। जो सुषम्ना-वर्त्म में (योगियों के मार्ग में) गमन करते हैं, केवल वे ही आत्मालाभ करते हैं। इस ब्रह्मविद्या की शिक्षा पाने के लिए गुरु के पास जाना होगा। जो समष्टि में है वही व्यष्टि में है; सब कुछ आत्मा से प्रस्तुत हुआ है। ओंकार मानो धनुष है, आत्मा शिर है और ब्रह्म लक्ष्य। स्थिर और शांत भाव से उसे वेधना होगा। उसमें लीन होकर एक हो जाना होगा। ससीम अवस्था में हम उस असीम को कभी भी प्रकाशित नहीं कर सकते। किंतु हमीं वह असीमस्वरूप हैं-यह जान लेने से फिर और किसी के साथ तर्क वितर्क करने का प्रयोजन नहीं रह जाता।

भक्ति, ध्यान और ब्रह्मचर्य के द्वारा उस ब्रह्मज्ञान को प्राप्त करना होगा। सत्यमेव जयते नानृतम, सत्यनैव पन्था वितता देवयान:। सत्य की जय होती है, मिथ्या की जय कभी भी नहीं होती। सत्य के भीतर से ही ब्रह्मलाभ का एकमात्र मार्ग रहता है; केवल वहीं प्रेम और सत्य वर्तमान हैं।

११ जुलाई , बृहस्पतिवार

माता के प्रेम के बिना कोई भी सृष्टि स्थायी नहीं हो सकती। जगत का कोई भी पदार्थ न संपूर्ण जड़ है और न संपूर्ण चित् ही है। जड़ और चित् परस्पर सापेक्ष हैं-एक के द्वारा ही दूसरे की व्याख्या होती है। इन दृश्य जगत की एक भित्ति है-इस विषय में सभी आस्तिक एकमत हैं, केवल उस भित्तिस्थानीय वस्तु की प्रकृति या स्वरूप के संबंध में ही उसका मतभेद है। जगत की इस प्रकार की कोई भित्ति है; यह जड़वादी स्वीकार नहीं करते। सभी धर्मों में ज्ञानातीत या तुरीय अवस्था एक है। देहज्ञान का अतिक्रमण करने पर हिंदू, ईसाई, मुसलमान, बुद्ध, इतना ही नहीं, जो लोग किसी प्रकार का धर्ममत स्वीकार नहीं करते, सभी को ठीक एक ही प्रकार की अनुभूति होती है।

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ईसा के देह-त्याग के पच्चीस वर्ष बाद उसके शिष्य थॉमस द्वारा संसार में सबसे विशुद्ध ईसाई संप्रदाय भारत में स्थापित हुआ था। एंगलो-सैक्सन उस समय भी असभ्या थे। वे शरीर को चित्र-विचित्र ढंग से रंगते थे और पर्वतों की गुफाओं में निवास करते थे। एक समय भारत में प्राय: तीस लाख ईसाई थे, किंतु इस समय उनकी संख्या कई दस लाख होगी।

ईसाई धर्म सर्वदा ही तलवार के बल से प्रचारित हुआ है। कैसा आश्चर्य है, ईसा के समान कोमल ह्रदय महापुरुष के शिष्यों ने इतनी नरहत्या की ! बुद्ध, मुसलमान और ईसाई ये तीनों धर्म जगत में प्रचारशील धर्म हैं। इनके पूर्ववर्ती तीन धर्मों ने-हिंदू, यहूदी और जरथुस्त्री (पारसी धर्म) -कभी भी दूसरों को अपना धर्म ग्रहण करने की चेष्टा नहीं की, लोगों ने कभी भी नरहत्या नहीं की, तो भी वे लोग केवल अपने नम्र व्यवहार के द्वारा एक समय संसार के तीन चौथाई लोगों को अपने मत में ले आए थे।

बौद्ध लोग सर्वापेक्षा तर्कसंगत अज्ञेयवादी थे। वास्तव में शून्यवाद तथा अद्वैतवाद, इन दोनों के बीच में तुम कहीं भी ठहर नहीं सकते। बौद्धों ने विचारों के द्वारा सब कुछ खंडित कर दिया था-वे लोग अपने मत को युक्ति के द्वारा जितनी दूर ले जा सकते थे, उतनी दूर ले गए। अद्वैतवाद भी अपने मत को युक्त की चरम सीमा तक ले गए थे और उस एक अखंड, अद्वय ब्रह्मवस्तु में पहुँचे थे, जिससे समुदय जगत्प्रपंच व्यक्त हो रहा है। बौद्ध और अद्वैतवाद दोनों को एक ही समय में अभिन्नता और भिन्नता का बोध होता है। इन दोनों अनुभूतियों में एक सत्य दूसरी मिथ्या अवश्य ही होगी। शून्यवादी कहते हैं, भिन्नता सत्य है; अद्वैतवाद कहते हैं, एकत्वबोध ही सत्य है; संपूर्ण जगत में यही विवाद चल रहा है। इसीको लेकर रस्साकशी हो रही है।

अद्वैतवादी पूछते हैं, 'शून्यवादी एकत्व का भाव कहाँ और कैसे पाते हैं ?' घूमती हुई मशाल उन्हें एक वृत्त के रूप में कैसे प्रतीत होती है ? स्थित का एक बिंदु स्वीकार किए बिना गति की व्याख्या कैसे हो सकती है ? सभी वस्तुओं के पीछे एक अखंड सत्ता प्रतीयमान हो रही है; उसे शून्यवादी भ्रम मात्र कहते हैं, किंतु इस भ्रमोत्पत्ति का कारण क्या है, इसकी व्याख्या वे किसी भी तरह नहीं कर पाते। इसी तरह अद्वैतवादी भी यह नहीं समझा पाते कि एक अनेक कैसे हुआ। इसकी व्याख्या एकमात्र पंचेंद्रियातीत अवस्था में पहुँचने पर ही प्राप्त हो सकती है। हमें तुरीय भूमि मैं उठना होगा, संपूर्ण रूप से अतींद्रिय अवस्था में पहुँचना होगा। उक्त अवस्था में जाने की अतींद्रिय शक्ति एक ऐसा यंत्र है जिसका व्यवहार केवल प्रत्ययवादी ही कर सकता है। वह ब्रह्म की सत्ता का अनुभव करने में समर्थ है; विवेकानंद नाम का मनुष्य स्वयं को ब्रह्मसत्ता में परिणत कर सकता है और उस अवस्था से मानवीय अवस्था में लौट आ सकता है। अतएव उसके लिए जगत्समस्या का समाधान हो गया है। और गौण रूप से दूसरों के लिए भी; क्योंकि वह दूसरों को उस अवस्था में पहुँचने का मार्ग दिखला सकता है। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि जहाँ दर्शन की समाप्ति होती है, वहाँ धर्म का आरंभ होता है। और इस प्रकार की उपलब्धि के द्वारा जगत का कल्याण यह होगा कि इस समय जो ज्ञानातीत है, वह बाद में सर्वसाधारण के लिए ज्ञानगम्य हो जाएगा। इसलिए जगत में धर्मलाभ ही सर्वश्रेष्ठ कार्य है; और मनुष्य अज्ञात रूप में इसका अनुभव करता है, इसीलिए वह सदा धर्म-भाव का आश्रय लेकर चलता है।

धर्म बहुपयस्विनी गौ के सदृश है; वह बहुत लात मारती है, किंतु उससे क्या ? वह दूध भी बहुत देती है। जो गाय दूध देती है, ग्वाला उसकी लात सहता जाता है। महमोह और विवेक नामक दो राजाओं में लड़ाई छिड़ी। विवेक राजा हारने वाला ही था कि उसने उपनिषद रानी से समझौता कर लिया और उनसे प्रबोधरूपी (धर्मसाक्षात्कार) पुत्र उत्पन्न हुआ, जिसने उसकी विजय की रक्षा की। हमें प्रबोध या धर्मसाक्षात्कार रूपी महैश्वर्यवान् पुत्र लाभ करना होगा। इस धर्म रूपी पुत्र को खिला-पिलाकर बड़ा करना होगा; ऐसा करने से वह महान् वीर हो जाएगा।

भक्ति या प्रेम के द्वारा चेष्टा किए बिना ही मनुष्य की समुदय इच्छा-शक्ति एकमुखी हो जाती है-स्त्री-पुरुष का प्रेम ही इसमें दृष्टांत है।

भक्ति स्वाभाविक सुखकर पाठ है। दर्शन एक प्रबल वेगवती पर्वतीय नदी को बलपूर्वक ठेलकर उसके उद्गम-स्थान की ओर ले जाने के सदृश है। वह द्रुततार है, किंतु विशेष कठिन भी है। दर्शन कहता है, 'समुदय प्रवृत्ति का निरोध करो।' भक्तिमार्ग कहता है, 'सब कुछ धारा में बहा दो, सदा के लिए संपूर्ण आत्मसमर्पण कर दो।' यह मार्ग लंबा तो है, किंतु अपेक्षाकृत सरल और सुखकर है।

भक्त कहता है-"प्रभो, सदा के लिए मैं तुम्हारा हूँ। मैं जो सोचता हूँ कि मैं ही कार्य कर रहा हूँ, वह वास्तव में तुम से ही हो रहा है-और 'मैं या मेरा' केवल भ्रम मात्र है।"

"हे प्रभो, मेरे धन नहीं है कि मैं दान करूँ; मेरी बुद्धि नहीं है जो मैं शास्त्राध्ययन करूँ; मुझे समय नहीं है जो मैं योगाभ्यास करूं; हे प्रेममय ! इसीलिए मैंने अपना देह-मन सभी कुछ तुम्हें अर्पण कर दिया।"

कितना ही अज्ञान या भ्रांत धारणा क्यों न हो, वह जीवात्मा और परमात्मा के बीज व्यवधान उपस्थित नहीं कर सकता। ईश्वर नामक यदि कोई न भी हो तो भी प्रेम के भाव को दृढ़तापूर्वक पकड़े रहो। कुत्ते के समान सड़े मुर्दे को खोजते-खोजते मरने की अपेक्षा ईश्वर को खोजते खोजते मरना कहीं अधिक अच्छा है। सर्वश्रेष्ठ आदर्श को चुन लो और उसकी सिद्धि के लिए अपना संपूर्ण जीवन लगा दो। मृत्यु जब इतनी निश्चित है, तब एक महान् उद्देश्य के लिए जीवनपात करने की अपेक्षा अन्य कोई बात अधिक श्रेष्ठ नहीं है-सन्निमित्ते वरं त्यागो विनाशे नियते सति।

प्रेम के द्वारा बिना किसी क्लेश के ही ज्ञानलाभ होता है-इस ज्ञान के बाद पराभक्ति आती है।

ज्ञान समीक्षा-प्रिय होता है और हर विषय को लेकर हल्ला मचाता रहता है; किंतु प्रेम कहता है, 'ईश्वर अपना यथार्थ स्वरूप मेरे सम्मुख प्रकट करेंगे'; और वह सब कुछ स्वीकार कर लेता है।

रबिया

रबिया रोग से हो मुह्ममान

निज शय्या पर सोई अजान,

ऐसे समय में निकट उसके

आगमन हुआ दो महात्माओं का,--

पवित्र मलिक, ज्ञानी वे हसन,

पूजते जिनको सब मुसलमान

बोले हसन संबोधित कर उसे,

"पवित्र भाव से प्रार्थना जो करता है,

जो दंड ईश्वर देता है उसे,

सहिष्णुता-बल से वहन करता है"

पवित्र मालिक जो थे गंभीरात्मा,

वे बोले अपने अनुभव-वाणी,

"प्रभु की हो इच्छा प्रिय जिसे,

आनंद होगा दंड में उसे "

रबिया सुनकर दोनों साधु-वाणी,

स्वार्थगंध है शेष समझ उसमें,

बोली, "है ईश-कृपा के भजन,

दोनों के प्रति करती हूँ एक निवेदन-

जो जन देखता प्रभु का आनन

आनन्द-पयोधि में वह होगा मगन।

प्रार्थना समय मन में उसके

उठेगा नहीं कभी ऐसा विचार-

दंड पाया मैंने किसी समय;

जानेगा कभी नहीं दंड किसको कहते।

(ईरानी कविता)

१२ जुलाई , शुक्रवार

(आज वेदांत-सूत्र के शंकर-भाष्य पर प्रवचन हुआ।)

तत्तु समन्वयात्

(व्याससूत्र १।१।४)

आत्मा अथवा ब्रह्म ही समग्र वेदांत के प्रतिपाद्य हैं।

ईश्वर को वेदांत के द्वारा जानना होगा। समग्र वेद ही जगत्कारण सृष्टिस्थिति-प्रलयकर्ता ईश्वर का वर्णन करते हैं। समस्त हिंदू देव-देवियों के ऊपर ब्रह्मा, विष्णु और शिव ये तीन देवता हैं। ईश्वर इन तीनों का एकीभाव है। 'तू हमारा पिता है जो हमें अंध महासागर के दूसरे तट पर ले जाता है।'

वेद तुम्हें ब्रह्म को दिखला नहीं सकते, वह तो तुम हो ही। वेद केवल इतना ही कर सकते हैं कि जिस आवरण ने हमारे नेत्र के सामने से सत्य को छिपा रखा है, उसे हटाने में सहायता करें। पहले चला जाता है अज्ञानावरण, उसके बाद जाता है पाप और उसके बाद वासना और स्वार्थपरता दूर होती है-अतएव सभी क्लेशों का अवसान हो जाता है। इन अज्ञान का तिरोभाव तभी हो सकता है, जब हम यह जान लें कि ब्रह्म और 'मैं' एक ही हैं; अर्थात् स्वयं को आत्मा के साथ अभिन्न कर लें, मानवीय उपाधियों के साथ नहीं। देहात्मबुद्धि दूर कर दो, ऐसा करते ही सारे दु:ख-क्लेश दूर हो जाएंगे। मनोबल से रोग दूर कर देने का यही रहस्य है। यह जगत् सम्मोहन का एक व्यापार है; अपने ऊपर से सम्मोहन के इस प्रभाव को दूर कर दो, ऐसा करने पर तुम्हारे लिए फिर कोई कष्ट ना रहेगा।

मुक्त होने के लिए पहले पाप त्यागकर पुण्योपार्जन करना होगा, उसके बाद पाप-पुण्य दोनों को ही छोड़ना होगा। पहले रजोगुण के द्वारा तमोगुण को जीतना होगा, बाद में दोनों को ही सत्व गुण विलीन करना होगा-अंत में इन तीनों गुणों के पर जाना होगा। इस प्रकार की एक अवस्था प्राप्त करो, जहाँ तुम्हारा प्रत्येक श्वास-प्रश्वास उनकी उपासनास्वरूप हो जाए।

जब कभी देखो कि दूसरों की बातों से तुम कुछ शिक्षा प्राप्त करते हो तो समझ लो कि पूर्व जन्म में उस विषय की तुम्हें अनुभूति प्राप्त हुई थी; क्योंकि अनुभूति ही हमारी एकमात्र शिक्षक है।

जितनी क्षमता प्राप्त होगी, उतना ही दु:ख बढ़ेगा, इसलिए वासना का पूर्ण रूप से नाश कर डालो। किसी भी तरह की वासना करना मानो बर्रे के छत्ते को लकड़ी से कोंचने के समान है और वासनाएँ तो मानो सोने सोने के पत्ते से आवृत विष की गोलियों के समान है। यही जानना वैराग्य है।

'मन ब्रह्म नहीं है।' तत्वमसि-'तुम वह हो', अहं ब्रह्मास्मि-'मैं ब्रह्मा हूँ'। जब मनुष्य यह उपलब्धि कर लेता है, तब भिद्यते हृदयग्रंथिश्छिद्यान्ते सर्व संशया: -उसकी समग्र हृदयग्रंथि कट जाती है, सभी संशय छिन्न हो जाते हैं। जब तक हमारे ऊपर कोई भी-हमसे भिन्न कोई भी-यहाँ तक कि ईश्वर भी-रहेगा, तब तक अभय अवस्था प्राप्त नहीं हो सकती। हमें वही ईश्वर या ब्रह्मा हो जाना होगा। यदि ऐसी कोई वस्तु है, जो ब्रह्म से पृथक् है तो वह चिर काल तक ब्रह्म से पृथक रहेगी; यदि तुम स्वरूपत: ब्रह्म से पृथक हो तो तुम कभी भी उसके साथ एक नहीं हो सकते; और इसके विरुद्ध यदि तुम एक हो तो कभी भी पृथक् नहीं रह सकते। यदि पुण्यबल से ही तुम्हारा ब्रह्म के साथ योग होता है तो फिर पुण्यक्षय होते ही वियोग भी होगा। असली बात यह है कि ब्रह्म के साथ तुम्हारा नित्य योग रखता है--पुण्य कर्म तो केवल आवरण दूर करने में सहायक मात्र है। हम आजाद अर्थात मुक्त हैं-हमें यही उपलब्धि करनी होगी। यमेवैष वृणुते-'जिसे यह आत्मावरण करती है', इसका तात्पर्य है-हम ही आत्मा हैं और हम अपने को ही वर्णन करते हैं। प्रश्न है कि ब्रह्मदर्शन हमारी अपनी चेष्टा पर निर्भर है अथवा बाहरी किसी की सहायता के ऊपर ? असल में वह हमारी अपनी चेष्टा के ऊपर ही निर्भर है। हमारी चेष्टा के द्वारा दर्पण के ऊपर जो धूल जमी रहती है वह हटायी जाती है और वह पहले के सदृश स्वच्छ हो जाता है। ज्ञाता, ज्ञान और ज्ञेय-इन तीनों का वास्तव में अस्तित्व नहीं है। जो जानता है कि 'मैं नहीं जानता', वही ठीक जानता है। जो किसी सिद्धांत पर अवलंबित होकर बैठे हैं, वे कुछ भी नहीं जानते।

हम बद्ध हैं, यह धारणा ही भूल है।

धर्म इस जगत् की वस्तु नहीं है; धर्म है चित्तशुद्धि का व्यापार; इस जगत् के ऊपर इसका प्रभाव गौण मात्र है। मुक्ति आत्मा को स्वरूप से अभिन्न है। आत्मा सदा सदा शुद्ध, सदा पूर्ण, सदा अपरिणामी है। इस आत्मा को तुम कभी भी नहीं जान सकते। हम इस आत्मा के संबंध में 'नेति नेति' छोड़कर और कुछ भी नहीं कह पाते। शंकर कहते हैं, 'जिसे हम मन या कल्पना की समस्त शक्ति का प्रयोग करने पर भी हटा नहीं सकते, वहीं ब्रह्म है।'

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यह जगत्प्रपंच भाव मात्र है और वेद इस भाव को प्रकाशित करनेवाली शब्दराशि है। हम इच्छानुरूप इस जगत्प्रपंच की सृष्टि कर सकते हैं और पुनः उच्चारण से उसका अव्यक्त भाव जाग्रत होता है और फलस्वरूप एक व्यक्त कार्य उत्पन्न होता है। वे कहते हैं, हममें से प्रत्येक व्यक्ति एक एक सृष्टिकर्ता है। शब्द विशेष का उच्चारण करते ही तत्संश्लिष्ट भाव उत्पन्न होगा और उसका फल दिखाई पड़ेगा। मीमांसक संप्रदाय कहता है, 'भाव है शब्द की शक्ति और शब्द है भाव की अभिव्यक्ति।'

१३ जुलाई , शनिवार

हम जो कुछ जानते हैं वह मिश्रण-स्वरूप है, और हमारा ऐन्द्रिक ज्ञान विश्लेषण से ही आता है। मन को अमिश्र, स्वतंत्र या स्वाधीन वस्तु समझना द्वैतवाद है। केवल शास्त्र या पुस्तक पढ़ने से दार्शनिक ज्ञान या तत्व ज्ञान नहीं होता, वरन् जितनी पुस्तकें पढ़ोगे मन उतना ही उलझता जाएगा। अविचारशील दार्शनिकों के मत में मन एक अमिश्र वस्तु है -और उसी से वे 'स्वाधीन इच्छा' में विश्वास करते थे। किंतु मनोविज्ञान-शास्त्र मन का विश्लेषण करके यह बता चुका है कि मन एक मिश्रित वस्तु है; और चूँकि प्रत्येक मिश्र वस्तु किसी न किसी वाह्य शक्तिबल के आधार पर अवलंबित है, अतः इच्छा भी बहि:स्थ शक्तिसमूह के संयोग पर अवलंबित रहती है। जब तक मनुष्य को भूख नहीं लगती, तब तक वह खाने की इच्छा भी नहीं कर सकता। इच्छा या संकल्प, वासना के अधीन है। किंतु तो भी हम स्वाधीन या मुक्तस्वभाव हैं-सभी ऐसा अनुभव करते हैं।

अज्ञेयवादी कहते हैं, यह धारणा भ्रम मात्र है। तब जगत का अस्तित्व कैसे सिद्ध हो सकेगा ? इसका प्रमाण केवल यही है कि हम सभी लोग जगत् देखते हैं और उसके अस्तित्व का अनुभव करते हैं। तो फिर हम सभी अपने अपने को जो मुक्तस्वभाव अनुभव करते हैं, यह अनुभव भी यथार्थ क्यों न होगा, और चूँकि सभी अनुभव करते हैं, इसलिए जगत् का अस्तित्व स्वीकार किया जाता है; और जब सभी अपने को मुक्तस्वभाव या स्वाधीन प्रकृति अनुभव करते हैं, तो उसका भी अस्तित्व स्वीकृत करना पड़ेगा। परंतु इच्छा को हम जिस प्रकार देखते हैं, उसके संबंध में 'स्वाधीन' शब्द का प्रयोग नहीं किया जा सकता। अपने मुक्तस्वभाव के संबंध में मनुष्य का यह स्वाभाविक विश्वास ही समुदाय तर्क-युक्ति और विचार की भित्ति है। 'इच्छा' बद्धभावपन्ना होने के पहले जैसी थी, वही मुक्तस्वभाव है। मनुष्य में जो स्वाधीन इच्छा की प्रवृत्ति है, उसी से प्रतिक्षण सिद्ध होता है कि मनुष्य स्वभावत: ही बंधन काटने की चेष्टा कर रहा है। वास्तव में मुक्तस्वभाव ही अनंत, असीम और देश-काल-निमित्त से अतीत हो सकता है। मनुष्य के भीतर अभी जो स्वाधीनता है, वह एक पूर्ण स्मृति मात्र है, स्वाधीनता या मुक्त-लाभ की चेष्टा मात्र है।

संसार के सभी पदार्थ मानो घूमकर एक वेत्त पूर्ण करने की, अपने उत्पत्तिस्थान में जाने की, अपने एकमात्र यथार्थ उत्पत्ति-स्थान आत्मा में जाने की चेष्टा कर रहे हैं। सुख का अन्वेषण खोए हुए साम्य भाव को फिर से पाने की चेष्टा मात्र है। नैतिकता भी बद्धभावापन्न इच्छा की मुक्ति होने की चेष्टा है और इस प्रकार की चेष्टा का होना ही इस बात का प्रमाण है कि हम पूर्णावस्था से प्रसूत हुए हैं।

कर्तव्य की धारणा प्रत्येक आत्मा को दग्ध करनेवाला क्लेश का मध्याह्न मार्तंड है। 'हे राजन्, इस एक बूँद अमृत को पिओ और सुखी होओ।' ('मैं कर्ता नहीं हूँ', यह धारणा ही अमृत है)।

कार्य होने दो, किंतु उसकी प्रतिक्रिया नहीं। कार्य से कार्य से सुख होता है, किंतु समुदय दु:ख प्रतिक्रिया का फल है। शिशु आग में हाथ डालता है-उसके सुख के लिए; किंतु जब उसका शरीर प्रतिक्रिया करता है, तभी उसको जलने के कष्ट का अनुभव होने लगता है। हम यदि प्रतिक्रिया को बंद कर दे, तो फिर हमारे लिए भय का कुछ भी कारण न रहेगा। मस्तिष्क को अपने वश में रखो, जिससे वह प्रतिक्रिया की खबर ही न रख सके। साक्षिस्वरूप बनो, देखो, जिससे प्रतिक्रिया न आने पावे, केवल इतना ही होने से तुम सुखी हो जाओगे। हमारे जीवन का प्रत्येक जीवन का सबसे सुखकर क्षण वही होगा, जब हम स्वयं को बिल्कुल भूल जाएंगे। स्वाधीन भाव से जी खोलकर काम करो, कर्तव्य के भाव से काम मत करो। हमारा कर्तव्य कुछ भी नहीं है। यह जगत् तो खेल का एक अखाड़ा है-हम यहाँ खेलते हैं; हमारा जीवन तो अनंत अवकाश है।

जीवन का समस्त रहस्य है भयरहित होना। तुम्हारा क्या होगा, इस भय को छोड़ दो, किसी के ऊपर निर्भर मत रहो। जिस क्षण तुम समस्त सहायता अस्वीकार कर दोगे, तुम मुक्त हो जाओगे। जो स्पंज पूरा जल सोख लेता है, वह फिर और अधिक जल ग्रहण नहीं कर सकता।

आत्मरक्षा के लिए भी युद्ध करना गलत है, परंतु दूसरों पर आक्रमण करने की अपेक्षा यह अधिक अच्छा है। 'न्याय्य क्रोध' नाम की कोई वस्तु नहीं है, क्योंकि सभी वस्तुओं में समत्व बुद्धि के अभाव से ही क्रोध आता है।

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14 जुलाई रविवार

भारत में दर्शन शास्त्र का अर्थ है, वह शास्त्र या विद्या जिसके द्वारा हम ईश्वर का साक्षात्कार कर सकते हैं। दर्शन धर्म की युक्ति-संगत व्याख्या है। इसलिए कोई हिंदू कभी भी धर्म और दर्शन के बीच क्या संबंध है, यह जानना नहीं चाहता।

दार्शनिक प्रक्रिया के तीन सोपान है:-प्रथम, स्थूल (concrete); द्वितीय, सामान्यीकृत (generalized); तृतीय, अगूर्त (abstract)। सर्वोच्च अमूर्तिकरण जिसमें समस्त पदार्थ एकत्व प्राप्त करते हैं, अद्वितीय ब्रह्म है। धर्म की प्रथम अवस्था में प्रतीक या रूपविशेष, द्वितीय अवस्था में पौराणिक वर्णन, और अंतिम अवस्था में दर्शन होते हैं। इन तीनों में प्रथम और द्वितीय केवल सामयिक प्रयोजन के लिए हैं, किंतु दर्शन की इन सबकी मूल भित्तिस्वरूप है; और दूसरे सभी उस चरम तत्व में पहुँचने के लिए सोपानस्वरूप हैं।

पाश्चात्य देशों में धर्म की धारणा यह है कि बाइबिल के नए व्यवस्थान और ईसा के बिना धर्म हो ही नहीं सकता। यहूदियों के धर्म में भी मूसा और पैगंबरों आदि के संबंध में इसी प्रकार की धारणा है। इस धारणा का कारण यही है कि ये सब धर्म केवल पौराणिक वर्णन के ऊपर निर्भर हैं। यथार्थ सर्वोच्च धर्म वह है, जो इन सभी पौराणिक वर्णनों के परे है, ऐसा धर्म कभी केवल इन्हीं सब पर निर्भर नहीं हो सकता। आधुनिक विज्ञान वास्तव में धर्म की भित्ति को और भी दृढ़ बनाता है। समुदय ब्रह्मांड एक अखंड वस्तु है, यह विज्ञान के द्वारा प्रमाणित किया जा सकता है। दार्शनिक जिसे सत् कहते हैं, वैज्ञानिक उसी को जड़ कहते हैं; किंतु ठीक ठीक देखने पर इन दोनों के बीच कोई विरोध नहीं है, क्योंकि दोनों ही एक हैं। देखो, परमाणु अदृश्य और अचिंत्य हैं, तो भी उनमें ब्रह्मांड की समस्त शक्ति और सामर्थ्य रहती है। वेदांत भी आत्मा के संबंध में ठीक यही कहते हैं। वास्तव में सभी संप्रदाय भिन्न-भिन्न भाषाओं में वही एक बात कहते हैं।

वेदांत और आधुनिक विज्ञान दोनों ही जगत् की कारणस्वरूप एक ऐसी वस्तु का निर्देश करते हैं, जिससे अन्य किसी की सहायता के बिना जगत् का प्रकाश होता है। समस्त कारण स्वयं उसी में है। जैसे कुम्हार मिट्टी से घट का निर्माण करता है; यहाँ कुम्हार होता है निमित्त-कारण, मिट्टी होती है समावायी उपादान-कारण और कुम्हार का चक्र होता है असमवायी उपादान-कारण। किंतु आत्मा ही ये तीनों कारण है। आत्मा कारण भी है और अभिव्यक्ति या कार्य भी है। वेदांती कहते हैं, यह जगत सत्य नहीं है, यह तो आपातप्रतीयमान सत्ता मात्र है। प्रकृति आदि कुछ भी नहीं है, अविद्यारूपी आवरण में से एकमात्र ब्रह्म ही प्रकाशित है। विशिष्टाद्वैतवादी करते हैं, ईश्वर ही प्रकृति या जगत्प्रपंच हुआ है; अद्वैतवादी स्वीकार करते हैं, ईश्वर इस जगत्प्रपंच के रूप में प्रतीयमान होता है अवश्य, किंतु वह यह जगत् नहीं है।

हम अनुभूति को एक मानसिक प्रक्रिया के रूप में, एक मानसिक घटना रूप में एवं मस्तिष्क के भीतर एक चिह्न के रूप में जान सकते हैं। हम मस्तिष्क को आगे या पीछे ठेल नहीं सकते, किंतु मन को चला सकते हैं। मन को भूत, भविष्यत्, वर्तमान-इन तीनों कालों में प्रसारित किया जा सकता है। इसलिए मन के भीतर जो जो घटनाएँ घटित हो हैं। वे अनंत काल के लिए संचित् रहती हैं। मन के भीतर सभी घटनाएँ पहले से ही संस्कार के रूप में रहती हैं; क्योंकि मन सर्वव्यापी है।

कांट की महान उपलब्धि यह खोज थी कि देश-काल निमित्त विचार की ही प्रणाली विशेष है-यह अविष्कार कांट एक का एक श्रेष्ठ कार्य है। किंतु वेदांत बहुत पहले ही यही शिक्षा दे चुका है, और वह इसे माया नाम से संबोधित करता है। शापेनहॉवर केवल बुद्धि का आश्रय लेते हैं और वेदोक्त तत्वों को ही तर्कसम्मत सिद्ध करने की चेष्टा जैसी की है। शंकर ने वेदों की सनातनाता में विश्वास बनाए रखा।

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अनेक वृक्ष देखने पर उनके साधारण धर्म वृक्षत्व के आविष्कार का नाम ही ज्ञान है। और सर्वोच्च ज्ञान है उसी एकमेवाद्वितीय वस्तु का ज्ञान।

सगुण ईश्वर जगत् का अंतिम सामान्य भाव है; केवल वह अस्पष्ट है, एवं सुनिर्दिष्ट और दार्शनिक विचारसम्मत नहीं।

एकत्व अपनी अभिव्यक्ति स्वयं करता है, उसी से सब कुछ निकलता है।

भौतिक विज्ञान का कार्य तथ्यों का आविष्कार है, और दर्शन मानव फूलों का गुलदस्ता बाँधने का एक सूत्र है। प्रत्येक अमूर्तीकरण तात्त्विक होता है। किसी पौधे की जड़ में खाद देने का क्रिया तक में इस प्रकार एक अमूर्तीकरण की प्रक्रिया (process of abstraction) निहित है।

धर्म के भीतर स्थूल तथा अपेक्षाकृत सूक्ष्म तत्व और चरम एकत्व-ये तीन भाव हैं। केवल स्थूल या विशेष को लेकर ही मत पड़े रहो। उस चरम सूक्ष्म तत्व में, उस एकत्व को प्राप्त करो।

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असुर तमस् के यंत्र हैं, देवता प्रकाश के; किंतु यंत्र दोनों ही हैं। केवल मनुष्य ही जीवंत है। यंत्र तोड़ दो, संतुलन प्राप्त करो, तभी मुक्त हो सकते हो। यह पृथिवी ही एकमात्र स्थान है, जहाँ मनुष्य मुक्ति लाभ कर सकता है।

यमेवैष वृणुते तेन लभ्यः अर्थात 'यह आत्मा जिसका वरण करती है'-यह बात सत्य है। वरण सत्य है, किंतु अभ्यंतर की ओर से इसका अर्थ करना होगा। एक बाह्यपरक और प्रारब्धवादी सिद्धांत के रूप में वह भीषण सिद्धांत है।

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१५ जुलाई , सोमवार

जहाँ बहुपतित्व प्रथा प्रचलित है, जैसे कि तिब्बत में, वहाँ स्त्रियाँ शरीर से पुरुषों की अपेक्षा अधिक बलवती होती हैं। जब अंग्रेज वहाँ जाते हैं, तब ये स्त्रियाँ भारी भारी पुरुषों को अपनी पीठ पर चढ़ाकर पर्वतों पर ले जाती हैं।

मलाबार देश में बहुपतित्व नहीं होता, किंतु वहाँ सभी विषयों में स्त्रियों का प्राधान्य है। वहाँ सर्वत्र ही विशेष रूप से स्वच्छता की ओर दृष्टि रखी जाती है, और विद्या-चर्चा में भी अत्यधिक उत्साह है। मैं जब इस प्रदेश में गया, तब मैंने अनेक स्त्रियों को देखा, जो उत्तम संस्कृत बोल सकती थीं, किंतु भारत में अन्यत्र दस लाख में भी एक स्त्री संस्कृत नहीं बोल सकती। स्वाधीनता में उन्नति होती है, किंतु दासता से तो अवनति ही होती है। पुर्तगीज या मुसलमान कभी भी मलाबार को जीत नहीं पाए।

द्रविड़ लोग मध्य-एशिया कि एक अनार्य जाति के हैं-आर्यों से पहले ही वे भारत में आए थे, और दक्षिणापथ के द्रविड़ लोग सर्वापेक्षा सभ्य थे, उनमें पुरुषों की अपेक्षा स्त्रियों की सामाजिक स्थिति उच्च थी। बाद में वे विभक्त हो गए, कुछ मिश्र में और कुछ बेबिलोनिया में चले गए, शेष भारत में ही रहे।

१६ जुलाई , मंगलवार

शंकर

'अदृश्य कारण' हमसे यज्ञयाग उपासना आदि करवाता है, उससे व्यक्ति फल उत्पन्न होता है। किंतु मुक्ति-लाभ करने के लिए हमें ब्रह्म के संबंध में पहले श्रवण, फिर मनन, उसके बाद निदिध्यासन करना होगा।

कर्म तथा ज्ञान के फल पूर्णतया पृथक् हैं। समस्त नैतिकता का मूल होता है-'यह करो' और 'यह मत करो', किंतु वास्तव में इनका देह और मन के साथ ही संबंध है। सुख और दु:ख इंद्रियों के साथ अविच्छिन्न रूप से संबंध रहते हैं, और सुख-दु:ख का भोग करने के लिए शरीर आवश्यक है। जिसका शरीर जितना श्रेष्ठ होगा, उसके धर्म या पुण्य का आदर्श भी उतना ही उच्चतर होगा-यह प्रणाली ब्रह्मा तक पर लागू है। किंतु सभी के शरीर है, और जब तक देह है, तब तक सुख-दु:ख रहेगा ही; केवल देहातीत या विदेह होने पर ही सुख-दु:ख का पूर्ण रूप से अतिक्रमण हो सकता है। शंकर कहते हैं, आत्मा विदेह है।

किसी विधि-निषेध के द्वारा मुक्ति लाभ नहीं हो सकता तुम सदा मुक्त ही हो। यदि तुम पहले से ही मुक्त न होते तो तुम्हें किसी भी तरह मुक्ति नहीं दी जा सकती। आत्मा स्वप्रकाश है। कार्य-कारण आत्मा को स्पर्श नहीं कर सकता-इस विदेह अवस्था का नाम ही मुक्ति है। ब्रह्म भूत, भविष्यत्, वर्तमान इन सबसे परे है। यदि मुक्ति किसी कर्म का फलस्वरूप होती तो उसका कोई मूल्य ही न होता, वह एक यौगिक वस्तु होती, इसलिए उसके भीतर बंधन का बीज निहित होता। यह मुक्ति ही आत्मा की एकमात्र नित्य संगी है, उसको प्राप्त नहीं किया जाता, वह तो आत्मा का यथार्थ स्वरूप है।

तब आत्मा के ऊपर जो आवरण पड़ा रहता है, उसीको हटाने के लिए-बंधन और भ्रम को दूर करने के लिए-कर्म और उपासना का प्रयोजन है। ये दोनों चीजें यद्यपि मुक्ति नहीं दे सकतीं, किंतु फिर भी हम यदि अपनी चेष्टा न करें तो हमारी आँखें नहीं खुलेंगी, और हम अपने स्वरूप को पहचान नहीं पाएंगे। शंकर आगे और भी कहते हैं, अद्वैतवाद ही वेद का गौरवमुकुटस्वरूप है; किंतु वेद के निम्न भागों का भी प्रयोजन है, क्योंकि वे हमें कर्म और उपासना का उपदेश देते हैं, और इनकी सहायता से भी अनेक लोग भगवान् के निकट पहुंचते हैं। फिर इस प्रकार के भी बहुत से व्यक्ति हो सकते हैं, जो केवल अद्वैतवाद की सहायता से ही उस अवस्था में पहुंच सकते हैं। अद्वैतवाद जिस अवस्था में ले जाता है, कर्म और उपासना भी उसी अवस्था से ले जाती हैं।

शास्त्र ब्रह्म के बारे में भी कुछ शिक्षा नहीं दे सकते, वे केवल अज्ञान दूर कर दे सकते हैं। उनका आर्य नकारात्मक (negative) है। शंकर की महान उपलब्धि यही है कि उन्होंने शास्त्र को भी स्वीकार किया है, और सबके सामने मुक्ति का मार्ग भी खोल दिया है। किंतु अंतत: है वह हम बाल की खाल की निकालना। पहले मनुष्य को एक स्थूल अवलंबन दो, बाद में उसे धीरे धीरे सर्वोच्च अवस्था में ले जाओ। विभिन्न प्रकार के धर्म यही चेष्टा करते हैं; इससे यही ज्ञात होता है कि ये सभी धर्म संसार में अभी भी क्यों विद्यमान है और प्रत्येक धर्म मनुष्य की उन्नति के लिए किस तरह किसी ना किसी अवस्था में उपयोगी है। शस्त्र जिस अविद्या को दूर करने के लिए प्रवृत्त हुए हैं, वे स्वयं उस अविद्या के अंतर्गत हैं। शास्त्र का कार्य है, ज्ञान के ऊपर जो अज्ञानरूपी आवरण पड़ गया है, उसे दूर करना। 'सत्य असत्य को दूर कर देगा।' तुम मुक्त ही हो, तुम्हें और कौन मुक्त करेगा ? जब तक तुम किसी संप्रदाय विशेष पर अवलंबित हो, तब तक तुमने ब्रह्म को नहीं प्राप्त किया है। 'जो मन में सोचते हैं, मैं जानता हूँ, वे नहीं जानते।' जो स्वयं ज्ञातास्वरूप हैं, उनको कौन जान सकता है ? दो वस्तुएँ हैं-एक ब्रह्म और दूसरा जगत्। उसमें ब्रह्म अपरिणामी है और जगत् परिणामी। जगत् अनंत काल से रहता आया है। जब तुम्हारा मन लगातार होनेवाले परिवर्तन को समझ नहीं पाता, तब तुम उसे अनंत कहते हो...। जगत् और ब्रह्म एक हैं अवश्य, किंतु एक ही समय तुम दो पदार्थों को देख नहीं सकते-एक पत्थर के ऊपर एक मूर्ति खुदी हुई है-जब तुम्हारा ध्यान पत्थर की ओर होगा तो खुदाई की ओर नहीं रहेगा और यदि खुदाई की ओर ध्यान दो, तो पत्थर का ध्यान नहीं रहेगा।

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तुम क्या एक क्षण भी अपने को स्थिर कर पाते हो ? सभी योगी कहते हैं-ऐसा कर सकना संभव है।

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सबसे बड़ा पाप है, अपने को दुर्बल समझना। तुमसे बड़ा और कोई नहीं है; सत्य मानो कि तुम ब्रह्मस्वरूप हो। जिस किसी वस्तु में तुम शक्ति का विकास देखते हो, वह शक्ति तुम्हारी दी हुई है। हम सूर्य, चंद्र, नक्षत्र, इतना ही नहीं, समस्त जगत्प्रपंच के ऊपर हैं। शिक्षा दो कि मनुष्य ब्रह्मस्वरुप है। अशुभ के अस्तित्व को अस्वीकार करो, उसकी सृष्टि अपनी ओर से मत करो। उठो और कहो, "मैं प्रभु हूँ, मैं सभी का प्रभु हूँ।" हमने ही श्रृंखला गढ़ी है, और केवल हम ही इसे तोड़ सकते हैं।

कोई भी कर्म तुम्हें मुक्ति नहीं दें सकता, केवल ज्ञान के द्वारा ही मुक्ति हो सकती है। ज्ञान अप्रतिरोधनीय है; मन उसे अंगीकार या अस्वीकार नहीं कर सकता। जब ज्ञानोदय होगा, तब मन को उसे ग्रहण करना ही होगा। अतएब यह ज्ञान-लाभ मन का कार्य नहीं है। किंतु मन में इस ज्ञान का प्रकाश होता अवश्य है।

कर्म और उपासना का फल इतना ही है कि वे तुम्हें अपने स्वरूप में फिर पहूँचा देते हैं। आत्मा देह है, यह सोचना बिल्कुल भ्रम है; अतएब हम इस शरीर में ही मुक्त हो सकते हैं। देह के साथ आत्मा का किंचित् सादृश्य नहीं है। माया का अर्थ 'कुछ नहीं' नहीं है, मिथ्या को सत्य कहकर ग्रहण करना ही माया का अर्थ है।

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१७ जुलाई , बुधवार

रामानुज जगत्प्रपंच को चित् (जीवात्मा या साधारण ज्ञान-भूमि), अचित् (जड़ प्रकृति या ज्ञान की अधोभूमि), एवं ईश्वर (ज्ञानातीत भूमि या तुरीय भूमि)-इन तीन भागों में विभक्त करते हैं। किंतु शंकर कहते हैं, चित् या जीवात्मा, एवं परमात्मा या ईश्वर एक ही वस्तु है। ब्रह्म सत्यस्वरूप, ज्ञानस्वरूप और अनंतस्वरूप है; ये सत्य, ज्ञान और अनंत उसके गुण नहीं हैं। ईश्वर का चिंतन करने के समय ही उनको विशिष्ट करना होता है; उनके संबंध में अधिक से अधिक ओम तत्सत् अर्थात् वह सत्तास्वरूप और अस्तित्वस्वरूप है, इतना ही कहा जा सकता है।

शंकर और भी पूछते हैं, तुम क्या सत्ता को अन्य सब वस्तुओं से पृथक् करके देख सकते हो ? दो वस्तुओं के बीच बैशिष्टय ज्ञान कहाँ पर होता है ?-इंद्रियों में ? नहीं, क्योंकि ऐसा होने पर तो सभी विषयों का ज्ञान एक ही प्रकार का होता। हमें विषय-ज्ञान एक के बाद एक के क्रम से होता है। एक वस्तु क्या है, यह जानने के साथ साथ, वह क्या नहीं है, यह भी तुम्हें जानना पड़ता है। दो वस्तुओं के बीच पार्थक्य आदि का ज्ञान हमारी स्मृति में ही अवस्थित है, और मस्तिष्क में जो संचित है, उसी के साथ तुलना करके हम यह सब जान सकते हैं। भेद, वस्तुओं के स्वरूप में नहीं रहता, वह तो हमारे मस्तिष्क में रहता है। बाहर एक अखंड वस्तु ही है, भेद केवल भीतर, हमारे मन में रहता है, अतएव बहुत्व का ज्ञान मन की ही सृष्टि है।

ये सभी विशेष या भेद गुण-पद-वाच्य होते हैं। वे पृथक् रहते हैं, फिर भी किसी अन्य वस्तु के साथ जड़ित रहते हैं। यह 'विशेष' या विभेद क्या है, हम निश्चित रूप से कह नहीं सकते। विभिन्न वस्तुओं के बारे में हम केवल उनकी सत्ता या अस्तित्व को ही देख तथा अनुभव कर पाते हैं। शेष जो कुछ है, सब हमारे ही भीतर है। किसी वस्तु की सत्ता के संबंध में ही हम नि:संशय प्रमाण पाते हैं। विशेष या भेद वास्तव में गौण सत्य है-जैसे रज्जु में सर्पज्ञान; क्योंकि इन सर्पज्ञान में भी सत्यता है-कारण अयथार्थ होने पर भी कुछ तो देखा ही जाता है। जब रज्जुज्ञान का लोप होता है, तभी सर्पज्ञान का आविर्भाव होता है, इसी तरह विपरीत क्रम से सर्पज्ञान के लोक होने पर रज्जुज्ञान का आविर्भाव होता है। किंतु तुम एक वस्तु देखते हो, इससे यह प्रमाणित नहीं होता कि अन्य वस्तु है ही नहीं। जगत् का ज्ञान ब्रह्मज्ञान का प्रतिबंधक-स्वरूप होकर उसे आच्छादित करके रखता है, उसे दूर करना होगा, किंतु उसका भी अस्तित्व है, यह स्वीकार करना ही होगा।

शंकर फिर कहते हैं कि अनुभूति (perception) ही अस्तित्व का चरम प्रमाण है। वह स्वयंज्योति एवं स्वयंप्रकाश है; क्योंकि इंद्रियज्ञान के परे जाने के लिए हमें उसकी आवश्यकता पड़ती ही है। अनुभूति किसी इंद्रिय या करण सापेक्ष नहीं है, वह पूर्णतया निरपेक्ष है। अनुभूति चेतना (consciousness) रहित नहीं हो सकती; वह स्वप्रकाश है और इस स्वप्रकाश के आंशिक प्रकाश को चेतना कहते हैं। किसी प्रकार की अनुभव-क्रिया चेतना-विहीन नहीं हो सकती, वास्तव में प्रत्येक अनुभव-क्रिया या स्वरूप ही चेतन होता है। सत्ता और अनुभव एक वस्तु है; एक साथ जुड़ी हुई दो पृथक् वस्तुएँ नहीं। और जिसका कोई कारण नहीं है, वही अनंत है, अतएव अनुभूति जब स्वयमेव अपना चरम प्रमाण है, तब वह भी अनंतस्वरूप है। और यह सर्वदा ही स्वसवेद्य है, एवं स्वयं ही अपना ज्ञाता है; यह मन का धर्म नहीं है, वरन् उसके रहने से ही मन रहता है। वह पूर्ण और एकमात्र ज्ञाता है, अतएव वास्तव में अनुभूति ही आत्मा है। अनुभूति ही स्वयं अनुभव करती है, किंतु आत्मा को ज्ञाता नहीं कहा जा सकता; क्योंकि उससे ज्ञानरूप क्रिया के कर्ता का बोध होता है। किंतु शंकर कहते हैं, आत्मा अहं नहीं है, क्योंकि उसमें 'मैं हूँ' यह भाव नहीं होता। हम उसी आत्मा के प्रतिबिंब मात्र हैं, और आत्मा तथा ब्रह्म एक हूँ।

जब तुम उस पूर्ण ब्रह्म के संबंध में कुछ कहते हो या सोचते हो, तब वह सब सापेक्षिक भाव से करना होता है, अतएव वहीं इन सब तार्किक युक्तियों का स्थान है। किंतु योगावस्था में अनुभूति और अपरोक्षानुभूति एक हो जाती है। रामानुज-व्याख्याता विशिष्टाद्वैतवाद आंशिक रूप में एकत्त्व दर्शन है; इसलिए वह भी उस अद्वैतावस्था का एक सोपान-स्वरूप है। 'विशिष्ट' का अर्थ ही है भेदयुक्त। 'प्रकृति' का अर्थ है जगत्, और उसका परिणाम सर्वदा होता रहता है। परिणामी विचार परिणामशील शब्दराशि के द्वारा अभिव्यक्त होकर कभी भी पूर्ण स्वरूप को प्रमाणित नहीं कर सकता। इस प्रकार तुम केवल एक ऐसी स्थिति में पहुंचते हो, जहाँ केवल कुछ गुण छूट जाते हैं, स्वयं ब्रह्म को नहीं प्राप्त करते। केवल शब्दगत एकत्व में परम अमूर्त प्राप्त होता है, चरम ऐक्य प्राप्त नहीं होता और उससे सापेक्षिक जगत् का विलोप-साधन भी नहीं होता।

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१८ जुलाई , बृहस्पतिवार

(आज का पाठ प्रधानत: सांख्य दर्शन के निष्कर्ष के विरुद्ध शंकराचार्य की युक्तियों पर था)।

सांख्यवादी कहते हैं, ज्ञान एक मिश्रित पदार्थ है और विश्लेषण करते करते अंत में हमें साक्षी पुरुष की प्राप्ति होती है। ये पुरुष संख्या में अनेक हैं; हममें से प्रत्येक ही एक एक पुरुष हैं। किंतु अद्वैत वेदांत इसके विरुद्ध कहता है कि पुरुष केवल एकमात्र हो सकता है; पुरुष में ज्ञान, अज्ञान अथवा अन्य कोई गुण या धर्म नहीं हो सकता, क्योंकि गुणों का अस्तित्व ही उसके बंधन का कारण होगा और अन्य में उन गुणों का लोप भी होगा। अतएव एक वस्तु अवश्य ही सभी प्रकार के गुणों से रहित है। इतना ही नहीं, ज्ञान भी उसमें नहीं रह सकता और वह जगत् या और किसीका कारण भी नहीं हो सकता। वेद कहते हैं, सदेव सौम्येदमग्र आसीदेकमेवाद्वितीयम् -'हे सौम्य, पहले वह एक अद्वितीय सत् ही था।'

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जहाँ सत्त्व गुण रहता है, वहीं ज्ञान देखा जाता है, इससे यह प्रमाणित नहीं होता कि सत्त्व ही ज्ञान की उत्पत्ति का कारण है। वरन् मानव के भीतर ज्ञान पहले से ही रहता है, सत्त्व के सान्निध्य से वह ज्ञान प्रकाशित मात्र होता है-ठीक उसी तरह जैसे अग्नि के समीप लोहे का एक गोला रखने पर अग्नि उस गोले के भीतर पहले से ही अव्यक्त हुए रूप में विद्यमान तेज को प्रकाशित करके उसे उत्तत्प कर देती है-उसके भीतर प्रवेश नहीं करती।

शंकर कहते हैं, ज्ञान बंधनस्वरूप नहीं है, क्योंकि वह ब्रह्म का स्वरूप हैं। जगत् व्यक्त अव्यक्त रूप में सर्वदा ही रहता है, अतएव एक ज्ञेय वस्तु सदैव विद्यमान रहती है। ज्ञान-बल-क्रिया ही ईश्वर है। ईश्वर को आकार की आवश्यकता नहीं है; जो ससीम है, उसके लिए उस अनंत ज्ञान को धारण करने के निमित्त एक प्रतिबंधक की अर्थात देह इंद्रिय आदि की आवश्यकता होती है, किंतु ईश्वर को इस प्रकार की सहायता की बिल्कुल ही आवश्यकता नहीं। वास्तव में केवल एक आत्मा ही है; विभिन्न लोकगामी आत्मा कोई नहीं है। पंच प्राण जहाँ पर एकीभूत होते हैं, उस देह के उस चेतन नियंता को ही जीवात्मा कहते हैं, किंतु वह जीवात्मा ही परमात्मा है, क्योंकि आत्मा ही सब कुछ है। तुम उसे जो अन्य रूप में समझते हो, वह भ्रांति तुम्हारी ही है, जीव में वह भ्रांति नहीं है। तुम्हीं ब्रह्म हो, फिर तुम अपने को अन्यथा जो कुछ समझते हो, वह तुम्हारी भूल है। कृष्ण को कृष्ण समझकर पूजा मत करो, कृष्ण में जो आत्मा है, उसकी उपासना करो। केवल आत्मा की उपासना से ही मुक्ति-लाभ होगा। यही नहीं, सगुन ईश्वर भी उसी आत्मा का विषयीकृत रूप है। शंकर कहते हैं, स्वरूपानुसंधानं भक्तिरित्यभिधीयते-'अपने स्वरुप के अनुसंधान को ही भक्ति कहते हैं।'

हम ईश्वर-प्राप्ति के लिए जिन विभिन्न उपायों का अवलंबन करते हैं, वे सब सत्य हैं। जैसे ध्रुव नक्षत्र दिखलाने के लिए आस-पास के नक्षत्रों की केवल सहायता ली जाती है, उसी तरह ये भी हैं।

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भगवद्गीता वेदांत का सर्वश्रेष्ठ प्रमाणभूत ग्रंथ है।

१९ जुलाई , शुक्रवार

जब तक मैं 'तुम' कहता हूँ, तब तक कोई एक भगवान् हमारी रक्षा करते हैं, यह कहने का हमें अधिकार है। जब तक हम कुछ अन्य को देखते हैं, तब तक उससे जो अनिवार्य सिद्धांत निकलते हैं, उन्हें भी ग्रहण करना होगा। 'मैं' और 'तुम' को स्वीकार करने पर हमें आदर्श रूप एक अन्य तीसरी वस्तु को स्वीकार करना होगा, जो इन दोनों के बीच स्थित है, और वही है ईश्वर जो त्रिकोण के शीर्ष बिंदुस्वरूप है। जैसे वाष्प पहले हिम, तब जल होता है और वही जल गंगा आदि अनेक नामों से प्रसिद्ध होता है। जब वाष्पावस्था है, तब उसे गंगा नहीं कहा जाता और जब जल है, तब उसे वाष्प नहीं कहा जाता। सृष्टि या परिणाम की धारणा के साथ इच्छा-शक्ति की धारणा अच्छेद्य भाव से जडित है। जब तक हम जगत् को गतिशील रूप में देखते हैं, तब तक उसके पृष्ठ-भाग में इच्छा-शक्ति का अस्तित्व हमें स्वीकार करना होता है। इंद्रियज्ञान संपूर्ण भ्रांति है, इसे भौतिक विज्ञान भी प्रमाणित करता है; हम किसी वस्तु को जिस प्रकार देखते हैं, सुनते हैं, स्पर्श, घ्राण या आस्वाद करते हैं, स्वरूपत: वह वैसे ही नहीं होती। विशेष विशेष प्रकार का स्पंदन विशेष विशेष प्रकार के फल को उत्पन्न करता है; और वे सब हमारी इंद्रियों के ऊपर क्रिया करते हैं; हम तो केवल सापेक्षिक सत्य जान सकते हैं।

सत्य के लिए संस्कृत शब्द है सत्। हमारी वर्तमान दृष्टि से यह जगत्प्रपंच इच्छा और ज्ञानशक्ति के प्रकाश के रूप में प्रतीत होता है। सगुण ईश्वर स्वयं अपने लिए उतना ही सत्य है, जितना हम अपने लिए, इससे अधिक नहीं। ईश्वर को भी उसी प्रकार साकार भाव में देखा जा सकता है, जैसे हमें देखा जा सकता है। जब तक हम मनुष्य हैं, तब तक हमें ईश्वर का प्रयोजन है; हम जब स्वयं ब्रह्मस्वरूप हो जाएँगे तब फिर हमें ईश्वर का प्रयोजन नहीं रह जाएगा। इसीलिए श्री रामकृष्ण उस जगत्जननी को अपने समीप सदा सर्वदा वर्तमान देखते थे-वे अपने आस-पास की अन्य सभी वस्तुओं की अपेक्षा उन्हें अधिक सत्य रूप में दिखते थे; किंतु समाधि-अवस्था में उन्हें आत्मा के अतिरिक्त और किसी वस्तु का अनुभव नहीं होता था। सगुण ईश्वर क्रमशः हमारी और अधिकाधिक आता-जाता है, अंत में वह मानो जाता है, उस समय न 'ईश्वर' रह जाता है, न 'अहं'। सब उसी आत्मा में लय हो जाता है।

हमारी यह चेतना एक बंधनस्वरूप है। सष्टि-रचनावाद बुद्धि को आकार का पूर्वगामी मानता है। किंतु बुद्धि यदि किसी का कारण है, तो वह भी उसी प्रकार अन्य किसीका कार्यस्वरूप भी है। इसीको कहते हैं माया। ईश्वर हमारी सृष्टि करता है और हम भी ईश्वर की सृष्टि करते हैं-यही है माया। यह चक्र अटूट है। मन देह को उत्पन्न करता है और मन को; अण्डा पक्षी को और पक्षी अंडे को; वृक्ष बीज को और जीव वृक्ष को। यह जगत्प्रपंच न संपूर्ण विषम है और न संपूर्ण सम ही। मनुष्य स्वाधीन है-उसे इन दोनों भावों के ऊपर उठना होगा। ये दोनों ही अपनी अपनी प्रकाश-भूमि में सत्य अवश्य हैं, किंतु उस यथार्थ सत्य को, उस सत् को प्राप्त करने के लिए, अस्तित्व, इच्छा, ज्ञान, करना, सुनना, चलना, फिरना आदि क्रियाओं के बारे में हमारी अभी जो कुछ धारणाएँ हैं, उन सबके परे हमें जाना होगा। वास्तव में जीवात्मा की व्यष्टिता नहीं है-वह तो मिश्र वस्तु है, इसलिए भविष्य में वह खण्ड खण्ड होकर नष्ट हो जाएगी। जिसका किसी भी प्रकार से विश्लेषण नहीं हो सकता, केवल वही वस्तु सहज, तात्विक है और वही सत्यस्वरूप, मुक्तस्वभाव, अमृत और आनंदस्वरूप है। इस भ्रमात्मक वैयक्तिकता की रक्षा की सारी चेष्टाएँ पाप हैं और इस वैयक्तिकता का नाश करने की समस्त चेष्टा ही धर्म या पुण्य है। इस जगत् में सभी व्यक्ति, कोई जान में, कोई अनजान में, इस वैयक्तिकता को नष्ट करने की चेष्टा करते हैं। समस्त नैतिकता (morality) की भित्ति है इस पार्थक्य अथवा भ्रमात्मक व्यक्तित्व को नष्ट करने की चेष्टा; क्योंकि यही सब प्रकार के पापों का मूल है। नैतिकता का अस्तित्व पहले ही से होता है, बाद में धर्म उसे विधिबद्ध मात्र कर देता है। प्रथमत: प्रथाएँ उत्पन्न होती हैं, आगे चलकर पुराण उसकी व्याख्या करते हैं। जब घटनाएँ घटती हैं, तब तो वे तर्क से उच्चतर किसी नियम से ही घटती हैं, तर्क का अविर्भाव बाद में होता है-उन्हें समझने के लिए। तर्क में कोई प्रेरक शक्ति नहीं है, वह तो मानो घटना घटित हो जाने के बाद जुगाली करने के समान है। तर्क तो मानव के कार्य-कलाप का एक इतिहासकार मात्र है।

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बुद्ध एक महान वेदांती थे, (क्योंकि बौद्ध धर्म वास्तव में वेदांत की शाखा मात्र है) और शंकर को भी कोई कोई प्रच्छन्न बुद्ध कहते हैं। बुद्ध ने विश्लेषण किया था-शंकर ने उन सबका संश्लेषण किया है। बुद्ध ने कभी भी वेद या जाति-भेद अथवा पुरोहित किंवा सामाजिक प्रथा किसी के सामने माथा नहीं नवाया। जहाँ तक तर्क-विचार चल सकता है, वहाँ तक निर्भीकता के साथ उन्होंने तर्क-विचार किया है। इस प्रकार का निर्भीक सत्यानुसंधान, प्राणिमात्र के प्रति इस प्रकार का प्रेम संसार में किसीने कभी भी नहीं देखा। बुद्ध धर्म-जगत् के वाशिंगटन थे, उन्होंने सिंहासन जीता था केवल जगत् को देने के लिए, जैसे वाशिंगटन ने अमरीकी जाति के लिए किया था। वे अपने लिए थोड़ी सी भी आकांक्षा न रखते थे।

20 जुलाई शनिवार

प्रत्यक्षानुभूति ही यथार्थ ज्ञान का यथार्थ धर्म है। अनंत युगों तक हम यदि धर्म के संबंध में केवल बातें ही करते रहें, तो उससे हमें कभी भी आत्मज्ञान नहीं हो सकता। केवल सिद्धांत विशेष में विश्वासी होना और नास्तिकता-इन दोनों में कुछ भी अंतर नहीं है। वरन् इस प्रकार के आस्तिक और नास्तिक में तो नास्तिक ही अच्छा है। उस प्रत्यक्षानुभूति के आलोक में मैं जितने कदम आगे बढ़ूँगा, उससे मुझे कोई कभी भी पीछे नहीं हटा सकेगा। किसी देश को जब तुमने स्वयं जाकर देखा, तब तुम्हें उसके संबंध में यथार्थ ज्ञान हुआ। हममें से प्रत्येक व्यक्ति को प्रत्यक्षानुभूति करनी होगी। आचार्य केवल हमारे समीप 'खाना ला सकते हैं'-इससे पुष्टि लाभ करने के लिए हमें स्वमेव खाना पड़ेगा। तर्क-युक्ति ईश्वर को, एक तर्कसंगत निष्कर्ष के रूप में छोड़कर, अन्य किसी प्रकार प्रमाणित नहीं कर सकती।

भगवान् को अपने से बाहर प्राप्त करना हमारे लिए असम्भव है। बाहर जो ईश्वर-तत्व की उपलब्धि होती है, वह हमारी आत्मा का ही प्रकाश मात्र है। हम ही हम हैं भगवान् का सर्वश्रेष्ठ मन्दिर। बाहर जो कुछ उपलब्धि होती है, वह हमारे आभ्यंतरिक ज्ञान का ही अति सामान्य अनुकरण या प्रतिबिंब मात्र है।

हमारे मन की शक्तियों की एकाग्रता ही हमारे लिए ईश्वर-दर्शन का एकमात्र साधन है। यदि तुम एक आत्मा को (अपनी आत्मा को) जान सको, तो तुम भूत, भविष्यत् वर्तमान सभी आत्माओं को जान सकोगे। इच्छा-शक्ति के द्वारा मन की एकाग्रता साधित होती है-और विचार, भक्ति, प्राणायाम इत्यादि विभिन्न उपायों से इच्छा-शक्ति अद्भुत और वशीकृत हो सकती है। एकाग्र मनमानो एक प्रदीप है जिसके द्वारा आत्मा का स्वरूप स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है।

एक प्रकार की साधना-प्रणाली सबके लिए उपयोगी नहीं हो सकती। इसका अर्थ यह नहीं कि विभिन्न साधना-प्रणालियों का सोपान के समान एक-एक करके अवलंबन करना होगा। क्रिया-कलाप, अनुष्ठान आदि सबकी अपेक्षा निम्न साधन है, उससे श्रेष्ठतर साधन है ईश्वर को अपनी आत्मा से बाहर देखना, और सर्वश्रेष्ठ साधन है अपनी आत्मा के भीतर ब्रह्म का साक्षात्कार करना। कुछ व्यक्तियों के लिए एक के बाद दूसरा-इस प्रकार के क्रम की आवश्यकता हो सकती है, किंतु अधिकांश व्यक्तियों के लिए एक ही मार्ग की आवश्यकता होती है। सबके लिए यह कहना कि 'ज्ञान-लाभ करने के लिए तुम्हें कर्म और भक्ति के मार्ग से ही जाना होगा'--इससे बढ़कर अधिक अहमकपन और क्या हो सकता है ?

जब तक तुम किसी उच्च तत्व को प्राप्त नहीं करते हो, तब तक तुम अपने तर्क-विचार को पढ़ें पकड़े रहो और इस अवस्था में पहुँचने पर तुम्हें मालूम हो जाएगा कि वह तत्व श्रेष्ठ इसलिए है कि युक्ति-विचार का विरोधी नहीं है। इस युक्ति-विचार या ज्ञान के परे की भूमि है समाधि, किंतु स्नायवीय रोगों की प्रतिक्रियास्वरूप मूर्छा-विशेष को ही समाधि मत समझ बैठो। अनेक व्यक्ति झूठा दावा करते हैं कि उन्होंने समाधि प्राप्त कर ली है, वे पशु के सदृश स्वाभाविक या सहज ज्ञान को ही समाधि-अवस्था करने की भूल करते हैं-यह बड़ी भयानक बात है। 'यह यथार्थ भाव-समाधि है या स्नायवीय रोग', इसका बाहर से निर्णय करने का कोई उपाय नहीं। 'वह ठीक ठीक समाधि अवस्था है या नहीं', यह आप ही आप मालूम हो जाता है। इस भूल से हमारा रक्षक नकारात्मक है-अर्थात् बुद्धि की आवाज। धर्म-लाभ का अर्थ है बुद्धि के परे जाना, किंतु वहाँ तक हमें पहुंचाने में हमारा पथ-निर्देश बुद्धि ही करती है। सहजात ज्ञान मानो बरफ है, बुद्धि-विचार मानो जल है, और अलौकिक ज्ञान मानो वाष्प है जो सर्वापेक्षा सूक्ष्म है। ये एक के बाद एक आते हैं। सर्वत्र ही यह अनुक्रम रहता है, जैसे अचेतन, चेतन, बुद्धि; जड़ पदार्थ, देह, मन। और ऐसा प्रतीत होता है कि हम इस श्रृंखला की जिस कड़ी को पकड़ते हैं, वहीं से उसका आरम्भ होता है। अर्थात् कोई कहते हैं, देह से मन की उत्पत्ति हुई है; और कोई कहते हैं, मन से देह की। दोनों ही पक्षों में युक्ति का समान मूल्य है, और दोनों ही मत सत्य हैं। हमें इन दोनों के परे जाना होगा-ऐसी अवस्था में पहुंचना होगा, जहाँ देह और मन, दोनों ही नहीं हैं। यह सारा अनुक्रम भी माया है।

धर्म बुद्धि के परे है और परा-प्राकृतिक है। श्रद्धा का अर्थ कुछ भी मान लेना नहीं है-वह है उस चरम तत्व को हस्तगत करना, वह है एक प्रकाश। पहले उस आत्म-तत्व के संबंध में श्रवण करो, उसके बाद विचार करो--विचार द्वारा उक्त आत्म-तत्व के संबंध में यथाशक्ति जानने का प्रयत्न करो; इसके ऊपर से विचार की बाढ़ को बहने दो-उसके बाद जो शेष रहे उसीको ग्रहण करो। यदि कुछ भी शेष न रहे, तो तुम भगवान् को धन्यवाद दो, क्योंकि तुम एक अंधविश्वास से बच गए। और जब तुम्हें यह निश्चय हो जाएगा कि तुम्हारी आत्मा को कोई भी नहीं ले जा सकता, जब आत्मा हर कसौटी पर खरी उतरेगी, तब तुम उसे दृढ़ भाव से पकड़े रहो तथा सभी को इस आत्म-तत्व का उपदेश दो। सत्य कभी पक्षपात नहीं करता, उससे सभी का कल्याण होगा। अन्य में, स्थिर भाव और शांत चित्त से उसका निदिध्यासन करो-उसका ध्यान करो, तुम अपने मन को उसके ऊपर एकाग्र करो, इस आत्मा के साथ अपने को एकभावापन्न कर डालो। तब फिर शब्दों का कोई प्रयोजन नहीं रहेगा, तुम्हारा मौन ही सत्य का संचार करेगा। बोलने में शक्ति का ह्नास मत करो, शांत होकर ध्यान करो। बहिर्जगत् की गतिविधि से अपने को विचलित न होने दो। जब तुम्हारा मन सर्वोच्च अवस्था में पहुंचता है, तब उसकी चेतना तुम्हें नहीं रहती। शांत रहकर संचय करो और आध्यात्मिकता के 'डाइनेमो' बन जाओ। भिखारी क्या दे सकता है ? जो राजा है वही दे सकता है-और वह राजा भी तभी दे सकता है, जब वह स्वयं कुछ ना चाहे।

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तुम्हारे पास जो रुपए-पैसे हैं, उन्हें तुम अपना मत समझो, तुम अपने को तो भगवान् का भंडारी समझो। उन रुपये-पैसों के प्रति आसक्ति मत रखो। नाम, यश, रुपये-पैसे सभी चले जाएँ-जाने दो, ये सब तो भयानक बंधनस्वरूप हैं। स्वाधीनता की अपूर्व मुक्त वायु का उपभोग करो। तुम तो मुक्त हो, मुक्त हो, पहले से ही मुक्त हो; सर्वदा कहो-मैं सदानंदस्वरूप हूँ, मैं मुक्तस्वभाव हूँ, मैं अनंतस्वरूप हूँ, मेरी आत्मा का आदि-अंत नहीं है; सब मेरे आत्मस्वरूप हैं।

21 जुलाई , रविवार

पातंजल योगसूत्र

योग वह विज्ञान है जिसके द्वारा चित्र पर संयम करके उसे वृत्तियों में बिखरने नहीं दिया जाता। मन संवेदना और भावना, या क्रिया और प्रतिक्रिया का मिश्रण स्वरूप है, अतएव वह नित्य नहीं हो सकता। मन का एक सूक्ष्म शरीर है, उसी शरीर के द्वारा मन स्थूल शरीर के ऊपर कार्य करता है। वेदांत कहता है मन के पीछे यथार्थ आत्मा है। वेदांत इन दोनों को, अर्थात् देह और मन को स्वीकार करता है, किंतु वह और एक तृतीय पदार्थ को ग्रहण करता है-जो अनंत,चरम तत्त्वस्वरूप, विश्लेषण का अंतिम फलस्वरूप है, जो एक अखंड वस्तु है, जिसका विभाजन नहीं हो सकता। जन्म है पुनर्गठन, मृत्यु है विघटन-और संपूर्ण विश्लेषण करने के बाद अंत में आत्मा को पाया जाता है। और आगे विभाजन असंभव होने के कारण आत्मा में पहुँचने से नित्य सनातन तत्त्व प्राप्त हो जाता है।

प्रत्येक तरंग के पीछे समग्र समुद्र विद्यमान है-जो कुछ अभिव्यक्ति है, वह सब तरंग है-अंतर इतना ही है कि कुछ खूब बड़ी है और कुछ छोटी। किंतु वास्तव में ये सब तरंगें स्वरूपत: समुद्र हैं-समग्र समुद्र ही हैं; किंतु तरंग की दृष्टि से एक एक अंश है। तरंग समूह जब शांत हो जाता है, तब सब एकाकार हो जाता है। पतंजलि कहते हैं-दृश्यविहीन द्रष्टा। जब मन क्रियाशील रहता हैं, तब आत्मा उसके साथ मिल जाती है। अनुभूत पुरातन विषयों की द्रुत वेग से पुनरावृत्ति को स्मृति कहते हैं।

अनासक्त बनो। ज्ञान ही शक्ति है-एक को प्राप्त करने से दूसरी स्वत: प्राप्त हो जाती है। इतना ही नहीं, ज्ञान के द्वारा तुम इस जड़ जगत् को भी उड़ा दे सकते हो। जब तुम मन ही मन किसी वस्तु में से एक एक करके गुणों को हटाते हटाते क्रमशः सभी गुणों को हटा सकोगे, तब तुम अपनी इच्छानुसार उस वस्तु को संपूर्ण रूप से अपनी चेतना में से दूर कर सकोगे।

जो उत्तम अधिकारी हैं, वे योग में शीघ्रातिशीघ्र उन्नति कर लेते हैं-छ: महीने में वे योगी हो सकते हैं। जो उसकी अपेक्षा निम्न अधिकारी हैं, उन्हें योग में सिद्धिलाभ करने में अनेक वर्ष लग जाते हैं, और जो कोई व्यक्ति निष्ठा के साथ साधना करे-अन्य सभी कार्यों को छोड़कर सर्वदा साधना में ही निरत रहे, तो उसे बाहर वर्ष में सिद्धिलाभ हो सकता है। इन सब मानसिक व्यायामों को छोड़कर केवल भक्ति द्वारा भी इस अवस्था में पहुँचा जा सकता है, किंतु उसमें कुछ विलंब होता है।

मन के द्वारा उस आत्मा का जिस भाव में दर्शन या धारणा हो सके, जिसको ईश्वर कहते हैं। उसका सर्वश्रेष्ठ नाम है, 'ॐ'; अतएव इए ओंकार का जप करो, उसका ध्यान करो, उसके भीतर जो अपूर्व अर्थराशि निहित है, उसका चिंतन करो। सर्वदा ओंकार जप ही यथार्थ उपासना है। यह मत समझो कि ओंकार सामान्य शब्द है; वह तो स्वयं ईश्वरस्वरूप है।

धर्म तुम्हें नया कुछ नहीं देता, वह तो केवल पतिबंधों को दूर कर तुम्हारा यथार्थ स्वरूप तुम्हें दिखा देता है। रोग प्रथम प्रबल विघ्न है-स्वस्थ शरीर ही सर्वोत्कृष्ट यंत्र है। विषाद एक दूसरा अलंघ्यप्राय विघ्न है। किंतु यदि तुम ब्रह्मसाक्षात्कार कर लो तो फिर तुम्हारे मन के विषण्ण होने की संभावना ही रहेगी। संशय, अध्यवसाय का अभाव, भ्रांत धारणाएँ-ये अन्य विघ्न हैं।

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प्राण हैं देहस्थित अति सूक्ष्म शक्तियाँ, गति का कारण। प्राण कुल दंश हैं-उनमें पाँच प्रधान हैं, और पाँच अप्रधान। एक प्रधान प्राण-प्रवाह ऊपर की ओर प्रवाहित हो रहा है, अन्य सब नीचे की ओर। प्राणायाम का अर्थ है-श्वास-प्रश्वास द्वारा प्राणसमूह को नियंत्रित करना। श्वास मानो काष्ठ है, प्राण वाष्प और शरीर मानो इंजन है। प्राणायाम में तीन क्रियाएँ होती हैं-पूरक-श्वास को भीतर ले जाने, कुंभक-श्वास को भीतर धारण करके रखना, और रेचक-श्वास को बाहर निकालना।

गुरु है वह यान जिससे आध्यात्मिक शक्ति तुम्हारे समीप पहुंचती है। शिक्षा कोई भी दे सकता है, किंतु शिष्य में केवल गुरु ही आध्यात्मिक शक्ति का संचार करता है, और वही फलीभूत होती है। शिष्यों में आपस में भाई-भाई का संबंध है; और भारतीय कानून शिष्यों के बीच इस भ्रांतृसंबंध को स्वीकार करता है। गुरु ने अपने पूर्व आचार्यों से जो मंत्र या भाव-शक्तिमय शब्द प्राप्त किए हैं, उसीको वे शिष्य में संक्रमित करते हैं-गुरु के बिना साधन-भजन नहीं हो सकता, उल्टे विपत्ति की ही अधिक आशंका रहती है। साधारणत: गुरु की सहायता लिए बिना इस सभी योगों का अभ्यास करने पर काम की प्रबलता उत्पन्न होती है, किंतु गुरु की सहायता होने पर प्रायः इसकी संभावना नहीं रहती। प्रत्येक इष्ट-देवता का एक एक मंत्र है। इष्ट का अर्थ है-विशेष उपासक का विशेष विशेष आदर्श। मंत्र है भाव विशेष को अभिव्यक्त करने वाला शब्द। इस शब्द के लगातार जप के द्वारा आदर्श को मन में दृढ़ भाव से रखने में सहायता मिलती है। इस प्रकार की उपासना-प्रणाली भारत के सभी साधकों के प्रचलित है।

२३ जुलाई , मंगलवार

भगवद्गीता-कर्मयोग

कर्म के द्वारा मुक्ति-लाभ करना हो तो अपने को कर्म में नियुक्त करो, किंतु किसी प्रकार की कामना मत करो-फल की आकांक्षा तुम्हें नहीं होनी चाहिए। इस प्रकार के कर्मों के द्वारा ज्ञान-लाभ होता है और इस ज्ञान के द्वारा मुक्ति होती है। ज्ञान प्राप्त करने के पहले कर्म का त्याग करने से दु:ख ही होता है। आत्मा के लिए कर्म करने पर कर्मजनित किसी प्रकार का बंधन नहीं होता। कर्म से सुख की आकांक्षा भी मत करो और इस प्रकार का भय भी मत रखो कि कर्म करने पर कष्ट होगा। देह और मन कार्य करते हैं, मैं कुछ नहीं करता-सर्वदा अपने को इस प्रकार समझाते रहो, और इस बात को प्रत्यक्ष करने की चेष्टा करो। इस प्रकार प्रयत्न करो, जिससे तुम्हें अपने द्वारा कुछ करने का बोध ही न रहे।

समस्त कर्म भगवान् को अर्पण कर दो। संसार में रहो, किंतु सांसारिक मत बनो-पद्मपत्र का मूल जैसे कीचड़ में रहता है, किंतु वह सर्वदा शुद्ध रहता है। लोग तुम्हारे प्रति चाहे जैसा व्यवहार करें, किंतु तुम सबको प्रेम करते रहो। जो अंधा है, उसे रंग का ज्ञान कभी नहीं हो सकता-अतएव जब हममें दोष नहीं है तो हम दूसरे का दोष देखेंगे कैसे ? हमारे भीतर जो कुछ है, उसके साथ हम उसकी तुलना करते हैं, जो कि हम बाहर देखते हैं, और तदनुसार ही हम किसी विषय में अपना मतामत प्रकट करते हैं। यदि हम स्वयं पवित्र हैं, तो हमें बाहर अपवित्रता नहीं दिखाई देती। बाहर अपवित्रता हो सकती है, किंतु हमारे लिए उसका अस्तित्व नहीं होगा। प्रत्येक नर-नारी और प्रत्येक बालक-बालिका के भीतर ब्रह्म का दर्शन करो, अंत्यज्योति के द्वारा उसे देखो; यदि हमें सर्वत्र उस ब्रह्म का दर्शन होता है, तो हम उसके अतिरिक्त और कुछ देख ही नहीं सकते। इस संसार की कामना मत करो, क्योंकि जो कुछ तुम चाहते हो वही तुम पाते हो। केवल भगवान् का अन्वेषण करो। जितनी अधिक शक्ति प्राप्त होगी, उतने ही बंधन बढ़ेंगे, उतना ही भय बढ़ेगा। एक सामान्य चींटी की अपेक्षा हम कहीं अधिक भीरू और दु:खी हैं। हम समस्त जगत्प्रपंच से बाहर निकलकर भगवान के समीप जाओ। स्रष्टा के तत्व को जानने की चेष्टा करो, न कि सृष्टि के तत्व को।

'मैं ही कर्ता हूँ और मैं ही कार्य हूँ।' 'जो काम-क्रोध के वेग का अवरोध कर लेते हैं, वे महायोगी हैं।'

'अभ्यास और वैराग्य के द्वारा ही मन का निरोध किया जा सकता है।'

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हमारे हिंदू पूर्वज चुपचाप बैठकर धर्म और ईश्वर के संबंध में विचार कर गए हैं और इस कारण हमारे मस्तिष्क भी इस कार्य के लिए सक्षम हैं। किंतु अब हम रुपए-पैसे के लिए जिस प्रकार दौड़-धूप कर रहे हैं, उससे उसके नष्ट हो जाने की संभावना है।

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शरीर में शक्ति है जिसके द्वारा अपने को निरोग बनाता है-और मानसिक अवस्था, औषधि, व्यायाम आदि इस आरोग्यकारी शक्ति को प्रबोधित कर सकते हैं। जब तक हम भौतिक परिस्थितियों के द्वारा विचलित होते हैं, तब तक हमें जड़ की सहायता का प्रयोजन होता है। हम जब तक नाड़ियों के दासत्व के बंधन को नहीं काट पाते, तब तक हम उसकी अपेक्षा नहीं कर सकते।

अचेतन मन है, किंतु वह चेतन के नीचे है, और वह मानव प्राणी का एक अंश मात्र है। दर्शन शास्त्र मन के संबंध में केवल अनुमान मात्र है। किंतु धर्म प्रत्यक्क्षानुभूति के ऊपर अर्थात् प्रत्यक्ष दर्शन, जो ज्ञान की एकमात्र भित्ति है, उसीके ऊपर प्रतिष्ठित है। अतिचेतन मन के संपर्क में जो आता है, वह तथ्य है। आप्त उन्हें कहते हैं, जो धर्म का 'प्रत्यक्ष' कर चुके हैं। उसका प्रमाण यही है कि तुम यदि उनकी प्रणाली का अनुसरण करो, तो तुम्हें भी वही उपलब्धि होगी। प्रत्येक विज्ञान की एक विशेष प्रणाली एवं विशेष यंत्र होता है। एक ज्योतिषी केवल पाकशाला के बर्तनों को लेकर शनिग्रह के वलय आदि दिखाने में समर्थ नहीं हो सकता-वे चीजें दिखाने के लिए तो दूरवीक्षण यंत्र आवश्यक है। उसी प्रकार धर्म के महान् तत्व-समूह को देखने के लिए हमें उन लोगों के द्वारा उपदिष्ट प्रणालियों का अनुसरण करना होगा, जो पहले ही उन सत्यों का प्रत्यक्ष कर चुके हैं। जो विज्ञान जितना महान् होता है, उसकी शिक्षा प्राप्त करने के उपाय भी उतने ही विविध होते हैं। हमारे संसार में आने के पहले ही इससे निकलने का उपाय भी भगवान् ने कर रखा है। अतएव हमें चाहिए केवल उस उपाय की जानकारी। किंतु विभिन्न प्रणालियों को लेकर झगड़ा मत करो। केवल सत्यसिद्धि को लक्ष्य बनाओ और जो साधन-प्रणाली तुम्हारे लिए सबसे उपयोगी हो, उसी का अवलम्बन करो। तुम आम खाते जाओ, और दूसरे लोग यदि टोकरी के लिए मार-पीट करते हैं तो कहने दो। ईसा का दर्शन करो-तभी तुम यथार्थ ईसाई बनोगे। और शेष सब केवल बातें ही बातें हैं-ये बातें जितनी कम हों, उतना ही अच्छा है।

संदेश की संदेशवाहक बनाता है। देवता ही मंदिर बनाता है। इसके विपरीत सत्य नहीं है।

तब तक शिक्षा ग्रहण करो, 'जब तक तुम्हारा मुख ब्रह्मविद् के समान दिव्य भाव से चमक नहीं उठता' जैसे कि श्वेतकेतु का हुआ था।

अनुमान के विरुद्ध अनुमान में झगड़ा होता है। किंतु प्रत्यक्ष दर्शन करने करके फिर उसके संबंध में बातें करो तो कोई भी मनुष्य हृदय ऐसा नहीं है, जो उसे स्वीकार नहीं करेगा। प्रत्यक्षानुभूति के कारण ही संत पॉल को उनकी इच्छा के विरुद्ध ईसाई धर्म स्वीकार करना पड़ा था।

२३ जुलाई , मंगलवार

अपराह्न। (मध्याह्न भोजन के बाद कुछ देर तक वार्तालाप हुआ-उसी के मध्य स्वामी जी ने कहा:)

भ्रम ही भ्रम की सृष्टि करता है। भ्रम जैसे स्वयं अपनी सृष्टि करता है, वैसे ही स्वयं अपना नाश भी करता है, यह माया ऐसी ही है। समस्त (तथाकथित) ज्ञान माया पर आधारित होने के कारण एक दुश्चक्र है, लेकिन ऐसा और एक समय आता है, जब यह ज्ञान स्वयं अपने को नष्ट कर डालता है। 'छोड़ दो रज्जु'-भ्रम कभी भी आत्मा को छू नहीं सकता। जैसे ही हम उस डोरी को पकड़ते हैं अर्थात् माया के साथ अपना तादात्म्य कर लेते हैं, वैसे ही वह हमारे ऊपर शक्ति का विस्तार करती है। उसे छोड़ दो, केवल साक्षिस्वरूप होकर रहो। ऐसा होने पर ही अविचलित होकर जगत्प्रपंच के चित्र पर मुग्ध हो सकोगे।

२४ जुलाई , बुधवार

जिन्होंने योग में पूर्णतया सिद्धि प्राप्त कर ली है, उसके लिए योगसिद्धियाँ आदि विघ्न नहीं है, किंतु आरंभिक अवस्था में वे सब विघ्नरूप हो सकती हैं, क्योंकि इनका प्रयोग करने से आनंद और विस्मय उद्दीप्त होते हैं। सिद्धि या विभूति आदि योगसाधना के मार्ग में अग्रसर होने के चिह्न हैं, किंतु वे सब मंत्र-जप उपवासादि तपस्या, योगसाधन, इतना ही नहीं, औषधियों के व्यवहार द्वारा भी प्राप्त हो सकती हैं। जो योगी योगसिद्धसमूह में भी वैराग्य धारण करते हैं और समस्त कर्मफल का त्याग करते हैं, उन्हें धर्ममेघ नामक समाधि का लाभ होता है। जैसे मेघ बरसता है, उसी प्रकार वे पवित्रता की वर्षा करते हैं।

ध्यान विषयों की एक माला पर और एकाग्रता केवल एक विषय पर ही की जाती है। मन आत्मा का ज्ञेय है, किंतु मन स्वप्रकाश नहीं है। आत्मा किसी वस्तु का कारण नहीं हो सकती। कैसे होगी ? पुरुष प्रकृति से युक्त होगा कैसे ? वास्तव में पुरुष कभी भी प्रकृति से युक्त नहीं होता-अविवेक के कारण ही पुरुष प्रकृति से मुक्त हुआ प्रतीत होता है।

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बिना दया किए या यह अनुभव किए कि संसार में बड़ा दु:ख-दैन्य है, सहायता करना सीखो। शत्रु-मित्र दोनों के प्रति समदृष्टि होना सीखो; जब ऐसा हो सकेगा तथा तुम्हें कोई कामना नहीं रहेगी, तभी लक्ष्य को प्राप्त समझना चाहिए।

कामना के वट-वृक्ष को अनासक्ति के कुठार के द्वारा काट डालो, ऐसा करने पर वह बिल्कुल नष्ट हो जाएगा। वह तो एक भ्रम मात्र है, और कुछ नहीं। 'जिनका मोह और शोक चला गया है, जिन्होंने संगदोषों को जीत लिया है, केवल वे ही 'आजाद' या मुक्त हैं।' किसी व्यक्ति से विशेष भाव से प्रेम करना बंधन है। सभी से समान रूप से प्रेम करो-तब तुम्हारी सभी वासनाएँ विलीन हो जाएंगी।

सर्वभक्षक काल के आने पर सभी को जाना होगा। फिर इस पृथ्वी की उन्नति के लिए और क्षणस्थायी तितली पर रंग चढ़ाने के लिए चेष्टा क्यों कर रहे हो ? अंत में तो सभी विनष्ट हो जाएंगे। सफेद चूहे के समान पिंजड़े में बैठकर उछलकूद मत करो। हम सर्वदा व्यस्तं रहते हैं और कार्य कुछ होता ही नहीं। वासना चाहे अच्छी हो, चाहे निकृष्ट, असल में वह अशुभ ही है। यह मानो कुत्ते के समान एक ऐसे मांस-खंड पाने के लिए दिन-रात हांफते रहना है, जो सदा उसकी पहुंच के बाहर होता जाता है; और अंत में कुत्ते की मौत मर जाता है। अतः ऐसे मत बनो। समस्त वासना नष्ट कर डालो।

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परमात्मा जब माया का शासक रहता है, तब उसे ईश्वर कहा जाता है, और जब वह माया के अधीन होता है, तब वह जीवात्मा कहलाता है। समग्र जगत्प्रपंच की समष्टि ही माया है, एक दिन वह बिल्कुल उड़ जाएगी।

वृक्ष का वृक्षत्व माया है-वृक्ष देखते समय वास्तव में हम भगवत्स्वरूप को ही मायावृत भाव से देखते हैं। किसी घटना के संबंध में 'क्यों' प्रश्न की जिज्ञासा ही माया अंतर्गत है। अतएव माया कैसे आयी, यह प्रश्न ही वृथा है, क्योंकि माया के बीच में रहकर उसका उत्तर कभी भी नहीं दिया जा सकता और जब माया के परे चले जाओगे, तब कौन यह प्रश्न पूछेगा ? असद् दृष्टि या माया ही 'क्यों' प्रश्न की सृष्टि करती है, किंतु 'क्यों' प्रश्न से माया आती नहीं-माया ही उस 'क्यों' प्रश्न को पूछती है ! भ्रम भ्रम को नष्ट कर देता है। तर्क स्वमेव विरोध के ऊपर प्रतिष्ठित होने के कारण एक वृत्त है, इसीलिए उसे स्वयं को नष्ट करना होगा। इंद्रियजन्य अनुभूति एक आनुमानिक ज्ञान है, किंतु इस प्रकार के सभी आनुमानिक ज्ञान की भित्ति अनुभूति है।

ब्रह्मज्योति प्रतिबिंबित करता हुआ अज्ञान दिखलायी पड़ता है, किंतु स्वयं में वह शून्य है। सूर्यकिरण के प्रतिबिंबत हुए बिना मेघ नहीं देखा जा सकता।

चार पथिक एक खूब ऊँची दीवाल के समीप पहुँचे। प्रथम पथिक अत्यंत कष्ट से दीवाल पर चढ़ा और पीछे की ओर बिना देखे दीवाल के उस पार कूद पड़ा। द्वितीय पथिक दीवाल पर चढ़ा और उसने चारों ओर देखा, देखकर आनंद-ध्वनि करते हुए गायब हो गया। उसके बाद तीसरा भी दीवाल के ऊपर चढ़ा और 'मेरे साथी कहाँ गए' यह देखने लगा, उसके बाद आनंद से हंसकर उसने अपने साथियों का अनुसरण किया। किंतु चौथे पथिक ने दीवाल पर चढ़कर पहले यह देखा कि उसके साथियों का क्या हुआ और फिर इस बात को लोगों को बतलाने के लिए वहाँ से लौट आया। इस संसार-प्रपंच के परे कुछ है, इस बात का प्रमाण वह हास्य है जो माया की दीवाल पर चढ़कर कूद पड़नेवाले उन महापुरुषों से ध्वनित होकर वापस आता है।

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हम जब उस पूर्ण सत्ता के अपने को पृथक् कर उसमें कुछ गुणों का आरोप करते हैं, तब हम उसे ईश्वर कहते हैं। ईश्वर इस जगत्प्रपंच की वह अंतर्निहित मूल सत्ता है जो हमारे मन के द्वारा अनुभव हो रही है। और व्यक्तिगत शैतान है कुसंस्काराच्छन्न मन के द्वारा अनुभूत जगत् का समस्त क्लेश।

२५ जुलाई , बृहस्पतिवार

पातंजल योगसूत्र

कार्य तीन प्रकार का हो सकता है-वृत्त (जो तुम स्वयं कहते हो), कारित (जो दूसरों के द्वारा करवाते हो), और अनुमोदित (दूसरे लोग जो कहते हैं उसमें तुम्हारा अनुमोदन है, आपत्ति नहीं)। हमारे ऊपर इस तीनों कार्यों का फल प्राय: एक समान होता है।

पूर्ण ब्रह्मचर्य के द्वारा मानसिक और आध्यात्मिक शक्ति अत्यंत प्रबल होती है। ब्रह्मचारी को मन-कर्म-वचन से मैथुन वर्जित होना होगा। देह पर आसक्ति भूल जाओ। जहाँ तक हो सके, देहज्ञान छोड़ दो।

जिस अवस्था में स्थिर भाव से और सुखपूर्वक बहुत समय तक बैठा जा सके उसी को आसन कहते हैं। सर्वदा-सर्वदा अभ्यास के द्वारा एवं मन को अनंत भाव से भावित कर सकने पर यह सिद्ध हो सकता है।

एक विषय में सदा-सर्वदा चिंतवृत्ति को प्रवाहित करने का नाम ध्यान है।

स्थिर जल में यदि एक प्रस्तर-खंड फेंका जाए तो जल में बहुत सी गोलाकार तरंगें उठती हैं, वे सब गोलाकार तरंगें पृथक्-पृथक् हैं, परंतु फिर भी परस्पर एक दूसरे के ऊपर कार्य करती हैं। हमारे मन के भीतर भी इसी प्रकार वृत्तिप्रवाह चल रहा है; परंतु हमारे भीतर वह हमारे अनजान में और योगियों के भीतर वह उनकी ज्ञानावस्था में होता रहता है। हम लोग मकड़ी के समान अपने की जाल के बीच में रहते हैं, योगाभ्यास के द्वारा हम मकड़ी के समान ही इच्छानुसार जाल के किसी भी तंतु पर चल सकते हैं। जो योगी नहीं हैं, वे जिस स्थान में रहते हैं, उसी निर्दिष्ट स्थल विशेष में ही आबद्ध होकर रहने के लिए बाध्य हैं।

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दूसरों की हिंसा से बंधन आता है, और वह हिंसा सत्य को छिपा लेती है। केवल निषेधात्मक सद्गुण ही पर्याप्त नहीं है। हमें माया को जीतना होगा, तभी वह हमारे वश में हो जाएगी। जब कोई भी वस्तु हमें बाँद नहीं पाती, तभी उस पर हमारा यथार्थ अधिकार होता है। जब बंधन ठीक ठीक छूट जाता है, तब सब कुछ हमारे निकट आकर उपस्थित हो जाता है। जिन्हें किसी वस्तु का अभास नहीं है अर्थात् जो पूर्णतया वासनाहीन हैं, वे ही प्रकृति पर विजय पाते हैं।

ऐसे किसी महात्मा की शरण में जाओ, जिनका अपना बंधन टूट गया है; समय आने पर वे अपनी कृपा से तुम्हें मुक्त कर देंगे ईश्वर की शरणागति इसकी अपेक्षा उच्च भाव है, किंतु वह बड़ी कठिन है। वास्तव में इसे कार्य रूप में परिणत करनेवाला मनुष्य शताब्दी में कहीं एक-आध देखा जाता है। 'मैं'-पन के साथ कुछ भी अनुभव मत करो, कुछ भी मत जानो, कुछ भी मत करो, कुछ भी अपना कहकर मत रखो-सब कुछ ईश्वर में समर्पित कर दो; और सर्वांत:करण से कहो, 'प्रभो ! तुम्हारी ही इच्छा पूर्ण हो।' हम बद्ध हैं-यह भाव हमारा स्वप्न मात्र है। जागो-यह बंधन दूर कर दो। ईश्वर की शरण मैं जाओ, इस माया मरुभूमि को पार करने का एकमात्र यही उपाय है। 'छोड़ दो रज्जु, बोलो हे वीर संन्यासी, ॐ तत् सत् ॐ।'

हम दूसरों के प्रति दया प्रकाशित कर पाते हैं, यह हमारा एक विशेष सौभाग्य है-क्योंकि इस प्रकार के कार्य के द्वारा ही हमारी आत्मोन्नति होती है। दीन जन मानो इसलिए कष्ट पाते हैं कि हमारा कल्याण हो। अतएव दान करते समय दाता ग्रहिता के सामने घुटने टेके और धन्यवाद दे; ग्रहिता दाता के सम्मुख खड़ा हो जाए और अनुमति दे। सभी प्राणियों में विद्यमान प्रभु का दर्शन करते हुए उन्हीं को दान दो। जब हम कुछ भी बुराई नहीं देख पाएंगे, तब हमारे लिए जगत्प्रपंच भी नहीं रहेगा, क्योंकि प्रकृति का उद्देश्य ही है हमें इस भ्रम में से मुक्त करना। असंपूर्णता नामक कोई चीज है, यह सोचना ही असपूर्णता ही सृष्टि करना है। हम पूर्णस्वरूप और ओज:स्वरूप हैं, इस प्रकार सोचने से ही असंपूर्णता की भावना दूर हो सकती है। चाहे जितना अच्छा काम क्यों न करो, किंतु उसमें कुछ ना कुछ बुराई लगी ही रहेगी। फिर अपने व्यक्तिगत फलाफल की ओर बिना देखे समस्त कार्य करते जाओ, तथा कार्यजन्य फलों को ईश्वर में समर्पित कर दो; ऐसा करने पर, अच्छा या बुरा कुछ भी तुम्हें अभिभूत न कर सकेगा।

कर्म करना धर्म नहीं है, फिर भी यथोचित् रूप से कर्म करना मुक्ति की ओर ले जाता है। वास्तव में समग्र दया अज्ञान है, क्योंकि हम दया किस पर करेंगे ? क्या तुम ईश्वर को दया की दृष्टि से देख सकते हो ? फिर ईश्वर छोड़कर और है ही क्या ? ईश्वर को धन्यवाद दो कि उसने तुम्हारी आत्मोन्नति के लिए यह जगद्रुप नैतिक व्यायामशाला तुम्हें प्रदान की है। यह कभी मत सोचना कि तुम इस जगत् की सहायता कर सकते हो। तुम्हें यदि कोई गाली दे तो उसके प्रति कृतज्ञ होओ। क्योंकि गाली या अभिशाप क्या है, यह देखने के लिए उसने मानो तुम्हारे सम्मुख एक दर्पण रखा है और वह तुम्हारे लिए आत्मसंयम का अभ्यास करने का एक अवसर दे रहा है। अतएव उसे आशीर्वाद दो और सुखी बनो। अभ्यास करने का अवसर मिले बिना व्यक्ति का विकास नहीं हो सकता, और दर्पण सामने रखे बिना हम अपना मुख नहीं देख सकते।

कामुक कल्पना उतनी ही बुरी है, जितनी कामुक क्रिया। कामेच्छा का दमन करने पर उससे उच्चतम फल लाभ होता है। काम-शक्ति को आध्यात्मिक शक्ति में परिणत करो, किंतु अपने को पुरुषत्वहीन मत बनाओ, क्योंकि उससे शक्ति का क्षय होगा। यह शक्ति जितनी प्रबल होगी, इसके द्वारा उतना ही अधिक कार्य हो सकेगा। प्रबल जलधारा मिलने पर ही उसकी सहायता से खान खोदने का कार्य किया जा सकता है।

आज हमारी आवश्यकता यह है कि हम जान लें कि एक ईश्वर हैं, और यहीं एवं इसी समय हम उसका अनुभव कर सकते हैं। शिकागो के एक प्राध्यापक ने कहा-"इस जगत् की चिंता तुम कर लो, ईश्वर परलोक की चिंता कर लेंगे।" कैसी मूर्खताभरी बात है ! यदि हम इस जगत् की सब तरह की व्यवस्था करने में समर्थ हैं, तो फिर परलोक का भार ग्रहण करने के लिए एक ऐसे अनावश्यक ईश्वर की क्या आवश्यकता है।

२६ जुलाई , शुक्रवार

बृहदारण्यकोपनिषद्

सभी वस्तुओं से प्रेम करो-केवल आत्म-दृष्टि से ही और आत्मा के लिए ही। याज्ञवल्क्य ने अपनी स्त्री मैत्रेयी से कहा था, 'आत्मा के द्वारा ही हम सभी वस्तुओं को जान पाते हैं।' आत्मा कभी भी ज्ञान का विषय नहीं हो सकती--जो स्वयं ज्ञाता है, वह ज्ञेय कैसे हो सकती है ? जिन्होंने अपने को आत्मस्वरूप जाना है, उसके लिए विधि-निषेध नहीं रहता। उन्हें ज्ञात हो गया है कि वे ही इस जगत्प्रपंच के रूप में हैं, और इसके स्रष्टा भी हैं।

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पुरातन पौराणिक दंतकथाओं को रूप के आधार में चिरस्थायी करने की चेष्टा करने से एवं उन्हें अत्यधिक महत्व देने से अंधविश्वास को मिलता है, और यह सचमुच दुर्बलता है। सत्य के साथ कभी भी किसी प्रकार का समझौता नहीं होना चाहिए। सत्य का उपदेश दो, और किसी अंधविश्वास के पक्ष में युक्ति देने की चेष्टा मत करो, और सत्य को श्रोता के स्तर पर नीचे घसीट लाओ।

२७ जुलाई , शनिवार

कठोपनिषद्

जिसने आत्मा का ज्ञान प्राप्त कर लिया है, ऐसे व्यक्ति को छोड़कर किसी अन्य के पास आत्म-तत्व जानने के लिए मत जाना। दूसरों के पास तो केवल बातें ही बातें हैं। आत्म-साक्षात्कार धर्माधर्म, भूत-भविष्यत् आदि सभी प्रकार के द्वंद्वों के परे है। 'निष्कलंक व्यक्ति ही उस आत्मा का दर्शन करते हैं, और उन्हें शाश्वत शांति प्राप्त होती है।' केवल बातें, विचार, शास्त्र-पाठ और बुद्धि का चुडांत परिचालन, यहाँ तक कि वेद भी मनुष्य को यह आत्मज्ञान नहीं दे सकते।

हमारे भीतर जीवात्मा और परमात्मा दोनों ही हैं। ज्ञानी लोग जीवात्मा को छायास्वरूप और परमात्मा को यथार्थ सूर्यस्वरूप जानते हैं।

हम यदि मन को इंद्रियों के साथ संयुक्त न करें, तो हमें आँख, कान, नाक आदि इंद्रियों के द्वारा किसी भी प्रकार का संदेश प्राप्त नहीं हो सकता। मन इन बहिरिइंद्रियों का व्यवहार करता है। इंद्रियों को बाहर मत जाने दो-तभी तुम एवं बाहिर्जगत् के बंधन से मुक्त हो सकोगे।

यह 'क' जिसे हम बहिर्जगद्रूप में देखते हैं, मृत्यु के बाद अपने अपने मन की अवस्थानुसार इसी को कोई स्वर्ग-रूप में और कोई नरक-रूप में देखता है। इसलोक और परलोक-ये दोनों ही स्वप्न हैं, परलोक भी इहलोक के ही नमूने का होता है। इन दोनों प्रकार के स्वप्नों से मुक्त हो जाओ। जान लो-सभी सर्वव्यापी हैं, सर्वत्र वर्तमान है। प्रकृति, देह और मन की ही मृत्यु होती है, हमारी मृत्यु नहीं होती, हम तो न जाते हैं, ना आते हैं। यह जो स्वामी विवेकानंद नाम का मनुष्य है-इसकी सत्ता प्रकृति के भीतर है। अतएव इसका जन्म भी हुआ है और इसकी मृत्यु भी होगी। किंतु वह आत्मा-जिसका स्वामी विवेकानंद-रूप में हम दर्शन कर रहे हैं-उनका न कभी जन्म है, न मृत्यु; वह अनंत और अपरिणामी सत्ता है।

हम चाहे मन:शक्ति को पंचेंद्रिय शक्तियों में विभक्त करें या एक शक्तिरूप में देखें, वह केवल एक ही है। एक अंधा मनुष्य कहता है, 'प्रत्येक वस्तु की एक एक विभिन्न प्रकार की प्रतिध्वनि होती है, अतएव मैं हाथ से ठोंककर विभिन्न वस्तु की प्रतिध्वनि के द्वारा अपने चारों ओर की वस्तुओं को यथार्थ रूप में बतला सकता हूँ।' अतएव एक अंधा व्यक्ति आँखवाले व्यक्ति को निविड़ कुहरे के भीतर से अनायास ही पथ दिखलाता हुआ ले जा सकता है; क्योंकि उसके लिए कुहरे और अंधकार से कोई अंतर नहीं पड़ता।

मन का संयम करो, इंद्रियों का विरोध करो, तभी तुम योगी हो पाओगे; तभी शेष सब कुछ प्राप्त हो जाएगा। सुनाना, देखना, सूँघना, और स्वाद लेना अस्वीकार कर दो; बहिरिइंद्रियों से मन:शक्ति को खींच लो। जब तुम्हारा मन किसी विषय में मग्न रहता है, तब तुम अचेतन रूप से यह क्रिया सर्वदा करते ही रहते हो, अतएव चेतन रूप से भी तुम इसका अभ्यास कर सकते हो। मन अपनी ईच्छा के अनुसार कहीं भी इंद्रियों का प्रयोग कर सकता है। इस मूल कुसंस्कार को बिल्कुल निकाल दो कि हम देह की सहायता से ही काम करने के लिए विवश हैं। हम विवश नहीं हैं। अपने कमरे में जाकर बैठो और अपनी अंतरात्मा के भीतर से उपनिषदों को प्राप्त करो। तुम भूत-भविष्यत् सभी ग्रंथों में श्रेष्ठ ग्रंथ हो और जो कुछ है, उस सब के आलय हो। जब तक उस अंतर्यामी गुरु का प्रकाश नहीं होता, तब तक बाहर के सभी उपदेश व्यर्थ हैं। यदि उससे हृदय-ग्रंथ खुल जाए, तभी उसका कुछ मूल्य है।

हमारी इच्छा-शक्ति ही वह 'क्षुद्र धीर वाणी' है, वही यथार्थ नियंता है-जो कहती है, यह करो, यह न करो। यही हमें विविध बंधनों के भीतर ले आयी है। अज्ञ व्यक्ति ही इच्छा-शक्ति उसे बंधन में डालती है, वही इच्छा-शक्ति यदि ज्ञानपूर्वक परिचालित हो तो हमें मुक्ति दे सकती है। सहस्त्र-सहस्त्र उपायों से इच्छा-शक्ति को दृढ़ किया जा सकता है, इसका प्रत्येक उपाय ही एक एक प्रकार का योग है; किंतु प्रणालीबद्ध योग के द्वारा यह कार्य बड़ी शीघ्रता से साधित हो सकता है। भक्तियोग, कर्मयोग, राजयोग और ज्ञानयोग के द्वारा अधिक निश्चित रूप से सफलता प्राप्त की जा सकती है। मुक्ति-लाभ करने के लिए अपनी सभी शक्तियों को-कर्म, विचार, उपासना, ध्यान-धारणा समस्त का अवलंबन करो, सभी पालों को एक साथ उठा दो, सभी यंत्रों को पूरी शक्ति के साथ चलाओ और गंतव्य स्थल में पहुंच जाओ। इसे जितनी शीघ्रता से कर सको, उतना ही अच्छा है।

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ईसाईयों का बपतिस्मा संस्कार (baptism) आंतरिक शुद्धीकरण का बाह्य प्रतीक है। बौद्ध धर्म से इसकी उत्पत्ति हुई है।

ईसाईयों का यूखारिस्ट नामक अनुष्ठान असभ्य जातियों की एक अति प्राचीन प्रथा का अवशेष है। ये सभी असभ्य जातियाँ कभी कभी अपने बड़े-बड़े नेताओं को मारकर उनका मांस इस हेतु खाती थीं कि उनके नेताओं के सब महान् गुण उनमें भी आ जाएं। उन लोगों का विश्वास था कि उनके नेता सभी लोगों की अपेक्षा अधिक वीर्यवान्, साहसी और ज्ञानी हुए थे, इस उपाय से वे सभी शक्तियाँ उनके भीतर भी आ जाएंगी और केवल एक ही व्यक्ति वीर्यवान और ज्ञानी न होकर समग्र जाति उसी प्रकार की हो जाएगी। नरबलि की प्रथा भी यहूदी जाती में थी, और उन लोगों के ईश्वर जिहोवा द्वारा दिए अनेक दंडों के बावजूद उनमें यह प्रथा पूर्ण रूप से लुप्त नहीं हुई। ईसा स्वयं कोमल प्रकृति और प्रेमी व्यक्ति थे, किंतु यहूदी जाति के विश्वासों के साथ उनको खपाने के निमित्त ईशपरितोष (atonement) के, या बलिदान के पशु के रूप में नरबलि का भाव आ ही गया। इस निष्ठुर भाव का प्रवेश होने के कारण ईसाई धर्म ईसा की यथार्थ शिक्षा से दूर जा पड़ा और उसमें दूसरों के ऊपर अत्याचार तथा रक्तपात करने का भाव आ गया।

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कोई भी कार्य करने के समय ऐसा मत कहो कि, 'यह मेरा कर्तव्य है', वरन् ऐसा कहो, 'यह मेरा स्वभाव है।'

सत्यमेव जयते नानृतम्-'सत्य की ही जय होती है, मिथ्या की नहीं।' सत्य के ऊपर प्रतिष्ठित होओ, तभी तुम भगवान् को प्राप्त कर सकोगे।

* * *

अति प्राचीन काल से भारत में ब्राह्मण जाति के यह घोषणा की है कि वे सभी प्रकार के विधि-निषेधों के अतीत हैं। वे यह दावा करते हैं कि वे देवता हैं। वे दरिद्र हैं, किंतु दोष उनमें यही है कि वे अधिपत्य या प्रभुत्व चाहते हैं। जो कुछ हो, भारत में प्रायः छ: करोड़ ब्राह्मणों का वास है; उसके पास कोई संपत्ति भी नहीं है, और वे अत्यंत सज्जन एवं नीतिपरायण हैं। उसके इस प्रकार होने का कारण यही है कि वे बाल्यकाल से ही शिक्षा पाते रहे हैं कि वे विधि-निषेध के अतीत हैं, एवं उनके किए किसी प्रकार के दंड का विधान नहीं है। अपने को द्विज अथवा ईश्वरतनय समझते हैं।

२८ . जुलाई , रविवार

दत्तात्रेयकृत अवधूत-गीता

'मन की शांति पर समस्‍त ज्ञान निर्भर रहता है।'

'जो समग्र विश्‍व में परिव्‍याप्‍त हैं, जो आत्‍मा के आत्‍मास्‍वरूप हैं, उन्‍हें मैं किस प्रकार नमस्‍कार करूँ ?'

'आत्‍मा को अपना स्‍वभाव, अपना स्‍वरूप समझना ही ज्ञान एवं प्रत्‍यक्षानुभूति है। मैं ही वह हूँ, इस विषय में किंचिन्‍मात्र भी संदेह नहीं है।'

'कोई विचार, कोई शब्‍द या कोई कर्म हमें बंधन में नहीं डाल सकता। मैं इंद्रियातीत हूँ, मैं चिदानंदस्‍वरूप हूँ।'

अस्ति-नास्ति कुछ नहीं हैं, सभी आत्‍मस्‍वरूप हैं। समस्‍त सापेक्षिक भावों और सभी अंधविश्‍वासों को फेंक दो, जाति, कुल, देवता, और भी जो कुछ हैं, सभी चले जाएं। सत् और असत् की बातें क्‍यों करते हो? द्वैत-अद्वैत इन सभी बातों को छोड़ दो। तुम दो थे ही कब, जो द्वैत और अद्वैत की बातें करते हो। यह जगत्‍प्रपंच वही शुद्धबुद्धस्‍वरूप ब्रह्म मात्र है, ब्रह्म को छोड़कर और कुछ भी नहीं है। यह मत कहो कि योग के द्वारा विशुद्धि प्राप्‍त होगी-तुम स्‍वयं शुद्धस्‍वभाव हो। तुम्हें कोई भी शिक्षा नहीं दे सकता।

जिसने यह गीता लिखी हैं, उसके समान व्‍यक्तियों ने ही धर्म को जीवित रखा है। उन्‍होंने वास्‍तव में उस ब्रह्मस्‍वरूप का साक्षात्‍कार किया है। वे किसी वस्‍तु की अपेक्षा नहीं रखते, शरीर के सुख-दु:ख की, शीत-उष्‍ण, विपद-आपद अथवा अन्‍य किसी वस्‍तु की बिल्‍कुल परवाह नहीं करते। जलते। हुए अंगार से अपने शरीर के जलने पर भी वे स्थिर भाव से बैठे रहकर आत्‍मानंद का अनुभव करते हैं, उनके गात्र जल रहे हैं, इसका उन्‍हें भास तक नहीं होता।

'ज्ञाता, ज्ञान और ज्ञेय, ये त्रिविध बंधन जब दूर हो जाते हैं, तभी आत्‍मस्‍वरूप प्रकाश होता है।'

'जब बंधन और मुक्ति-रूप भ्रम हट जाता है, तभी आत्‍मस्‍वरूप का प्रकाश होता है।'

'मन:संयम करो तो क्‍या, और न करो तो भी क्‍या ? तुम्‍हारा धन रहे तो क्‍या, न रहे तो भी क्‍या ? तुम तो नित्‍य शुद्ध आत्‍मा हो। कहो, मैं आत्‍मा हूँ, किसी प्रकार का बंधन मेरे पास नहीं आ सकता। मैं अपरिणामी निर्मल आकाश-स्‍वरूप हूँ; अनेक प्रकार के विश्वास या धारणा रूपी मेघ मेरे ऊपर से होकर जा सकते हैं, किंतु वे मुझे छू नहीं सकते।'

'धर्माधर्म, पाप-पुण्‍य दोनों को ही दग्‍ध कर डालो। मुक्ति तो बच्‍चों की कहानी मात्र है। मैं तो वही अविनाशी ज्ञानस्‍वरूप हूँ, मैं तो वही शुद्धिस्‍वरूप हूँ।'

'न कोई कभी बद्ध हुआ है, न कोई कभी मुक्‍त। मेरे अतिरिक्‍त और कुछ है ही नहीं। मैं अनंतस्‍वरूप और नित्‍य मुक्‍तस्‍वभाव हूँ। मुझसे बातें न कीजिए-मैं ज्ञानस्‍वरूप हूँ, कौन मुझे बदल सकता है? गुरु भी कौन है, शिष्‍य भी कौन?'

तर्क-युक्ति, ज्ञान-विचार को गुड्ढे में फेंक दो। 'बद्धस्‍वभाव मनुष्‍य ही दूसरों को बद्ध देखता है, भ्रांत व्‍यक्ति ही दूसरों को भ्रांत देखता है, अशुद्ध स्‍वभाव व्‍यक्ति ही दूसरों को अशुद्ध देखता है।'

देश-काल-निमित्त-ये सभी भ्रम हैं। तुम सोचते हो कि मैं बद्ध हूँ, मुक्‍त होऊँगा-यह तुम्‍हारा रोग है। तुम अपरिणामी हो। बातें करना छोड़ दो, चुप होकर बैठे रहो-सभी वस्‍तुएँ तुम्‍हारे समाने से उड़ जाएं-वे सब स्‍वप्‍न मात्र हैं। पार्थक्‍य या भेद नामक कोई वस्‍तु नहीं है, वह सब तो कुसंस्‍कार मात्र है। अतएव मौन भाव का अवलंबन करो और अपना स्‍वरूप पहचानो।

'मैं आनंदघन स्‍वरूप हूँ।' किसी आदर्श का अनुसरण करने की आवश्‍यकता नहीं-तुम्‍हें छोड़कर और दूसरा है ही क्‍याᣛ ? किसी से भय मत करना। तुम सार-सत्तास्‍वरूप हो। शांति में रहो-अपने को चंचल मत करो। तुम कभी बद्ध नहीं हुए हो। पुण्‍य या पाप तुम्‍हें स्पर्श नहीं करता। इन सभी भ्रमों को दूर कर दो और शांति में रहो। किसकी उपासना करोगे ? उपासना भी कौन करेगा? सभी तो आत्‍मा हैं। कोई बात कहना, या किसी तरह की चिंता करना कुसंस्‍कार है। बारंबार बोलो, 'मैं आत्‍मा हूँ, मैं आत्‍मा हूँ।' शेष सब उड़ जाने दो।

२९ जुलाई , सोमवार , प्रात:काल

हम कभी कभी किसी पदार्थ का संकेत उसके आस-पास के कुछ व्‍यापारों के वर्णन द्वारा करते हैं। हम जब ब्रह्म को सच्चिदानंद नाम से अभिहित करते हैं, तब हम वास्‍तव में उसी अनिर्वचनीय सर्वातीत सत्तारूपी समुद्र के तट मात्र का कुछ संकेत देते हैं। हम इसे 'अस्ति' स्‍वरूप नहीं कह सकते, क्‍योंकि अस्ति कहने से ही उसके विपरीत 'नास्ति' का ज्ञान भी होता है, अतएव वह भी सापेक्षिक है। कोई भी धारणा या कल्‍पना व्‍यर्थ है। केवल 'नेति' 'नेति'-(यह नहीं, वह नहीं) ही कहा जा सकता है, क्‍योंकि विचार मात्र करना भी सीमित कर देना है और अत: खो देना है।

इंद्रियाँ दिन-रात तुम्‍हें धोखा देती रहती हैं। वेदांत ने बहुत पहले ही यह जान लिया था, आधुनिक विज्ञान भी अब इस तत्त्व को समझने लगा है। किसी चित्र में केवल लंबाई और चौड़ाई होती है। किंतु चित्रकार तस्‍वीर में कृत्रिम रूप से मोटाई या गहराई का भाव भी अंकित कर प्रकृति की प्रतारणा का अनुकरण करता है। दो व्‍यक्ति कभी भी एक जगत नहीं देख पाते। सर्वोच्‍च ज्ञान प्राप्‍त करने पर तुम देखोगे कि किसी भी वस्‍तु में न किसी प्रकार की गति है, न किसी प्रकार का प‍रिणाम, उसकी यह धारणा ही माया है। समस्‍त प्रकृति अर्थात् समस्‍त गति के तत्त्व का समष्टि-रूप से निरीक्षण करो। देह और मन कोई भी हमारी यथार्थ आत्‍मा नहीं है- दोनों ही प्रकृति के अंतर्गत हैं; किंतु अंतत: इनके भीतर की सार वस्‍तु को हम तत्त्व का समष्टि-रूप से निरीक्षण करो। देह और मन कोई भी हमारी यथार्थ आत्मा नहीं है-दोनों ही प्रकृति के अंतर्गत हैं; किंतु अंततः इनके भीतर की सार वस्‍तु को हम तत्त्‍वत: समझ सकते हैं। उस समय देह और मन के परे चले जाने के कारण देह और मन के द्वारा जो कुछ अनुभव होता है, वह भी चला जाता है। जब तुम इस जगत्‍प्रपंच को देखना या जानना बंद कर दोगे, तभी तुम्‍हें आत्‍मोपलब्धि होगी। हमारा यथार्थ प्रयोजन है इस द्वैत या सापेक्षिक ज्ञान का अतिक्रमण करना। अनंत मन या अनंत ज्ञान नामक कुछ भी नहीं है, क्‍योंकि मन और ज्ञान दोनों ही ससीम हैं। अभी हम एक पर्दे में से देख रहे हैं- उसके बाद क्रमश: आवरण का परित्‍याग कर हम अपने ज्ञान के सार-सत्‍यस्‍वरूप उस अज्ञात वस्‍तु 'क' के समीप पहुँच जाएँगे।

यदि हम कार्डबोर्ड में सुई से किए छिद्र द्वारा किसी तस्‍वीर को देखें तो हमें उसका एक नितांत भ्रामक रूप प्राप्‍त होता है, किंतु, तथापि हम जो देखते हैं, वह वास्‍तव में तस्‍वीर ही है। छिद्र को हम जितना बढ़ाते जाते हैं, उस तस्‍वीर के बारे में हमारी धारणा उतनी ही स्‍पष्‍ट हो जाती है। हम अपनी नाम-रूपविषयक भ्रमात्‍मक उपलब्धि के अनुसार ही सत्‍य-वस्‍तु के संबंध में विभिन्‍न धारणा करते हैं। और जब हम कार्डबोर्ड को फें‍क देते हैं, तब भी हम वही तस्‍वीर देखते हैं, किंतु तब उसे वैसी देखते हैं जैसी वह वास्तव में है। हम इस तस्वीर में चाहे जितने प्रकार के गुणों या भ्रमात्मक धारणाओं का आरोप क्यों न करें, किंतु तस्‍वीर में उससे कुछ भी परिवर्तन नहीं होता। इसी प्रकार आत्‍मा ही सभी वस्‍तुओं का मूल सत्‍य स्‍वरूप है- हम जो कुछ देखते हैं, सभी आत्‍मा हैं, किंतु हम उसे जिस प्रकार नाम-रूप करके देखते हैं, वह वैसी नहीं है। यह नाम-रूप हमारे पर्दे में, माया में हैं।

ये सब मानो दूरबीन के विषयग्राही शीशे के दाग़ हैं; और जैसे सूर्य के प्रकाश द्वारा ही हम ये सब दाग़ देख पाते है, उसी प्रकार ब्रह्मरूप सत्‍य वस्‍तु के पृष्‍ठ-भाग में न रहने से हम भ्रम भी नहीं देख पाते। स्‍वामी विवेकानंद नाम का मनुष्‍य इस दूरबीन के विषयग्राही काँच का दाग़ मात्र है। वास्‍तव में मैं केवल सत्‍यस्‍वरूप अपरिणामी आत्‍मा हूँ, और केवल सत्‍य वस्‍तु ही मुझे स्‍वामी विवेकानंद को देखने में समर्थ बनाती है। सभी भ्रमों की मूलभूत सार-सत्ता है आत्‍मा-और जैसे सूर्य इस काँच के दागों के साथ कभी अभिन्‍न नहीं माना जाता, वह हमें केवल दाग़ मात्र दिखा देता है, उसी प्रकार आत्‍मा भी नाम-रूप के साथ कभी भी मिलती नहीं। हमारे शुभ या अशुभ कर्म समूह इन दागों को केवल घटा या बढ़ा देते हैं, किंतु वे हमारे अंत:स्थित ईश्‍वर के ऊपर कोई प्रभाव नहीं डाल पाते। मन के दागों को पूर्ण रूप से साफ़ कर डालो। ऐसा करने पर ही हम देख सकेंगे-'मैं और मेरे पिता एक ही हैं।'

हम पहले प्रत्‍यक्षानुभूति करते हैं, युक्ति-विचार बाद में आता है। हमें यह प्रत्‍यक्षानुभूति प्राप्‍त करनी होगी, और इसी को धर्म, साक्षात्‍कार कहा जाता है। किसी व्‍यक्ति ने भले ही शास्‍त्र, संप्रदाय या अवतारों का नाम भी न सुना हो, किंतु यदि उसने प्रत्‍यक्षानुभूति कर ली है, तो उसे और किसी बात का प्रयोजन नहीं रह जाता। चित्त शुद्ध करो-यही संपूर्ण धर्म है, और हम जब तक अपने मन के इन दागों को दूर नहीं करते, तब तक हम उस सत्‍य का तत्त्वत: दर्शन नहीं कर सकते। शिशु संसार में कोई भी पाप नहीं देख पाता, क्‍योंकि बाहर के पापों का परिमाण-निर्णायक कोई मापदंड उसके भीतर है ही नहीं। अपने भीतर की दोष-राशि को दूर कर डालो, तो तुम बाहर के दोषों को फिर नहीं देख पाओगे। शिशु के सामने डकैती होती है, परंतु उसके लिए वह कोई अर्थ ही नहीं रखती। किसी चित्र-पहेली में छिपी हुई वस्‍तु को यदि तुम एक बार देख लो, तो फिर तुम उसे सर्वदा देख सकोगे। इसी प्रकार जब तुम एक बार मुक्‍त और निर्दोष हो जाओगे, तब तुम जगत्‍प्रपंच के भीतर मुक्ति और शुद्धता के अतिरिक्‍त और कुछ भी नहीं देख पाओगे। उसी क्षण हृदय की सभी ग्रन्थियाँ छिन्‍न हो जाती हैं, सभी टेढ़े-मेढ़े स्‍थान सीधे हो जाते हैं, और यह जगत्‍प्रपंच स्‍वप्‍न के समान उड़ जाता है। और निद्राभंग होते ही यह सोचकर कि हमने ये सब निरर्थक स्‍वप्‍न देखे, हमें आश्‍चर्य होता है।

'जिसे' प्राप्‍त कर लेने पर पर्वतप्राय दु:ख भी हृदय को विचलित नहीं कर पाता', (उसे प्राप्‍त करना होगा)।

ज्ञान-कुठार द्वारा देह और मन के चक्रों को काट डालो-ऐसा करने पर ही आत्‍मा मुक्‍तस्‍वरूप होकर पृथग्‍भाव से स्थित हो सकेगी-यद्यपि पुराने वेग में उस समय भी चक्रद्वय कुछ देर के लिए चलते रहेंगे। परंतु उस समय चक्र सीधे ही चलेंगे, अर्थात् इस देह-मन के द्वारा शुभ कार्य ही होगा। यदि उस शरीर के द्वारा कुछ बुरे कार्य होते हैं, तो समझ लो, वह व्‍यक्ति जीवन्‍मुक्‍त नहीं है-यदि वह अपने को जीवन्‍मुक्‍त कहलाने का दावा करता है, तो उसकी यह बात मिथ्‍या है। जब चित्तशुद्धि के द्वारा चक्रों की गति सीधी दिशा में हो गई हो, केवल उसी समय उस पर कुठाराघात संभव है। सभी शुद्धिकारक कर्म अज्ञान को ज्ञात या अज्ञात रूप में नष्‍ट करते हैं। दूसरे को पापी कहने से बढ़कर और कोई बुरा कार्य नहीं है। शुभ कार्य बिना समझ के भी यदि किया जाए, तो भी उसका फल अच्‍छा ही होता है-वह बंधन-मोचन में सहायता करता है।

दूरबीन के काँच के दागों का तादात्‍म्‍य सूर्य के साथ कर देना ही मूलभूत भ्रम है। वह 'अहं' सूर्य, किसी भी वस्‍तु से सदा अप्रभावित रहता है, यह समझ लो और अपने को इन दागों के हटाने में नियुक्‍त करो। मनुष्‍य से बढ़कर श्रेष्‍ठ प्राणी और कोई नहीं है। कृष्‍ण, बुद्ध और ईसा के समान मनुष्‍यों की उपासना ही सर्वश्रेष्‍ठ उपासना है। तुम्‍हें जिस किसी वस्‍तु का अभाव-बोध होता है, उसकी सृष्टि तुम्‍हीं करते हो-वासनामुक्‍त हो जाओ।

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देवदूत और पितर सभी इसी जगत में रहते हैं-इसी जगत को वे स्‍वर्ग-रूप में देखते हैं। वही अज्ञात वस्‍तु 'क' को सभी अपने- अपने मन के भाव के अनुसार भिन्‍न-भिन्‍न रूप में देखते हैं। किंतु इस पृथ्‍वी पर इस अज्ञात वस्‍तु का सर्वोत्तम दर्शन प्राप्‍त हो सकता है। कभी भी स्‍वर्ग जाने की इच्छा मत करो-यह भ्रम निकृष्टितम है। इस पृथ्‍वी पर भी अत्‍यधिक धन और घोर दरिद्रता दोनों ही बंधन हैं- दोनों ही हमें धर्म से दूर रखते हैं। हमारे पास तीन वरदान हैं-प्रथम, मनुष्‍य देह (मुनष्‍य का मन ही ईश्‍वर का निकटतम प्रतिबिंब है, हम 'उसकी ही प्रतिमा हैं।') द्वितीय, मुक्‍त होने के लिए आकांक्षा। तृतीय, गुरु के रूप में एक ऐसे महात्‍मा की सहायता प्राप्‍त करना, जो स्‍वयं इस मोहसागर को पार कर चुका हो। [१] इन तीनों की यदि प्राप्ति हो जाए तो भगवान् को धन्‍यवाद, तुम अवश्‍यमेव मुक्‍त होओगे।

जो केवल बुद्धि के द्वारा तुम ग्रहण करते हो, उसको कोई नया तर्क उड़ा दे सकता है, किंतु जिसकी अनुभूति तुम्‍हें होती है, वह सदा के लिए तुम्‍हारा अपना हो जाता है। धर्म के संबंध में केवल वाक्‍चातुरी से कुछ फल नहीं होता। जिस किसी वस्‍तु के संपर्क में आओ-जैसे मनुष्‍य, जानवर, आहार, क्रियाकलाप-सभी के भीतर ब्रह्मदर्शन करो-और इस प्रकार के सर्वत्र ब्रह्मदर्शन को अभ्‍यास में परिणत करो।

(अमेरिका के विख्‍यात अज्ञेयवादी) इंगरसोल ने मुझसे एक बार कहा था-'इस जगत से जितना अधिक लाभ प्राप्‍त किया जा सके, उसे प्राप्त करने की चेष्‍टा सभी को करनी चाहिए- यह मेरा विश्‍वास है। संतरे को निचोड़कर जितना निकल सके सभी रस निकाल लें-जिससे रस की एक बूंद भी व्‍यर्थ न जाए-क्‍योंकि हम इस जगत को छोड़कर अन्‍य किसी जगत के अस्तित्‍व के संबंध में निश्चित नहीं हैं।' मैंने उन्‍हें उत्तर दिया-'मैं आपकी अपेक्षा इस जगरूपी संतरे को निचोड़ने की और अधिक उत्‍कृष्‍ट प्रणाली जानता हूँ-और मैं उससे अधिक रस प्राप्‍त करता हूँ। मैं जानता हूँ, मैं मर नहीं सकता, अतएव मुझे रस निचोड़ने की जल्‍दी नहीं पड़ी है। मैं जानता हूँ, भय का कोई कारण नहीं है-अतएव आनंदपूर्वक निचोड़ता हूँ। मेरा कोई कर्तव्‍य नहीं है, मुझे स्‍त्री-पुत्रादि और विषय-संपत्ति का कोई बंधन नहीं है, मैं सभी नर-नारियों से प्रेम रख सकता हूँ। सभी मेरे लिए ब्रह्मस्‍वरूप हैं। मनुष्य को भगवान समझकर उसके प्रति प्रेम रखने में कितना आनंद है ! संतरे को इस रूप से निचोड़ कर देखिए-अन्‍य रूप से निचोड़ने पर आप जो रस पाएंगे, उसकी अपेक्षा इस प्रकार निचोड़ने पर दस हजार गुना अधिक रस पाएंगे-रस की एक बूँद भी व्‍यर्थ न जाएगी।'

जिसे हम -'इच्छा' समझते हैं, वास्‍तव में वही हमारी अंत::स्‍थ आत्‍मा है, और वह मुक्‍तस्‍वभाव है।

सोमवार , अपराह्न

ईसा मसीह असंपूर्ण थे, क्‍योंकि उन्‍होंने जिस आदर्श का प्रचार किया था, उसके अनुसार संपूर्ण भाव से उन्‍होंने जीवन-यापन नहीं किया और सर्वोपरि इस कारण कि उन्‍होंने नारी जाति को पुरुष के तुल्‍य अधिकार नहीं दिया। स्त्रियों ने ही उनके लिए सब कुछ किया, किंतु वे यहूदियों के देशाचार द्वारा इतने बद्ध थे कि एक स्‍त्री को भी वे 'प्रेरित शिष्‍या' (apostle) न बना सके। तथापि उच्‍चतम चरित्र की दृष्टि से बुद्ध के बाद उनका स्‍थान है- इसी तरह बुद्ध भी एकांतत: संपूर्ण रहे हों, सो भी नहीं है। जो कुछ हो, परंतु बुद्ध ने धर्म में पुरुषों के समान ही स्त्रियों का भी अधिकार स्‍वीकार किया था, और उनकी अपनी स्‍त्री ही उनकी प्रथम और प्रधान शिष्‍या थीं। वह बौद्ध भिक्षुणियों की अधिनायिका हुई थीं। किंतु हमें इन महापुरुषों का दोषानुसंधान करना उचित नहीं। हमें उनके बारे में केवल यही धारणा रखनी चाहिए कि वे हमारी अपेक्षा अनंत गुना श्रेष्‍ठ थे। कोई कितना ही बड़ा क्‍यों न हो, उस पर केवल विश्‍वास करके ही हमें पड़े न रहना चाहिए, हमें भी बुद्ध और ईसा बनना होगा।

किसी व्‍यक्ति के दोष या उसकी असंपूर्णता देखकर उसके बारे में विचार करना उचित नहीं है। मनुष्‍य का जो महा सद्गुण देखा जाता है, वह उसका अपना है, किंतु उसके दोष मनुष्‍य जाति की सर्वसाधारण दुर्बलता मात्र हैं; अतएव उनके चरित्र का विचार करते समय उनकी ओर ध्‍यान नहीं देना चाहिए।

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अंग्रेजी वर्चू (virtue-धर्म) शब्‍द संस्‍कृत 'वीर' शब्‍द से आया है; क्‍योंकि प्राचीन काल में श्रेष्‍ठ योद्धा ही सर्वाधिक श्रेष्‍ठ माना जाता था।

३० जुलाई , मंगलवार

ईसा और बुद्ध प्रभूति-वे आलंबन हैं जिन पर हम अपनी आभ्‍यंतरीण शक्तियों का आरोपण मात्र करते हैं। अपनी प्रार्थना का उत्तर वस्‍तुत: स्‍वयं हमीं देते हैं।

यह सोचना कि यदि ईसा उत्‍पन्‍न न होते तो मनुष्‍य जाति का कभी भी उद्धार न होता, घोर नास्तिकता है। मनुष्‍य-स्‍वभाव के भीतर जो ऐश्‍वरिक भाव अंत:र्निहित है, उसे इस प्रकार भूल जाना बड़ा भयानक है-यह ईश्‍वरी भाव कभी न कभी प्रकाशित होगा ही। मनुष्‍य-स्‍वभाव की महिमा कभी मत भूलना। भूत या भविष्‍य में, न कोई हमारी अपेक्षा श्रेष्‍ठ ईश्‍वर था, न होगा। मैं ही वह अनंत महासमुद्र हूँ- ईसा, बुद्ध प्र‍भृति उसकी तरगें मात्र हैं। तुम अपने अंत:स्‍थ आत्‍मा को छोड़ और किसीके सामने सिर मत झुकाओ। जब तक तुम यह अनुभव नहीं करते कि तुम स्‍वयं देवों के देव हो, तब तक तुम मुक्‍त नहीं हो सकते।

हमारे सभी अतीत कर्म वास्‍तव में अच्‍छे हैं, क्‍योंकि हमारी जो चरमावस्‍था होगी, उसी ओर हमारे ये सभी कर्म हमें ले जाते हैं। किसके निकट मैं भिक्षा-याचना करूँगा ? मैं ही यथार्थ सत्ता हूँ, और जो कुछ मेरी सत्ता से भिन्‍न रूप में प्र‍तीयमान होता है, वह तो स्‍वप्‍न मात्र है। मैं ही समग्र समुद्र हूँ-तुम स्‍वयं इस समुद्र में जिस एक क्षुद्र तरंग की सृष्टि करते हो, उसे 'मैं' मत कहो। यह जान लो कि वह तो उस समुद्र की तरंग के अतिरिक्‍त और कुछ भी नहीं है। सत्‍यकाम (सत्‍य का प्रेमी) ने सुना था कि उनकी हृदयाभ्‍यंतरस्‍थ वाणी उनसे कह रही है, 'तुम अनंतस्‍वरूप हो, वही सर्वव्‍यापिनी सत्ता तुम्‍हारे भीतर विराजमान है। अपने को संयत करो, और तुम अपनी यथार्थ आत्‍मा की वाणी सुनो।'

जो महापुरुष प्रचार-कार्य के लिए अपना जीवन समर्पित कर देते हैं, वे उन महापुरुषों की तुलना में अपेक्षाकृत अपूर्ण हैं, जो मौन रह कर पवित्र जीवन-यापन करते हैं एवं श्रेष्‍ठ विचारों का चिंतन करते हुए जगत की सहायता करते हैं। इन सभी महापुरुषों में एक के बाद दूसरे का आविर्भाव होता है-अंत: में उनकी शक्ति का चरम फलस्‍वरूप ऐसा कोई शक्तिसंपन्‍न पुरुष आविर्भूत होता है, जो जगत को शिक्षा प्रदान करता है।

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ज्ञान स्‍वयमेव वर्तमान है, मनुष्‍य केवल उसका आविष्‍कार मात्र करता है। वेदसमूह ही यह चिरंतन ज्ञान है, जिसकी सहायता से ईश्‍वर ने इस जगत की सृष्टि की है। वे उच्‍चतम दार्शनिक तत्त्‍वों की चर्चा करते हैं और साथ ही यह महान दावा भी करते हैं।

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जो सत्‍य है, उसे साहसपूर्वक निर्भीक होकर लोगों से कहो-उससे किसी को कष्‍ट होता है या नहीं, इस ओर ध्‍यान मत दो। दुर्बलता को कभी प्रश्रय न दो। सत्‍य की ज्‍योति बुद्धिमान मनुष्‍यों के लिए यदि अत्‍यधिक मात्रा में प्रखर प्रतीत होती है, और उन्‍हें बहा ले जाती है तो ले जाने दो-वे जिनता शीघ्र बह जाएं उतना अच्‍छा ही है। बचकाने विचार बच्‍चों को तथा जंगली असभ्‍यों को ही शोभा देते हैं; किंतु देखा जाता है कि वे केवल शिशुशाला या जंगलों में ही सीमित नहीं हैं, उनमें से कुछ उपदेशकों के आसन पर भी प्रतिष्ठित हैं।

आध्‍यात्मिक दृष्टि से विकसित हो चुकने पर धर्मसंघ में बने रहना अवांछनीय है। उससे बाहर निकलकर स्‍वाधीनता की मुक्‍त वायु में जीवन व्‍यतीत करो।

जो कुछ उन्‍नति होती है, वह सापेक्षिक जगत में ही होती है। मानव-देह ही सर्वश्रेष्‍ठ देह है, एवं मनुष्‍य ही सर्वोच्‍च प्राणी है, क्‍योंकि इस मानव-देह तथा इस जन्‍म में ही हम इस सापेक्षिक जगत से संपूर्णतया बाहर हो सकते हैं-निश्‍चय ही मुक्ति की अवस्‍था प्राप्‍त कर सकते हैं, और यह मुक्ति ही हमारा चरम लक्ष्‍य है। केवल हम ही नहीं हैं, बहुत से अन्‍य व्‍यक्ति भी मुक्‍तावस्‍था प्राप्त कर चुके हैं, अतएव आगे चल कर कितने ही अधिक श्रेष्‍ठ शरीर क्‍यों न आवें, वे रहेंगे सापेक्ष स्‍तर पर ही, और हमारी अपेक्षा कुछ भी अधिक उपलब्‍ध नहीं कर सकेंगे। क्‍योंकि मुक्ति-लाभ के अतिरिक्‍त और कौन सी उच्‍चावस्‍था का लाभ किया जा सकता है ? देवदूत कभी कोई बुरे कार्य नहीं करते, इसलिए उन्‍हें कभी दंड भी प्राप्‍त नहीं होता; अतएवं वे मुक्‍त भी नहीं हो सकते। सांसारिक धक्‍का ही हमें जगा देता है, वही इस जगत्‍स्‍वप्‍न को भंग करने में सहायता पहुँचाता है। इस प्रकार के लगातार आघात ही इस जगत की असंपूर्णता के परिचायक हैं, वे ही इस संसार से छुटकारा पाने की अर्थात् मुक्ति-लाभ करने की हमारी आकांक्षा को जाग्रत करते हैं।

* * *

किसी वस्‍तु को जब हम अस्‍पष्‍ट भाव में प्रत्‍यक्ष करते हैं, तब हम उसका एक नाम रखते हैं, और फिर जब उसी वस्‍तु का प्रत्‍यक्ष हम पूर्ण रूप से कर लेते हैं, तब उसको एक दूसरा नाम दे देते हैं। हमारी नैतिक प्रकृति जितनी उन्‍नत होती है, उतना ही उच्‍च हमारा प्रत्‍यक्ष बोध होता है, और उतनी ही हमारी इच्छा-शक्ति अधिक बलवती होती है।

मंगलवार , अपराह्न

जड़ और चेतन के भीतर हम जो सामंजस्‍य देखते हैं, उसका कारण यह है कि वे दोनों ही एक अज्ञात वस्‍तु 'क' के दो पहलू हैं, वही वस्‍तु दो भागों में विभक्‍त हो बाह्य और आंतर रूप में स्थित है।

अंग्रेजी का 'पैराडाइज' शब्‍द संस्‍कृत 'पर-देश' शब्‍द से आया है, यह शब्‍द फारसी भाषा में चला गया था- इसका अर्थ होता है देश के पार अथवा अन्‍य देश या अन्‍य लोक। प्राचीन आर्य लोग सर्वदा आत्‍मा में विश्‍वास करते थे, वे मुनष्‍य को केवल देह कभी नहीं समझते थे। उनके मत में स्‍वर्ग-नरक दानों ही सान्‍त हैं, क्‍योंकि कोई भी कार्य अपने कारण के नष्‍ट हो जाने के बाद कभी भी नहीं रह सकता, और कोई भी कारण चिरस्‍थायी नहीं है; अतएव कार्य या फल मात्र का नाश होगा ही।

निम्‍नलिखित उपाख्यान में समग्र वेदांत दर्शन का सार निहित है-

स्‍वर्ण पक्षवाले दो पक्षी एक वृक्ष पर वास करते हैं। ऊपर जो पक्षी बैठा है, वह स्थिर, शांत भाव से अपनी महिमा में स्‍वयं विभोर होकर रहता है; और जो पक्षी नीचे की डाल पर बैठा है, वह सदा चंचल रहता है, और वह इस वृक्ष का कभी मीठा फल, कभी कड़ुआ फल खाता है। एक बार उसने एक अत्‍यंत कटु फल खाया; तब कुछ स्थिर होकर ऊपर बैठे हुए उस महिमामय पक्षी की ओर उसने देखा। किंतु फिर वह उसे शीघ्र ही भूल गया, और पहले के समान ही उस वृक्ष के फल खाने में लग गया। फिर उसने एक कटु फल खाया-इस बार वह फुदक फुदककर ऊपर की ओर कूदा और ऊपर के पक्षी के कुछ समीप जा पहुँचा। इस प्रकार अनेक बार हुआ, अंत: में नीचे का पक्षी बिल्‍कुल ऊपर के पक्षी के स्‍थान पर जा बैठा, और अपने को खो बैठा-अर्थात् ऊपरवाले पक्षी के साथ एकरूप हो गया। अब उसे यह ज्ञान हुआ कि दो पक्षी कभी भी नहीं थे, वह स्‍वयमेव सर्वदा शांत, स्थिर भाव से स्‍वमहिमा में मग्‍न, ऊपरवाला पक्षी ही था।

३१ जुलाई , बुधवार


लूथर [2] ने धर्म से संन्‍यास या त्‍याग को दूर कर उसके स्‍थान में केवल नैतिकता को स्‍थापित करके धर्म को काफी चोट पहुँचाया। नास्तिक और जड़वादी लोग भी नीतिपरायण हो सकते हैं, किंतु धर्म-लाभ तो केवल ईश्‍वर-विश्‍वासी ही कर सकते है।

महान आत्‍माओं की पवित्रता का मूल्‍य दुष्‍ट लोग अदा करते हैं। अत: किसी बुरे आदमी को देख कर यह स्‍मरण कर लो। जैसे ग़रीबों के परिश्रम के फल से धनी लोगों की विलासिता संभव है, वैसा ही आध्‍यात्मिक जगत में भी है। भारत के साधारण लोगों की जो इतनी अवनति देखी जाती है, वह तो मानो मीराबाई, बुद्ध प्रभृति महात्‍माओं के उत्‍पादन के लिए प्रकृति द्वारा चुकाया हुआ मूल्‍य है। [3]

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'मैं ही (पावनों की पावनता हूँ), 'मैं ही सभी का मूल हूँ, प्रत्‍येक व्‍यक्ति उसका उपयोग इच्छानुसार करता है, किंतु सब कुछ मैं ही हूँ।' 'मैं ही सब करता हूँ, तुम निमित्त मात्र हो।'

बहुत बकवाद न करो, अपने भीतर की आत्‍मा का अनुभव करो, तभी तुम ज्ञानी होगे। यह है ज्ञान, और शेष सब अज्ञान। जानने की वस्‍तु एकमात्र ब्रह्म है। वही सब कुछ है।

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सत्त्‍व गुण मनुष्‍य को सुख और ज्ञान के अन्‍वेषण द्वारा बद्ध करता है, रजोगुण वासना द्वारा बद्ध करता है, और तमोगुण भ्रमज्ञान, आलस्‍य प्रभृति द्वारा बद्ध करता है। रज, तम-इन दो निकृष्‍ट गुणों को सत्त्‍व के द्वारा जीत लो, उसके बाद सब कुछ ईश्‍वर में समर्पित कर मुक्‍त हो जाओ।

भक्तियोगी अतिशीघ्र ब्रह्मोपलब्धि करते हैं, और तीनों गुणों के अतीत हो जाते हैं।

इच्छा, ज्ञान इंद्रिय, कामना तथा अन्‍य वासनाएँ जीवात्‍मा का रूप धारण करती हैं।

प्रथम, प्रातिभासिक आत्‍मा (देह) है; द्वितीय, मानसात्‍मा है- जो देह को ही 'मैं' समझता है; तृतीय, यथार्थ आत्‍मा है, जो नित्‍य शुद्ध, नित्‍य मुक्‍त है। आंशिक भाव से देखने पर वह प्रकृति-रूप से ज्ञात होता है, पूर्ण भाव से देखने पर समस्‍त प्रकृति उड़ जाती है; इतना ही नहीं, उसकी स्‍मृति भी लुप्‍त हो जाती है। प्रथम-परिणामी और अनित्‍य है, द्वितीय-प्रवाह रूप से नित्‍य (प्रकृति) है, तृतीय-कूटस्‍थ नित्‍य आत्‍मा है।

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आशा का संपूर्ण रूप से त्‍याग कर दो, यही है सर्वोच्‍च अवस्‍था। आशा किस बात के लिए करें ? आशा का बंधन छिन्‍न कर डालो; अपनी आत्‍मा का ही आश्रय लो, स्थिर होओ; जो करो, सब भगवान् में अर्पण कर दो, किंतु उसमें किसी प्रकार का कपट मत करो।

भारत में किसी से कुशल-प्रश्‍न पूछते समय 'स्‍वस्‍थ' (जिससे 'स्‍वास्‍थ्‍य' शब्‍द आया है) संस्‍कृत शब्‍द का व्‍यवहार होता है-स्‍वस्‍थ शब्‍द का अर्थ स्‍व अर्थात् आत्‍मा में प्रतिष्ठित होना। हिंदू लोग किसी वस्‍तु को देखने पर उस वस्‍तु का बोध यदि उन्‍हें दूसरों को कराना होता है तो वे कहते हैं, मैंने एक पदार्थ देखा है। 'पदार्थ' का अर्थ है, पद या शब्‍द का अर्थ। इतना ही नहीं, यह जगत्‍प्रपंच भी उनके लिए एक 'पदार्थ' है।

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जीवन्‍मुक्‍त पुरुष का शरीर अपने आप ही शुभ कार्य करता है। वह केवल शुभ कार्य ही कर सकता है, क्‍योंकि वह संपूर्ण रूप से पवित्र हो गया है। जिस अतीत संस्‍कार रूपी वेग के द्वारा उनका देहचक्र परिचालित होता है, वह शुभ ही है। बुरे संस्‍कार सब दग्‍ध हो गए हैं।

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'यथार्थ दुर्दिन वही कहा जाता है, जिस दिन हम भगवत्‍कथा वर्णन नहीं करते; जिस दिन आँधी-वर्षा होती है, उस दिन को वास्‍तव में 'दुर्दिन' नहीं कहा जाता।'

उस परम प्रभु के प्रति प्रेम भाव रखने का नाम ही यथार्थ भक्ति है। अन्‍य किसी पुरुष के प्रति प्रेम भाव रखने का नाम भक्ति नहीं है, चाहे वह कितने ही बड़े क्‍यों न हों। यहाँ परम प्रभु का अर्थ है परमेश्‍वर। तुम लोग पाश्‍चात्य देश में वैयक्तिक ईश्‍वर (Personal God) कहने से जो समझते हो, भारत में परमेश्‍वर की धारणा उसकी अपेक्षा बहुत श्रेष्‍ठ है। 'जिनसे इस जगत्‍प्रपंच की उत्‍पत्ति हुई है, जिनमें यह अवस्थित रहता है और प्रलय काल में यह जिनमें लय हो जाता है, वे ही ईश्‍वर हैं; वे नित्‍य, शुद्ध, सर्वशक्तिमान, सदा मुक्‍तस्‍वभाव, दयामय, सर्वज्ञ, सभी गुरुओं के गुरु एवं अनिर्वचनीय प्रेमस्‍वरूप हैं।'

मनुष्‍य अपने मस्तिष्‍क से भगवान् की सृष्टि नहीं करता; किंतु उसमें जितनी शक्ति है, उसके अनुसार वह उनके बारे में धारणा कर सकता है और उसकी जो सर्वोत्‍कृष्‍ट धारणाएँ हैं, उन्हें वह उनमें आरोपित करता है। इसी एक एक गुण के द्वारा पूर्ण ईश्‍वर को समझना ही वास्‍तव में वैयक्तिक ईश्‍वर की दार्शनिक व्‍याख्‍या है। ईश्‍वर निराकार है, फिर भी उसके सभी आकार हैं; ईश्‍वर निर्गुण है, फिर उसमें सभी गुण हैं। हम जब तक मानवभावापन्‍न हैं। उनको बिना स्‍वीकार किए हम रह ही नहीं सकते।

किंतु भक्‍त के लिए यह सब दार्शनिक विभेदीकरण केवल व्‍यर्थ वाग्‍जाल मात्र है। वह युक्ति-विचार को ग्राह्य ही नहीं समझता, वह तर्क नहीं करता-वह प्रत्‍यक्ष अनुभव को ही श्रेष्‍ठ समक्षता है। वह ईश्‍वर के शुद्ध प्रेम में आत्‍महारा हो जाना चाहता है; और ऐसे अनेक भक्‍त हो गए हैं, जो कहते हैं, मुक्ति की अपेक्षा यही अवस्‍था अधिक वांछनीय है। वे कहते हैं- 'चीनी होना अच्‍छा नहीं, किंतु चीनी खाना अच्‍छा है'-'मैं उस परम प्रेमास्‍पद को प्‍यार करना चाहता हूँ, उनका उपभोग करना चाहता हूँ।'

भक्तियोग में प्रथम विशेष प्रयोजन है, निष्‍कपट और प्रबल भाव से ईश्‍वर को चाहना। हम ईश्‍वर को छोड़कर और सभी कुछ चाहते है; क्‍योंकि बहिर्जगत् से हमारी सभी वासनाएँ पूर्ण होती हैं। जब तक हमारी आवश्‍यकताएँ जड़ जगत के भीतर ही सीमाबद्ध हैं, तब तक हम ईश्‍वर के अभाव का बोध नहीं कर पाते; किंतु जब हम पर इस जीवन में चारों ओर से प्रबल आघात पड़ते हैं और इस जगत के सभी विषयों से जब हम निराश हो जाते हैं, तभी किसी उच्‍चतर वस्‍तु की हमें आवश्‍यकता प्रतीत होती है, तभी हम ईश्‍वर का अन्‍वेषण करते हैं।

भक्ति विध्‍वंसात्‍मक नहीं है, वरन् भक्तियोग की शिक्षा यह है कि हमारी सभी क्षमताएँ मुक्ति-लाभ करने का उपायस्‍वरूप हो सकती हैं। इन सभी वृत्तियों को ईश्‍वराभिमुख करना होगा-साधारणरत: जो प्रेम अनित्‍य इंद्रिय-विषयों में नष्‍ट किया जाता है, वही ईश्‍वर को समर्पित करना होगा। तुम्‍हारी पाश्‍चात्य धर्म की धारणा से भक्ति में अंत:र इतना ही है कि भक्ति में भय का कोई स्‍थान नहीं है-भक्ति के द्वारा किसी पुरुष का क्रोध शांत करने या किसी को संतुष्‍ट करने की आवश्‍यता नहीं होती। इतना ही नहीं, ऐसे भी भक्‍त हैं, जो ईश्‍वर की उपासना पुत्र भाव से करते हैं-इस प्रकार की उपासना का उद्देश्‍य यही है कि ऐसी उपासना में भय या भयमिश्र भक्ति का कोई भाव नहीं रहता। प्रकृत प्रेम में भय नहीं रह सकता, और जब तक थोड़ा सा भी भय रहेगा, तक तक भक्ति का आरंभ ही नहीं हो सकता, एवं भक्ति में भगवान् से शिक्षा माँगने का भाव अथवा उनके साथ क्रय-विक्रय करने का भाव नहीं रहता। भगवान् के पास किसी वस्‍तु के लिए प्रार्थना भक्‍त की दृष्टि में महान अपराध है। भक्‍त कभी भी भगवान् से आरोग्‍य या ऐश्‍वर्य की कामना नहीं करता, इतना ही नहीं, वह स्‍वर्ग तक की कामना नहीं करता।

जो भगवान् से प्रेम करना चाहते हैं, भक्‍त होना चाहते हैं, उन्‍हें इन सभी वासनाओं की एक पोटली बाँधकर उसे दरवाजे के बाहर फेंककर प्रवेश करना होगा। जो उस ज्योति के राज्‍य में प्रवेश करना चाहते हैं, उन्‍हें उसके दरवाजे में प्रेवश करने के पहले ही 'दुकानदारी के धर्म' की पोटली बाहर फेंक देनी होगी। मैं ऐसा नहीं कहता कि भगवान् से जो वस्‍तु चाही जाती है, वह मिलती नहीं-उनसे तो सब कुछ मिलता है, परंतु इस प्रकार प्रार्थना करना अत्यंत निम्‍न स्‍तर का धर्म है, भिखारियों का धर्म है।

उषित्‍वा जाह्नवीतीरे कूपं खनति दुर्मति:- 'वह व्‍यक्ति सचमुच मूर्ख है, जो गंगा-तीर पर वास करता हुआ भी जल के लिए कुआँ खोदता है।' और मूर्ख है वह जो हीरों की खान में पहुँच कर काँच के मनकों की खोज में व्‍यक्‍त हो जाता है। इन सभी आरोग्‍य, ऐश्‍वर्य और ऐहिक अभ्‍युदयों के लिए प्रार्थना करना भक्ति नहीं कहलाती-ये सब अत्यंत निम्‍न स्‍तर के कर्म हैं। भक्ति इसकी अपेक्षा कहीं ऊँची वस्‍तु है। हम राजाधिराज के सामने जाने की चेष्‍टा कर रहे हैं। हम वहाँ पर भिखारी के वेश में नहीं जा सकते। यदि हम किसी महाराजा के सम्‍मुख जाने की इच्छा करें, तो क्‍या भिखारी के समान मैला-कुचैला वस्‍त्र पहनकर वहाँ जा सकते हैं ? कभी नहीं। दरबान हमें फाटक पर से ही भगा देगा। भगवान् राजाधिराज हैं- हम उनके पास कभी भी भिक्षुक के वेश में नहीं जा सकते। दुकानदारों को तो वहाँ प्रवेश करने का अधिकार ही नहीं है- वहाँ पर क्रय-विक्रय बिल्‍कुल ही नहीं हो सकता। तुम लोगों ने बाइबिल में भी पढ़ा होगा, ईसा ने क्रय-विक्रय करनेवालों को मंदिर के बाहर निकाल दिया था।

इसलिए कहने की आवश्‍यकता नहीं कि भक्‍त होने के लिए हमारा प्रथम कर्तव्‍य यह है कि स्‍वर्ग आदि की कामनाओं को हम पूर्ण रूप से दूर कर दें। ऐसा स्‍वर्ग इसी स्‍थान के समान, इसी पृथ्‍वी के समान है- अधिक से अधिक इससे कुछ थोड़ा अच्‍छा हो सकता है, बस इतना ही। ईसाइयों की स्‍वर्ग के बारे में ऐसी धारणा है कि वह अधिक प्रचुर भोगों का स्‍थान मात्र है; अत: वह भगवान् कैसे हो सकता है ? यह जो स्‍वर्ग जाने की वासना है, वह भोग-सुख की ही कामना है। इस वासना का त्‍याग करना होगा। भक्‍त का प्रेम संपूर्णत: विशुद्ध और नि:स्‍वार्थ होना चाहिए।-उसे अपने लिए इहलौकिक या पारलौकिक किसी प्रकार की आकांक्षा नहीं करनी चाहिए।

'सुख-दु: ख' लाभ-क्षति-इन सबका त्‍याग कर दिन-रात ईश्‍वर की उपासना करो-एक क्षण भी व्‍यर्थ मत जाने दो।'

'अन्‍य सभी चिंता छोड़कर सर्वान्‍त:करण से ईश्‍वर की दिन-रात उपासना करो। इस प्रकार दिन-रात उपासित होने पर, वे अपना स्‍वरूप प्रकाशित करते हैं, वे अपने उपासकों को अपनी उपलब्धि में समर्थ करते हैं।'

१ अगस्‍त , बृहस्‍पतिवार

सच्‍चे गुरु वे ही हैं, जिनके द्वारा हमको अपना आध्‍यात्मिक जन्‍म प्राप्‍त हुआ है। वे ही वह साधन हैं, जिसमें से होकर आध्‍यात्मिक प्रवाह हम लोगों में प्रवाहित होता है। वे ही समय आध्‍यात्मिक जगत के साथ हम लोगों के संयोग-सूत्र हैं। व्‍यक्ति-विशेष के ऊपर अतिरिक्‍त विश्‍वास करने से दुर्बलता और अंत::सारशून्‍य बहि:पूजा आ सकती है, किंतु गुरु के प्रति प्रबल अनुराग से उन्‍नति अत्यंत शीघ्र संभव है। वे हमारे अंत::स्थित गुरु के साथ हमारा संयोग करा देते हैं। यदि तुम्‍हारे गुरु के भीतर यथार्थ सत्‍य है तो उनकी आराधना करो, यह गुरुभक्ति तुम्‍हें शीघ्र ही चरम अवस्‍था में पहुँचा देगी।

श्री रामकृष्‍ण शिशु सदृश पवित्रस्‍वभाव थे। उन्‍होंने जीवन में कभी भी रुपये-पैसे का स्‍पर्श नहीं किया, और वे पूर्ण रूप से कामगन्‍धहीन थे। बड़े बड़े धर्माचार्यों के समीप जड़ विज्ञान सीखने मत जाओ, उनकी समग्र शक्ति आध्‍यात्मिक विषयों में प्रयुक्‍त हुई है। श्री रामकृष्‍ण परमहंस के भीतर मनुष्‍य-भाव मर गया था, केवल ईश्‍वरत्‍व अवशिष्‍ट था। वे सचमुच ही पाप को नहीं देख पाते थे-जिन नेत्रों से बहिर्जगत् में पाप का दर्शन होता है, उनकी अपेक्षा वे पवित्रतर दृष्टिसंपन्न थे। इस प्रकार के बहुत थोड़े से ही परमहंसों की पवित्रता ने समग्र जगत को धारण कर रखा है। यदि इन सबकी मृत्‍यु हो जाए, यदि ये सेब जगत का त्‍याग कर दें, तो जगत खंड खंड होकर ध्‍वंस हो जाएगा। वे केवल अपना महोच्‍च पवित्र जीवन-यापन करके लोगों का कल्‍याण करते हैं; किंतु वे जो दूसरों का कल्‍याण करते हैं, उन्‍हें उसकी ख़बर भी नहीं। वे अपना आदर्श जीवन व्‍यतीत करके ही संतुष्ट रहते हैं।

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हमारे भीतर जो ज्ञान-ज्‍योति वर्तमान है, शास्‍त्र उसकी ओर केवल संकेत करते हैं और उसकी अभिव्‍यक्ति करने के उपाय बतलाते हैं, किंतु जब हम स्‍वयं उस ज्ञान को प्राप्‍त करते हैं, तभी हम उनको ठीक-ठीक समझ पाते हैं। जब तुम्‍हारे भीतर उस अंत:र्ज्‍योति का प्रकाश हैं, तो फिर ग्रंथों का क्‍या प्रयोजन ?- तुम केवल अंत:र की ओर दृष्टिपात करो। संपूर्ण शास्‍त्र में जो हैं, तुम्‍हारे अपने भीतर भी वही है, वरन् उसकी अपेक्षा हज़ार गुना अधिक है। कभी भी आपने को दुर्बल मत समझो, सभी शक्तियाँ तुम्‍हारे भीतर विद्यमान हैं।

यदि धर्म और जीवन, शास्‍त्र या किसी महापुरुष के अस्तित्‍व पर ही निर्भर है, तो नष्‍ट हों वे सब धर्म, नष्‍ट हों वे सब शास्‍त्र। धर्म हमारे भीतर ही है। कोई गुरु या कोई शास्‍त्र हमें उसकी प्राप्ति में सहायता मात्र दे सकते हैं, इसके अतिरिक्‍त वे और कुछ भी नहीं कर सकते; और तो क्‍या, इनकी सहायता के बिना भी हम अपने भीतर सभी सत्‍यों को उपलब्‍ध कर सकते हैं। तथापि शास्‍त्र और आचार्यों के प्रति कृतज्ञ रहो, किंतु देखो, ये तुम्‍हें कहीं बद्ध न कर लें; गुरु को ईश्‍वर समझकर तुम उनकी उपासना करो, किंतु अंध भाव से उनका अनुसरण न करो। जहाँ तक हो सके उनसे प्रेम रखो, किंतु स्‍वाधीन भाव से विचार करो। किसी प्रकार का अंधविश्वास तुम्‍हें मुक्ति नहीं दे सकता, तुम स्‍वयं अपनी मुक्ति प्राप्‍त कर लो। ईश्‍वर के संबंध में यह एकमात्र धारणा रखो कि वे हमारे नित्‍य सहायक हैं।

स्‍वाधीनता एवं उच्‍चतम प्रेम- दोनों एक साथ रहने चाहिए। ऐसा होने पर इनमें से कोई भी हमारे बंधन का कारण नहीं हो सकता। हम भगवान् को कुछ भी नहीं दे सकते, वे ही हमें सब कुछ देते हैं। वे सभी गुरुओं के गुरु हैं। वे हमारी आत्‍मा की आत्‍मा हैं, हमारा जो यथार्थ स्‍वरूप है, वह वे ही हैं। जब वे हमारी आत्‍मा के अंतरात्मा हैं, तो हम उनसे प्रेम करेंगे, इसमें आश्‍चर्य ही क्‍या है ? उन्‍हें छोड़ और किस व्‍यक्ति या वस्‍तु से हम प्रेम कर सकते हैं ? हमें दग्‍धेन्‍धनमिवानलम् होना चाहिए। जब तुम केवल ब्रह्म को ही देखोगे, तब फिर किसका उपकार कर सकोगे ? भगवान् का तो उपकार नहीं कर सकते ? उस समय सभी संशय नष्‍ट हो जाते हैं, सर्वत्र समत्‍व भाव आ जाता है। तब यदि तुम किसी का कल्‍याण करते हो, तो स्‍वयं अपना ही करते हो। यह अनुभव करो कि दान लेने वाला तुम्‍हारी अपेक्षा श्रेष्‍ठ है; ऐसा न समझना कि तुम बड़े हो, और वह छोटा है। गुलाब जैसे अपने स्वभाव से ही सुगंध का वितरण करता है, और मैं सुगन्ध दे रहा हूँ, इसकी उसे खबर भी नहीं रहती, उसी प्रकार तुम भी दान दो।

वे श्रेष्‍ठ हिंदू सुधारक राजा राममोहन राय इस प्रकार के नि:स्‍वार्थ कर्म के अद्भुत दृष्‍टान्‍तस्‍वरूप थे। उन्‍होंने अपना संपूर्ण जीवन भारत की सहायता में अर्पण कर दिया था। उन्‍होंने ही विधवाओं की दाह-प्रथा को बन्‍द किया था। साधारणत: लोगों का यह विश्‍वास है कि यह सुधार-कार्य संपूर्णतया अंग्रेजों के द्वारा साधित हुआ है, किंतु वास्‍तव में ऐसा नहीं है। राजा राममोहन राय ने ही इस प्रथा के विरुद्ध आंदोलन आरंभ किया था एवं इस प्रथा का अंत: करने के लिए सरकार से सहायता प्राप्‍त करने में उन्‍हें सफलता मिली थी। जब तक उन्‍होंने आंदोलन प्रारंभ नहीं किया, तब तक अंग्रजों ने कुछ भी नहीं किया। उन्‍होंने ब्राह्म समाज नामक एक विख्‍यात धर्म-समाज भी स्‍थापित किया, और एक विश्वविद्यालय की स्‍थापना के लिए एक लाख डालर का चंदा दिया। वे उसके बाद अलग हो गए और कहा-''तुम लोग मुझे छोड़कर स्‍वयं आगे बढ़ो।'' नाम-यश तो वे बिल्‍कुल ही नहीं चाहते थे, अपने लिए किसी तरह की फलाकांक्षा नहीं रखते थे।

बृहस्‍पतिवार , अपराह्न

घूमनेवाले हिंडोले की तरह अभिव्‍यक्तियों के अनंत क्रम हैं, जिनमें आत्‍मा मानो चढ़कर घूम रही है। से चक-क्रम शाश्‍वत हैं। व्‍यष्टिगत आत्‍माएँ इस झूले में से निकल आती हैं अवश्य, किंतु झूले की गति का विराम नहीं, एक ही प्रकार की घटनाओं की आवृत्ति सदा होती रहती है; और इसी कारण लोगों का भूत-भविष्‍यत् सब कुछ पढ़ा जा सकता है, क्‍योंकि वास्‍तव में सभी वर्तमान है। जब आत्‍मा एक श्रृंखला के भीतर आ पड़ती है, तब उसे उस श्रृंखला का जो कुछ अनुभव या भोग है- सभी कुछ ग्रहण करना पड़ता है। इस प्रकार की एक श्रृंखला या श्रेणी में से आत्‍मा एक दूसरी श्रृंखला या श्रेणी में चली जाती है, और किसी किसी श्रेणी में आने पर वह अपने को ब्रह्मस्‍वरूप अनुभव करती है और फिर सदा के लिए उसमें से बाहर निकल जाती है। इस प्रकार की एक श्रेणी या श्रृंखला विशेष की एक प्रधान घटना का अवलंबन कर समस्‍त श्रृंखला को पकड़कर लाया जा सकता है, और उसके भीतर की समग्र घटनाओं का ज्ञान प्राप्‍त किया जा सकता है। यह शक्ति सरलता से प्राप्‍त की जा सकती है, किंतु इससे वास्‍तव में कोई लाभ नहीं है; और इस शक्ति के लाभ के लिए जितनी चेष्‍टा की जाती है, हमारी आध्‍यात्मिक साधना में उतनी ही हानि पहुँचती हैं। इसलिए उन सब विषयों की चेष्‍टा मत करो, भगवान् की उपासना करो।

२ अगस्‍त , शुक्रवार

निष्‍ठा सिद्धि का प्रारंभ है।

सबसे रसिये सबसे बसिये सबका लीजिए नाम।

हाँ जी हाँ जी करते रहिए बैठिए अपने ठाम।।

-'सभी के साथ आनंद करो, सभी के साथ रहो, सभी का नाम लो, दूसरों की बातों में हाँ-हाँ करते रहो, किंतु अपना भाव कभी मत छोड़ो।' इसकी अपेक्षा उच्‍चतर अवस्‍था है- दूसरे की स्थिति को अपनाना। यदि मैं ही सब हूँ तो अपने भाई के साथ यथार्थ भाव से एवं सक्रिय रूप में सहानुभूति क्‍यों नहीं कर सकता और उसकी आँखों से क्‍यों देख नहीं सकता? जब तक मैं दुर्बल हूँ, तब तक मुझको निष्‍ठापूर्वक एक मार्ग को पकड़े रहना होगा; किंतु जब मैं सबल हो जाऊँगा, तब मैं अन्‍य सभी लोगों के भावों को अनुभव कर सकूँगा, उन भावों के साथ संपूर्ण सहानुभूति रख सकूँगा।

प्राचीन भाव था, 'अन्‍य सभी भावों को नष्‍ट कर एक भाव को प्रबल बनाओ।' आधुनिक भाव है- 'सभी विषयों में सामंजस्‍य रखकर उन्‍नति करो।' एक तृतीय मार्ग है-'मन का विकास करो और उसका संयम करो', उसके बाद जहाँ इच्छा हो वहाँ उसका प्रयोग करो- उससे अति शीघ्र फल-प्राप्ति होगी। यह है यथार्थ आत्‍मोन्‍नति का उपाय। एकाग्रता सीखो, और जिस ओर इच्छा हो उसका प्रयोग करो। ऐसा करने पर तुम्‍हें कुछ खोना नहीं पड़ेगा। जो समस्‍त को प्राप्‍त करता है, वह अंश को भी प्राप्‍त कर सकता है। द्वैतवाद का अद्वैतवाद में अंत:र्भाव होता है।

'मैंने पहले उसे देखा, उसने भी मुझे देखा, मैंने भी उसके प्रति कटाक्ष किया, उसने भी मेरे प्रति कटाक्ष किया'-ऐसा चलता रहा और अंत: में दोनों आत्‍माएँ ऐसे घनिष्‍ठ रूप से मिल गई कि वे एक हो गई।

समाधि के दो प्रकार हैं- एक है सविकल्‍प-इसमें कुछ द्वैत का भास रहता है। और दूसरा निर्विकल्‍प-इसमें ध्‍यान के द्वारा ज्ञाता और ज्ञेय का अभेद हो जाता है।

प्रत्‍येक विशेष के साथ सहानुभूति कर सकने की क्षमता तुममें होनी चाहिए, उसके बाद कूदकर एकदम उच्‍चतम अद्वैत भाव में चले जाना होगा। पहले स्‍वयं संपूर्ण मुक्‍तावस्‍था प्राप्‍त कर लो, उसके बाद इच्छा करने पर फिर अपने को सीमाबद्ध कर सकते हो। प्रत्‍येक कार्य में अपनी समस्‍त शक्ति का प्रयोग करो। कुछ समय के लिए अद्वैत भाव को भूलकर द्वैतवादी होने की शक्ति प्राप्‍त कर लो, परंतु अपनी इच्छानुसार फिर से इस अद्वैत भाव का लाभ करने का सामर्थ्‍य प्राप्‍त कर लो।

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कार्य-कारण सभी माया है; और हम जितने बड़े होंगे, उतना ही समझेंगे कि छोटे छोटे बच्‍चों की परियों की कथा आज हमें जैसी असम्‍बद्ध मालूम होती है, उसी प्रकार जो कुछ हम देखते हैं, वह भी वैसा ही असंबद्ध है। वास्‍तव में कार्य-कारण पद-वाच्‍य कुछ भी नहीं है; यह बात हम यथासमय समझ सकेंगे। अतएव यदि कर सको तो जब कोई रूपक-कथा सुनो, तब अपनी बुद्धि को कुछ नीचे ले आओ, मन ही मन इस कथा की पूर्वापर संगति के विषय में प्रश्‍न मत उठाओ। रूपक-वर्णन और सुंदर कवित्‍व के प्रति हृदय में अनुराग का विकास करो, उसके बाद समस्‍त पौराणिक वर्णनों का कवि-दृष्टि से रसास्‍वादन करो। पुराण-चर्चा के समय इतिहास और विचार की दृष्टि मत लाओ। इन सब पौराणिक कल्‍पनाओं को अपने मन में एक प्रवाह के रूप में बहने दो। तुम अपनी आँखों के सामने उन्‍हें मशाल के सामन घुमाओ-मशाल को कौन पकड़े हुए है, यह प्रश्‍न मत करो। इस प्रकार घुमाने से वह चक्राकार धारण करेगी, इसमें जो सत्‍य का कण अंत:र्निहित है, वह तुम्‍हारी समझ में आ जाएगा।

सभी पुराण-लेखकों ने जो जो देखा या सुना था, उसीको रूपकाकार में लिखा है- वे कुछ प्रवहमान चित्र अंकित कर गए हैं। उनके भीतर से केवल उनके प्रतिपाद्य विषय को ही निकाल लेने की चेष्‍टा करके चित्रों को नष्‍ट मत कर डालो। वे जिस रूप में हैं, उसी रूप में उन्‍हें ग्रहण करो; उन सबको तुम अपने ऊपर कार्य करने दो। उनका फलाफल देखकर उनका मूल्‍य आँको-उनमें जो कुछ उत्तम है, उतना ही ग्रहण करो।

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तुम्‍हारी अपनी इच्छा-शक्ति ही तुम्‍हारी प्रार्थना का उत्तर दे देती है-किंतु विभिन्‍न व्‍यक्तियों के मन की धर्म संबंधी विभिन्‍न धारणाओं के अनुसार वह विभिन्‍न आकार में अभिव्‍यक्‍त होती है। उसे बुद्ध, ईसा, कृष्‍ण, जिहोवा, अल्‍लाह अथवा अग्नि, चाहे किसी नाम से पुकार सकते हैं, किंतु वास्‍तव में वह है हमारी ही आत्‍मा।

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हमारी धारणा क्रमश: उन्‍नत होती है, किंतु जिन सब रूपको के आकार में वह हमारे सम्‍मुख प्रकट होती है, उनका कोई ऐतिहासिक मूल्‍य नहीं है। हमारे अलौकिक दर्शन-समूह की अपेक्षा मूसा के अलौकिक दर्शन में भूल की संभावना अधिक है; क्‍योंकि हम अधिक ज्ञानसंपन्‍न हैं एवं मिथ्‍या भ्रम द्वारा हमारे ठगे जाने की संभावना भी कम है।

जब तक हमारा हृदय रूपी शास्‍त्र नहीं खुला है, तब तक शास्‍त्र-पाठ वृथा है। फिर इन सब शास्‍त्रों का हमारे हृदय-शास्‍त्र के साथ जहाँ तक सामंजस्‍य है, वहीं तक उनकी सार्थकता है। बल क्‍या है, यह बलवान व्‍यक्ति ही समझ सकता है, हाथी ही सिंह को समझ सकता है, चूहा नहीं। हम जब तक ईसा के समान नहीं हुए हैं, तब तक उन्‍हें किस प्रकार समझ सकेंगे ? दो डबल रोटियों में ५000 लोग खायें, अथवा पाँच डबल रोटियों में दो व्‍यक्ति खायें, ये दोनों बातें माया के राज्‍यान्‍तर्गत हैं। इनमें कोई भी सत्‍य नहीं है। अतएव दोनों में कोई भी एक दूसरे के द्वारा बाधित नहीं होता। महत्ता ही केवल महत्ता का आदर कर सकती है, ईश्‍वर ही ईश्‍वर की उपलब्धि कर सकता है। स्‍वप्‍न स्‍वप्‍नद्रष्‍टा के अतिरिक्‍त और कुछ भी नहीं है, उसकी अन्‍य कोई भित्ति नहीं है। स्‍वप्‍न और स्‍वप्‍नद्रष्‍टा दो पृथक वस्‍तुएँ नहीं है। समग्र संगीत के भीतर सोऽह सोऽह, यह एक ही स्‍वर बजता है, अन्‍य सब स्‍वर उसी के विभिन्‍न रूप मात्र हैं, अतएव उनसे मूल स्‍वर में-मूल तत्त्‍व में कुछ भेद नहीं पड़ता। जीवंत शास्‍त्र हमीं लोग हैं, हम जो बातें करते हैं, वे ही सब 'शास्‍त्र' शब्‍द से परिचित हैं। सभी जीवंत ईश्‍वर, जीवंत ईसा हैं-इस भाव से सबको देखो। मनुष्‍य का अध्‍ययन करो, मनुष्‍य ही जीवंत काव्‍य है। जगत में जितने बाइबिल, ईसा या बुद्ध हुए हैं, सभी हमारी ज्‍योति से ज्‍योतिष्‍मान हैं। इस ज्‍योति को छोड़ देने पर ये सब हमारे लिए और अधिक जीवित नहीं रह सकेंगे, मर जाएंगे।

तुम अपनी आत्‍मा के ऊपर स्थिर रहो।

मृत शरीर के साथ चाहे जैसा व्‍यवहार क्‍यों‍ न करो, उसमें कोई बाधा उपस्थित नहीं होती। हमें अपने शरीर को इसी प्रकार मृतवत् रखना होगा। और उसके साथ हमारा जो अभिन्‍न भाव रहता है, उसे दूर कर देना होगा।

३ अगस्‍त , शनिवार

जो मनुष्‍य इसी जन्‍म में मुक्ति प्राप्‍त करना चाहता है, उसे एक ही जन्‍म में हजारों वर्ष का काम करना पड़ेगा। वह जिस युग में जन्‍मा है, उससे उसे बहुत आगे जाना पड़ेगा; किंतु साधारण लोग केवल किसी तरह रेंगते- रेंगते आगे बढ़ सकते हैं। अनेक ईसा और बुद्ध की उत्‍पत्ति इसी प्रकार हुई है।

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एक हिंदू रानी थी- उसकी बड़ी तीव्र इच्छा थी कि उसके पुत्र इसी जन्‍म में मुक्ति-लाभ करे लें। इसी उद्देश्‍य से उसने उन पुत्रों के लालन-पालन का संपूर्ण भार अपने ही ऊपर ले लिया। वह अति शैशवास्‍था से उनको झुलाते-झुलाते सुलाने के समय उनके समीप यह गाना गाती थी- तत्त्‍वमसि , तत्त्वमसि। उनके तीन पुत्र संन्‍यासी हो गए, किंतु चतुर्थ पुत्र का, उसे राजा बनाने के उद्देश्‍य से, अन्‍यत्र पालन-पोषण हुआ। विदा देते समय माँ ने उसे कागज का एक टुकड़ा देकर कहा, ''बड़े होने पर इसमें क्‍या लिखा है, पढ़ना।'' उस काग़ज के टुकड़े में लिखा था-'ब्रह्म सत्‍य, और सब मिथ्‍या। आत्‍मा न कभी मरती है, न मारती है। नि:संग बनो अथवा सत्‍संग करो।' बड़े होने पर जब राजपुत्र ने इसे पढ़ा तो वह भी उसी समय संसार त्‍याग कर संन्‍यासी हो गया।

संसार का त्‍याग करो। अब हम लोग मानो-कुत्तों के समान हैं- रसोईघर में घुस गए हैं, मांस का एक टुकड़ा खा रहे हैं, और भय के मारे इधर-उधर देख भी रहे हैं कि कोई पीछे से आकर मारना न शुरू कर दे। वैसा न होकर राजा के समान बनो-समझ रखो, समग्र जगत तुम्‍हारा है। जब तक तुम संसार का त्‍याग नहीं करते, जब तक संसार ने तुम्‍हें बाँध रखा है, तब तक यह भाव तुम्‍हारे हृदय में कभी भी जाग्रत नहीं हो सकता। यदि बाहर से त्‍याग नहीं कर पाते हो, तो मन ही मन सब त्‍याग दो। आंतरिक भाव से सब त्‍याग दो। वैराग्‍यसंपन्न हो जाओ। यह है यथार्थ आत्म-त्‍याग-यदि यह नहीं हुआ तो धर्म-लाभ असंभव है। किसी प्रकार की वासना मत करो; क्‍योंकि जो वासना करोगे, वही पाओगे। और वही तुम्‍हारे भयानक बंधन का कारण होगी। जैसा कि उस कहानी [4] में है। एक व्‍यक्ति ने तीन वर प्राप्‍त किए थे, एवं उनके फलस्‍वरूप उसके सम्पूर्ण शरीर में नाक ही नाक हो गयीं। वासना रहने पर ठीक इसी प्रकार होता है। तब तक हम आत्‍मरति और आत्‍मतृप्‍त नहीं हुए हैं, तब तक मुक्ति-लाभ नहीं कर सकते। आत्‍मा ही आत्‍मा का मुक्तिदाता हैं, अन्‍य कोई नहीं।

यह अनुभव करना सीखो कि तुम अन्‍य सभी लोगों के शरीर में वर्तमान हो; यह समझने की चेष्‍टा करो कि हम सभी एक हैं। और सभी व्‍यर्थ की चीजों का त्‍याग कर दो। तुमने अच्‍छा-बुरा जो कुछ भी किया है, उसके संबंध में सोचना बिल्‍कुल बन्‍द कर दो- उन सबको थू-थू करके उड़ा दो। जो कर चुके, सो कर चुके। कुसंस्‍कारों को दूर कर दो। मृत्‍यु सम्‍मुख उपस्थित होने पर भी दुर्बलता मत दिखलाओ। अनुताप मत करो-पहले जो कुछ काम तुमने किया है, उस सबको लेकर माथापच्‍ची मत करो, इतना ही नहीं, तुमने जो कुछ अच्‍छे काम भी किए हैं, उन्‍हें भी स्‍मृति-पथ से दूर हटा दो। 'आज़ाद' (मुक्‍त) बनो। दुर्बल, कापुरुष और अज्ञ व्‍यक्ति कभी भी आत्‍म-लाभ नहीं कर सकते। तुम किसी भी कर्म के फल को नष्‍ट नहीं कर सकते- फल अवश्‍यमेव प्राप्‍त होगा; अतएव साहसी होकर उसके सम्‍मुख डटे रहो, किंतु सावधान, दुबारा फिर वैसा कार्य मत करना। सभी कर्मों का भार उस भगवान् के ऊपर डाल दो, अच्‍छा या बुरा-सभी डाल दो। स्‍वयं अच्‍छा रखकर केवल खराब उसके सिर पर मत डालना। जो स्‍वयं अपनी सहायता नहीं करता, भगवान् उसी की सहायता करते हैं।

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'वासना-मदिरा पान कर समस्‍त जगत मत्त हुआ है।' 'जैसे दिन और रात कभी भी एक साथ नहीं रह सकते, वैसे ही वासना और भगवान् दोनों एक साथ कभी नहीं रह सकते।' इसलिए वासना का त्‍याग करो।

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केवल 'खाना खाना' चिल्‍लाना और वास्‍तव में अन्‍न खाना, अथवा केवल 'जल जल' चिल्‍लाना और वास्‍तव में जल पीना-इन दोनों के बीच आकाश-पाताल का अंतर है; अतएव केवल 'ईश्‍वर ईश्‍वर' कहकर चिल्‍लाने से ईश्‍वर की प्रत्‍यक्ष उपलब्धि की आशा कभी भी नहीं की जा सकती। हमें ईश्‍वर-लाभ करने की चेष्‍टा तथा साधना करनी होगी।

तरंग समुद्र के साथ मिलकर एक हो जाने पर ही असीमत्‍व प्राप्‍त करती है, किंतु वह तरंगावस्‍था में असीमत्‍व कभी भी नहीं प्राप्‍त कर सकती। समुद्रस्‍वरूप धारण करने के बाद वह फिर तरंग का आकार धारण कर सकती है और बड़ी से बड़ी तंरग हो सकती है। अपने को तरंग मत समझो; तुम यह सर्वदा ध्‍यान में रखो कि तुम मुक्‍त हो।

सच्‍चे दर्शन शास्‍त्र का अर्थ है-कुछ प्रत्‍यक्षानुभूतियों को प्रणालीबद्ध करना। जहाँ पर बुद्धि-विचार का अंत: होता है, वहीं से धर्म का आरंभ होता है। अंत: स्‍फुरण (inspiration) बुद्धि की अपेक्षा अत्‍यधिक श्रेष्‍ठ है, किंतु उसे बुद्धि का विरोधी नहीं होना चाहिए। बुद्धि श्रमसाध्‍य कार्य करने के लिए एक स्‍थूल यंत्र है। किंतु हमारे भीतर कुछ भी मनमाना करने की इच्छा या प्रेरणा को अंत:स्‍फुरण नहीं कहा जा सकता।

माया के भीतर प्रगति करने या अग्रसर होने को एक वृत्त कहा जा सकता है- जो तुम्‍हें प्रस्‍थान बिंदु पर पुन: वापस ले आता है। अंत:र केवल इतना ही है कि यात्रा करते समय तुम अज्ञानी थे और उस स्‍थान पर जब लौटकर आते हो; तब तुम पूर्ण ज्ञान उपलब्‍ध किए हुए होते हो। ईश्‍वरोपासना, साधु महापुरुषों की पूजा, एकाग्रता, ध्‍यान और निष्‍काम कर्म-ये सब मायाजाल को काटकर निकलने के उपाय हैं; किंतु हमारे भीतर पहले से तीव्र मुमुक्षुत्‍व रहना चाहिए। जो ज्‍योति प्रकाशित होकर हमारे हृदयन्‍धकार को दूर कर देगी, वह तो हमारे भीतर ही है- यह है वह ज्ञान, जो हमारा स्‍वभाव या स्‍वरूप है। (यह ज्ञान हमारा 'जन्‍मगत स्‍वत्‍व' नहीं कहा जा सकता, क्‍योंकि वास्‍तव में हमारा जन्‍म तो है ही नहीं।) केवल जो मेघ इस ज्ञानसूर्य को आवृत किए हुए हैं, हमें उन्‍हीं को दूर कर देना होगा।

ऐहिक अथवा स्‍वर्गीय सभी प्रकार की भोग-वासनाओं को त्‍याग दो (इहामुत्रफलभोगविराग)। इंद्रिय और मन का संयम करो (दम और शम)। सभी प्रकार के दु:खों को इस प्रकार सहन करो, जिससे तुम्‍हारा मन जान ही न पावे कि तुम्‍हें कोई दु:ख हुआ है (तितिक्षा)। मुक्ति के अतिरिक्‍त अन्‍य सभी भावनाओं को दूर कर दो; गुरु में और उनके उपदेशों में विश्‍वास रखो, और यह भी विश्‍वास रखो कि तुम निश्‍चय ही मुक्‍त हो सकोगे (श्रद्धा)। कुछ भी क्‍यों न हो, सर्वदा यही कहो-सोऽहं सोऽहं। खाते, चलते, कष्‍टों से घिरे रहते, सर्वदा सोऽहं सोऽहं कहो, सर्वदा मन से कहो कि यह जो जगत्‍प्रपंच दृश्‍यमान है, इसका किसी भी काल में अस्तित्‍व नहीं है, हूँ केवल मैं ही (समाधान)। तुम देखोगे कि एक दिन ज्ञान-प्रकाश होगा ही और तुम्‍हें अनुभव होगा कि जगत शून्‍य मात्र है, केवल ब्रह्म ही सर्वत्र व्‍याप्‍त है। मुक्‍त होने के लिए प्रबल इच्छा-संपन्न होओ (मुमुक्षुत्‍व)।

आत्‍मीय और बंधु-बांधव गण पुराने अन्धकूप के समान हैं। हम इस अन्‍धकूप में पड़कर कर्तव्‍य, बंधन प्रभृति नाना स्‍वप्‍न देखा करते हैं-इस स्‍वप्‍न का कभी भी अंत: नहीं हैं। किसी की सहायता करने के लिए जाकर और अधिक भ्रम की सृष्टि मत करो। यह मानी एक वटवृक्ष के समान है, जो बढ़ता ही जाता है। यदि तुम द्वैतवादी हो, तो ईश्‍वर की सहायता करने के लिए जाना ही तुम्‍हारी मूर्खता है। यदि तुम अद्वैतवादी हो तो तुम स्‍वयमेव ब्रह्मस्‍वरूप हो- फिर तुम्‍हारा कर्तव्‍य क्‍या रहा ? पति, स्‍वामी, लड़के-बच्चे, बंधु-बांधव-किसी के प्रति तुम्‍हारा कुछ भी कर्तव्‍य नहीं है। जो हो रहा है, होने दो, चुपचाप पड़े रहो। प्रवाह के साथ अपने शरीर को बहने दो-डूबने-उतरने दो। यदि शरीर मरे तो मरने दो- हमारा शरीर है, यह तो एक पुरानी कल्पित कथा मात्र है। चुपचाप होकर रहो, और अहं ब्रह्मास्मि, यह अनुभव करो।

केवल वर्तमान काल ही विद्यमान है। हम विचार द्वारा भी भूत और भविष्‍यत् की धारण नहीं कर सकते; क्‍योंकि चिंतन करने के लिए उद्यत होते ही भूत और भविष्‍य को वर्तमान में खड़ा करना पड़ता है। सब कुछ छोड़ दो, उसे जहाँ जाना है, जाने दो। यह समग्र जगत एक भ्रम मात्र है, यह तुम्‍हें और फिर प्रतारित न कर पावे। तुम जगत को जो वह नहीं है, वही समझते हो, अवस्‍तु में वस्‍तु-ज्ञान करते हो, अब वह वास्‍तव में जो है, केवल उसे ही जानो। यदि शरीर कहीं चला जाता है, तो जाने दो; शरीर कहीं भी क्‍यों न जाए, कुछ भी परवाह मत करो। कर्तव्‍य नामक कोई एक वस्‍तु है, और उसका पालन करना ही होगा-इस प्रकार की धारणा भयंकर कालकूटस्‍वरूप है, इसने जगत को नष्‍ट कर डाला है।

स्‍वर्ग में जाकर एक वीणा पाऊँगा और उसे बजाकर यथासमय विश्राम-सुख का अनुभव करूँगा-इस बात की अपेक्षा मत करो। इसी जगह एक वीणा लेकर क्‍यों न बजाना आरंभ कर दो? स्वर्ग के लिए राह देखने की क्या आवश्यकता है? इस लोक को ही स्वर्ग बना लो। स्‍वर्ग में विवाह नहीं होता- पाणिग्रहण नहीं होता। यदि ऐसा है, तो यहीं पर अभी से विवाह क्‍यों न बन्‍द कर दो? संन्‍यासियों का गैरिक वस्त्र मुक्‍त पुरुषों का चिह्न है। संसारी भिक्षुओं का वेष छोड़ दो; मुक्ति की पताका-गैरिक वस्‍त्र धारण करो।

४ अगस्‍त , रविवार

'अज्ञ लोग बिना समझे जिनकी उपासना करते हैं, मैं तुम्‍हारे निकट उन्‍हींका उपदेश करता हूँ।'

यह एक अद्वितीय ब्रह्म ही सभी ज्ञात वस्‍तुओं की अपेक्षा 'ज्ञाततम' है वहीं एक ऐसी वस्‍तु है, जिसे हम सर्वत्र देखते हैं। सभी अपनी आत्‍मा को जानते हैं, इतना ही नहीं, पशु भी जानता है कि मैं हूँ। हम जो कुछ जानते हैं, सब आत्‍मा का ही बहि:प्रसारण है, विस्‍तारस्‍वरूप है। छोटे छोटे बच्‍चों को यह तत्त्व सिखाओ, वे भी तत्त्‍व की धारणा कर सकते हैं। प्रत्‍येक धर्म (किसी-किसी स्‍थल में अज्ञात रूप से भी) इसी आत्‍मा की उपासना करता आ रहा है, क्‍योंकि आत्‍मा के अतिरिक्‍त और कुछ है ही नहीं।

हम लोग इस जीवन को यहाँ पर जिस भाव से जानते हैं, उसके प्रति ऐसे घृणित रूप से आसक्‍त होकर रहना ही समस्‍त अनिष्‍ट का मूल है। उसी से प्रतारणा, चोरी आदि सब कुछ होता है। उसी से लोग रुपये को देवता का स्‍थान देते हैं, और उसी से समस्‍त पाप तथा भय की उत्‍पत्ति होती है। किसी जड़ वस्‍तु को मूल्‍यवान मत समझो और उसमें आसक्‍त मत होओ। तुम किसी भी वस्‍तु में, इतना ही नहीं, जीवन में भी आसक्‍त मत होओ, फिर कोई भी भय न रहेगा। मृत्यो: स मृत्‍युमाप्‍नोति य इह नानेव पश्‍यति।-'जो इस जगत में अनेकता देखता है, वह मुत्‍यु के बाद मृत्‍यु को प्राप्‍त होता है।' हम जब सर्वत्र एकत्‍व का दर्शन करते हैं, तब हमारे शरीर की भी मृत्‍यु नहीं होती, और न मन की ही। जगत के सभी शरीर हमारे हैं, अतएव हमारा शरीर भी नित्‍य है; क्‍योंकि पेड़-पत्ते, जीव-जन्‍तु, चंद्र-सूर्य, इतना ही नहीं, यह संपूर्ण जगत-ब्रह्मांड ही हमारा शरीर है- तो फिर इस शरीर का नाश होगा ही कैसे ? प्रत्‍येक मन, प्रत्‍येक विचार हमारा है-फिर मृत्‍यु आयेगी ही कैसे है? आत्‍मा न कभी जन्‍म लेती है, न उसकी कभी मृत्‍यु होती है- जब हम इसकी प्रत्‍यक्ष उपलब्धि कर लेते हैं, तब हमारा सभी संदेह नष्‍ट हो जाता है। 'मैं हूँ' मैं अनुभव करता हूँ', 'मैं सुखी होता हूँ' -'अस्ति, भाति, प्रिय'- इन सब बातों पर कभी भी संदेह नहीं किया जा सकता। 'क्षुधा' कोई वस्‍तु नहीं है, क्‍योंकि जो कुछ भी खाया जाता है, यह मैं ही खाता हूँ। यदि हमारा एक बाल उखड़ जाए, तो हम ऐसा नहीं सोचते कि हम मर गए। इसी प्रकार एक देह की मृत्‍यु एक बाल उखड़ जाने के ही सदृश है।

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वह अतिचेतन वस्‍तु ही ईश्‍वर है- वह मन, वाणी और चेतना के परे है। ...तीन अवस्‍थाएँ हैं-पशुत्‍व (तम), मनुष्‍यत्‍व (रज) और देवत्व (सत्त्व)। जो सर्वोच्‍च अवस्‍था प्राप्‍त करते हैं, अस्ति मात्र या सत्‍स्‍वरूप मात्र हो जाते हैं। उनका कोई भी कर्तव्‍य शेष नहीं रहता, वे मनुष्‍यों के प्रति केवल प्रेमान्वित रहते हैं चुंबक के समान दूसरों को अपनी ओर आकृष्‍ट करते हैं। इसी का नाम मुक्ति है। उस समय चेष्‍टापूर्वक कोई सत्‍कार्य नहीं करना होता, उस समय जो कुछ कार्य होते हैं वे सब सत्‍कार्य ही होते हैं। जो ब्रह्मविद् हैं, वे सभी देवताओं से बड़े हैं। ईसा मसीह ने जिस समय मोह को जीतकर यह कहा, ''शैतान, मेरे सामने से दूर हो,'' उसी समय देवता उनकी पूजा करने के लिए आये। कोई भी व्‍यक्ति ब्रह्मविद् को कुछ भी सहायता करने में समर्थ नहीं हो सकता, समग्र जगत्‍प्रपंच ही उनके सामने प्रणत रहता है, उनकी सभी इच्छाएँ पूर्ण हो चुकती हैं, उनकी आत्‍मा दूसरों को पवित्र करती है। अतएव यदि ईश्‍वर-लाभ की कामना करो, तो ब्रह्मविद् की पूजा करो। जब हम तीन ईश्‍वरीय जनुग्रह-मनुष्‍य शरीर (मनुष्‍यत्‍व), मुक्‍त होने की तीव्र कामना (मुमुक्षुत्‍व)और महापुरुष-संश्रय-लाभ करते हैं, तभी समझना चाहिए कि मुक्ति हमारे करतलगत है।

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सदा के लिए देह की मृत्‍यु का नाम ही निर्वाण है। यह निर्वाण-तत्त्‍व की निषेधात्‍मक अर्थात् 'नेति नेति' दिशा है। इसमें केवल यह कहा जाता है-'मैं यह नहीं, मैं वह नहीं।' वेदांत कुछ और आगे बढ़कर उसकी स्‍वीकारत्‍मक अर्थात् 'इति इति' दिशा बतलाता है- उसीका नाम है मुक्ति। 'मैं अनंत सत्ता, अनंत ज्ञान, अनंत आनंद हूँ, मैं वही हूँ'-यह है वेदांत -वह एक पूर्ण निर्दोष मेहराब का शीर्ष प्रस्‍तर है।

उत्तरी बौद्ध धर्म के अधिकांश अनुयायी मुक्ति में विश्‍वास रखते हैं- वे यथार्थत: वेदांती ही हैं। केवल सिंहल के बौद्ध निर्वाण को विनाश के समानार्थक रूप में ग्रहण करते हैं।

किसी प्रकार का विश्‍वास या अविश्‍वास 'मैं' का नाश नहीं कर सकता। जिसका अस्तित्‍व विश्‍वास के ऊपर निर्भर रहता है और जो अविश्‍वास से उड़ जाता है, भ्रम मात्र है। आत्‍मा को कोई भी स्‍पर्श नहीं कर सकता। मैं अपनी आत्‍मा को नमस्‍कार करता हूँ। 'स्‍वयंज्‍योति मैं अपने को ही नमस्‍कार करता हूँ, मैं ब्रह्म हूँ।' यह शरीर मानो एक अँधेरा घर है; हम जब इस घर में प्रवेश करते हैं, तभी वह आलोकित हो उठता है, तभी वह जीवंत होता है। आत्‍मा की इस स्‍वयंप्रकाश ज्‍योति को कोई भी स्‍पर्श नहीं कर सकता। इसे किसी भी प्रकार से नष्‍ट नहीं किया जा सकता। इसे आवृत्त किया जा सकता है, किंतु नष्‍ट कभी भी नहीं किया जा सकता।

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वर्तमान युग में अनंत शक्तिस्‍वरूपिणी जननी के रूप में ईश्‍वर की उपासना करना उचित है। इससे पवित्रता का उदय होगा और इस मातृ-पूजा से अमेरिका में महाशक्ति का विकास होगा। यहाँ पर (अमेरिका में) कोई मंदिर (पौरोहित्‍य शक्ति) हमारा गला नहीं दबाता और अपेक्षाकृत गरीब देशों के समान यहाँ कोई कष्‍ट भी नहीं भोगता। स्त्रियों ने सैकड़ों युगों तक दु:ख-कष्‍ट सहन किए हैं, इसी से उनके भीतर असीम धैर्य और अध्‍यवसाय का विकास हुआ है। वे किसी भी भाव को सहज ही छोड़ना नहीं चाहतीं। इसी हेतु वे अंधविश्‍वासी धर्मों एवं सभी देशों के पुरोहितों की मानो आधार हो जाती है; यही बाद में उनकी स्‍वाधीनता का कारण होगा। हमें वेदांती होकर वेदांत के इस महान भाव को जीवन में परिणत करना होगा। हमें वेदांती होकर वेदांत के इस महान भाव को जीवन में परिणत करना होगा। निम्‍न श्रेणी के मनुष्‍यों में भी यह भाव वितरित करना होगा- यह केवल स्‍वाधीन अमेरिका में ही कार्य रूप में परिणत किया जा सकता है। भारत में बुद्ध, शंकर तथा अन्‍यान्‍य महा मनीषी व्‍यक्तियों ने इन सभी भावों का लोगों में प्रचार किया था, किंतु जनता उन भावों को धारण नहीं कर सकी। इस नूतन युग में जनता वेदांत के आदर्शानुसार जीवन-यापन करेगी, और यह स्त्रियों के द्वारा ही कार्य रूप में परिणत होगा।

'हृदय में सहेज रखो सुंदरी प्‍यारी श्‍यामा माँ को,

वाणी को छोड़ फेंक दो शेष सब,

और वाणी से कहलाते रहो-माँ को,

वाणी को छोड़ फेंक दो शेष सब,

और वाणी से कहलाते रहो-माँ, माँ !

कुमंत्रियों को न पास भी फटकने दो,

मैं और मेरे हृदय! हमीं दोनों एकांत दर्शन पाते रहें माँ का !

जो कुछ जीवंत है, तू उसके परे है !

ओ मेरे जीवन की चाँद, मेरी आत्‍मा की आत्‍मा !'

रविवार , अपराह्न

मन आत्‍मा के निकट ठीक उसी तरह एक यंत्र है, जैसे शरीर मन का यंत्र है। जड़ है बाहर की गति, मन है भीतर की गति। समस्‍त परिवर्तन का आरंभ और समाप्ति 'काल' में ही होती है। आत्‍मा यदि अपरिणामी है, तो वह निश्चित ही पूर्णस्‍वरूप है; और यदि पूर्णस्‍वरूप है, तो अनंतस्‍वरूप है; और अनंतस्‍वरूप होने से वह अवश्‍य ही द्वितीयरहित है; क्‍योंकि दो अनंत तो हो नहीं सकते, अतएव आत्‍मा एकमात्र है। यद्यपि आत्‍मा अनेक प्रतीत होती है, पर वास्‍तव में वह एक है। यदि कोई व्‍यक्ति सूर्य की ओर चलता हैं, तो प्रति पदक्षेप में वह एक एक विभिन्‍न सूर्य को देखेगा, किंतु वास्‍तव में सूर्य एक ही है।

'अस्ति' यानी 'है-पन' ही सभी प्रकार के एकत्‍व की भित्तिस्‍वरूप है, और इस आधार में पहुँचते ही पूर्णता प्राप्‍त होती है। यदि सभी रंगों को एक रंग में परिणत करना संभव होता, तो चित्रविद्या ही लुप्‍त हो जाती। संपूर्ण एकत्‍व है विश्राम या लय; सभी अभिव्‍यक्तियों को हम एक ईश्‍वर से ही निकली हुई कहते हैं। 'ताओं' वादी, कनफ़्यूशस' (Confucius) [5] मतवादी, बौद्ध, हिंदू यहूदी, मुसलमान, ईसाई और जरथुस्‍त्र के शिष्‍य (Zoroastrians) इन सबने प्राय: समान रूप से, 'तुम दूसरों से जिस प्रकार का व्‍यवहार चाहते हो, ठीक उसी तरह का व्‍यवहार दूसरों के प्रति भी करो', इस अपूर्व नीति का प्रचार किया है। किंतु केवल हिंदुओं ने इस नीति की व्‍याख्‍या दी है, क्‍योंकि वे ही इसका कारण समझ पाये थे। मनुष्‍य को अन्‍य सबके प्रति इसलिए प्रेम करना होगा कि अन्‍य सब स्‍वयं उसीके रूप हैं। केवल 'एक' की ही सत्ता है।

जगत में जितने बड़े बड़े धर्माचार्य हुए हैं, उनमें केवल लाओत्‍से (Laotze), बुद्ध और ईसा ने ही उपर्युक्‍त स्‍वर्णिम नियम के भी परे जाकर शिक्षा दी है, 'तुम लोग अपने शत्रुओं से भी प्रेम करो', 'जो तुमसे घृणा करते हैं, उनसे भी प्रेम करो।'

तत्त्वसमूह पहले से ही विद्यमान है; हम उसकी सृष्टि नहीं करते, केवल उसका आविष्‍कार करते हैं।...धर्म केवल सत्‍य का साक्षात्‍कार मात्र है। विभिन्‍न मतवाद विभिन्‍न पथ-प्रणाली मात्र हैं, वे धर्म नहीं हैं। जगत के विविध धर्म विभिन्‍न जातियों की आवश्‍यकतानुसार समायोजित एक ही धर्म के प्रयोग हैं। मतवाद केवल विरोध का निर्माण करता है। देखो न, वास्‍तव में ईश्‍वर के नाम से लोगों को शांति मिलनी चाहिए, परंतु ऐसा न होकर जगत में जितना रक्‍तपात हुआ है, उसमें से आधा से अधिक ईश्‍वर के नाम पर ही हुआ है। बिल्‍कुल मूल तक पहुँचो; स्‍वयं ईश्‍वर से ही पूछो कि उनका स्‍वरूप कैसा है ? यदि वे उत्तर नहीं देते हैं, तो समझना होगा कि वे नहीं हैं। किंतु अगज् के सभी धर्म कहते हैं कि उन्‍होंने उत्तर दिया है।

तुम्‍हारे पास कहने के लिए कुछ अपना भी होना चाहिए, अन्‍यथा दूसरों ने क्‍या कहा है, उसकी धारणा तुम कैसे कर सकोगे ? पुरातन कुसंस्‍कारों को लेकर मत पड़े रहो, सर्वदा नूतन सत्‍यों के लिए प्रस्‍तुत रहो। 'मूर्ख वे हैं, जो अपने पूर्व पुरुषों के खुदे हुए कुएँ का पानी खारा होने पर भी पीते रहेंगे, किंतु दूसरों के कुएँ का विशुद्ध जल भी पीने से इनकार करेंगे।' जब तक हम ईश्‍वर का साक्षात्‍कार नहीं करते, तब तक उसके संबंध में कुछ भी नहीं जान सकते। प्रत्‍येक व्‍यक्ति स्‍वभावत: पूर्णस्‍वरूप है। पैगंबरों ने अपने इस पूर्णस्‍वरूप को प्रकाशित किया है, और हमारे भीतर अभी भी वह अव्‍यक्‍‍त रूप में विद्यामान है। यदि हम भी ईश्‍वर को नहीं देख सकते तो कैसे जान सकेंगे कि मूसा ने ईश्‍वर का दर्शन किया था? यदि ईश्‍वर कभी किसी के समीप आये हैं, तो हमारे समीप भी आएंगे। मैं एकदम उनके पास जाऊँगा, वे मुझसे बातचीत करेंगे। विश्‍वास को आधाररूप में मैं ग्रहण नहीं कर सकता-यह नास्तिकता और घोर ईश्‍वरनिंदा मात्र है। यदि ईश्‍वर ने दो हज़ार वर्ष अरब की मरुभूमि में किसी व्‍यक्ति के साथ वार्तालाप किया है, तो वे आज मेरे साथ भी वार्तालाप कर सकते हैं। यदि वे नहीं कर सकते तो हम क्‍यों न कहें कि वे मर गए हैं ? जैसे भी हो ईश्‍वर के निकट आओ-आना ही चाहिए। किंतु आते समय किसी को ढकेलना मत।

ज्ञानी व्‍यक्ति अज्ञानियों के प्रति करुणा रखेंगे। जो ज्ञानी हैं, वे एक चींटी के लिए भी अपना शरीर त्‍याग करने को प्रस्‍तुत रहते हैं, क्‍योंकि वे जानते हैं, देह कुछ नहीं है।

५ अगस्‍त , सोमवार

प्रश्‍न यह है कि सर्वोच्‍च अवस्‍था लाभ करने के लिए क्‍या सभी निम्‍नतर सोपानों से होकर जाना होगा, या एकदम छलाँग मारकर उस अवस्‍था में पहुँचा जा सकता है ? आधुनिक अमेरिका का बालक आज जिस विषय को पचीस वर्ष के भीतर सीख लेता हैं ? उसके पूर्व पुरुषों को उस विषय के सीखने में सौ वर्ष लग जाते थे। एक आधुनिक हिंदू अभी बीस वर्ष में उस अवस्‍था में पहुँच जाता है, जिसे पाने में उसके पूर्व पुरुषों को आठ हजार वर्ष लगे थे। जड़ दृष्टि द्वारा देखने पर पता चलता है कि गर्भ में भ्रूण उस प्राथमिक जीव-अमीबा (amoeba) की अवस्‍था से आरंभ होकर अनेक अवस्‍थाओं में से गुजरकर अंत में मनुष्‍य-रूप धारण करता है। यह हुई आधुनिक विज्ञान की शिक्षा। वेदांत और भी आगे बढ़कर कहता है- हमारे लिए समग्र मानव-जाति का केवल अतीत जीवन-यापन करना ही पर्याप्‍त नहीं होगा, बल्कि समग्र मानव-जाति का भविष्‍य जीवन भी यापन करना होगा। जो प्रथमोक्‍त बात कर पाते हैं, वे शिक्षित व्‍यक्ति हैं; जो दूसरी बात कर पाते हैं, वे जीवन्‍मुक्‍त हैं।

काल केवल हम लोगों के विचार का मापक मात्र हैं, और विचार की गति अकल्‍पनीय रूप से तीब्र होने के कारण हम कितना जल्दी भावी जीवन-यापन कर सकते हैं, उसका कोई सीमा-निर्देश नहीं किया जा सकता। अतएव मानव-जाति के समग्र भविष्‍य जीवन को अपने जीवन में अनुभव करने में कितने दिन लगेंगे, यह निश्चि‍त रूप से नहीं कहा जा सकता। किसी किसीको उस अवस्‍था का लाभ एक क्षण में भी हो सकता है, और किसी को पचास जन्‍म भी लग सकते हैं। यह इच्छा की तीव्रता के ऊपर निर्भर है। अतएव शिष्‍यों की आवश्‍यकतानुसार उपदेशों में संशोधन कर लेना आवश्‍यक है। जलती हुई आग सबके लिए है- वह केवल जल को ही नहीं, वरन् बर्फ़ के टुकड़ों को भी नष्‍ट कर डालती है। बंदूक़ में से सैकड़ों छर्रे छोड़ो, कम से कम एक छर्रा तो लगेगा ही। लोगों के लिए सत्‍य का भण्‍डार खोल दो, उनमें से जिनता उनके लिए उपयोगी है, उतना वे ले लेंगे। अनेकानेक अतीत जन्‍मों के फलस्‍वरूप जिसके हृदय में जैसा संस्‍कार गठित हुआ है, उसे तदनुसार उपदेश दो। ज्ञान, योग, भक्ति और धर्म-इनमें से चाहे जिस भाव को मूल आधार बनाओ, किंतु अन्‍यान्‍य भावों की भी साथ ही साथ शिक्षा दो। ज्ञान के साथ भक्ति का सामंजस्‍य करना होगा, योगप्रवण प्रकृति का युक्ति-विचार के साथ सामंजस्‍य करना होगा, और कर्म मानो सभी पथों का अंगस्‍वरूप है। जो जहाँ पर है, उसे वहाँ से ठेलकर आगे बढ़ाओ। धर्म-शिक्षा विनष्‍टकारी न होकर सर्वदा सर्जनकारी ही होनी चाहिए।

मनुष्‍य की प्रत्‍येक प्रवृत्ति उसकी अतीत कर्मसमष्टि की उस रेखा या अर्धव्‍यास की परिचायक है, जिस पर उस मनुष्‍य को चलते रहना चाहिए। सभी अर्धव्‍यास केंद्र में ले जाते हैं। किसी की प्रवृत्ति को पलट देने का नाम तक मत लो, उससे गुरु और शिष्‍य दोनों को क्षति पहुँचती है। जब तुम ज्ञान की शिक्षा देते ही तो तुम्‍हें ज्ञानी होना होगा, और जो अवस्‍था शिष्‍य की होती है, तुम्‍हें मन ही मन ठीक उसी अवस्‍था में पहुँचना होगा। अन्‍यान्‍य योगों में भी तुम्‍हें ठीक ऐसा ही करना होगा। प्रत्‍येक वृत्ति का विकास-साधन इस रूप में करना होगा कि जैसे उस वृत्ति को छोड़ अन्‍य कोई वृत्ति हमारे लिए है ही नहीं- यह है तथाकथित सामंजस्‍यपूर्ण उन्‍नति-साधन का यथार्थ रहस्‍य- अर्थात् गंभीरता के साथ उदारता का अर्जन करो, किंतु उसे खो मत दो। हम अनंतस्‍वरूप हैं- हम सभी किसी भी प्रकार की सीमा के अतीत हैं। अतएव हम परम निष्‍ठावान मुसलमान के समान प्रखर और सर्वाधिक घोर नास्तिक के समान उदार भावापन्‍न हो सकते हैं।

ऐसा करने का उपाय है- मन का किसी विषयविशेष में प्रयोग न करके स्‍वयं मन का ही विकास करना और उसका संयम करना। ऐसा करने पर तुम उसे चाहे जिस ओर घुमा सकोगे। इससे तुम्‍हें तीव्रता और विस्‍तार दोनों ही प्राप्‍त होंगे। ज्ञान की उपलब्धि इस भाव से करो कि ज्ञान छोड़कर मानो और कुछ है ही नहीं; उसके बाद भक्तियोग, राजयोग और कर्मयोग को भी लेकर इसी भाव से साधना करो। तरंग को छोड़कर समुद्र की ओर जाओ, तभी तुम स्‍वेच्‍छानुसार विभिनन प्रकार की तरंगों का उत्‍पादन कर सकोगे। तुम अपने मनरूपी सरोवर को संयत रखो, ऐसा किए बिना तुम दूसरों के मनरूपी सरोवर का तत्त्‍व कभी न जान सकोगे।

वे ही सच्‍चे गुरु हैं, जो अपने शिष्‍य की प्रवृत्ति के अनुसार अपनी समस्‍त शक्ति का प्रयोग कर सकते हैं। सच्‍ची सहानुभूति के बिना हम कभी भी सम्‍यक् शिक्षा नहीं दे सकते। मनुष्‍य एक दायित्‍वपूर्ण प्राणी है, इस धारणा को छोड़ दो; केवल पूर्णताप्राप्‍त व्‍यक्ति को ही दायित्‍व-ज्ञान है। सब अज्ञानी व्‍यक्ति मोह-मदिरा पीकर मत हुए हैं, उनकी स्‍वाभाविक अवस्‍था नहीं है। तुम लोगों ने ज्ञान-लाभ किया है- तुम्‍हें उनके प्रति अनंत धैर्यसंपन्न होना होगा। उनके प्रति प्रेमभाव छोड़कर अन्‍य किसी प्रकार का भाव मत रखो; वे जिस रोग से ग्रसित होकर जगत को भ्रांत दृष्टि से देखते हैं, पहले उसी रोग का निदान करो, उसके बाद उनकी सहायता करो, जिससे उनका वह रोग मिट सके और वे ठीक ठीक देख सकें। सर्वदा स्‍मरण रखो कि मुक्‍त या स्‍वाधीन पुरुषों की ही केवल स्‍वाधीन इच्छा होती है- शेष सभी बंधन के भीतर रहते हैं- अतएव वे जो कुछ करते हैं, उसके लिए वे उत्तरदायी नहीं हैं। इच्छा जब इच्छा रूप में रहती है, उस समय वह बद्ध है। जल जब हिमालय के शिखर पर पिघलता है, तब स्‍वाधीन या उन्‍मुक्‍त रहता है, किंतु नदी-रूप धारण करते ही वह तटों द्वारा आबद्ध हो जाता है; तथापि उसका प्राथमिक वेग ही उसे अंत: में समुद्र में ले जाता है, और वहाँ यह जल फिर से उस पूर्वकालीन स्‍वाधीनता को प्राप्‍त करता है। प्रथम अवस्‍था अर्थात नदी-रूप में आबद्ध होने को ही बाइबिल ने मानव का पतन (fall of man) और द्वितीय को पुनरुथान (resurrection) कहा है। मुक्ति प्राप्‍त कर लेने तक परमाणु भी स्थिर होकर नहीं रह सकता।

कुछ कल्‍पनाएँ अन्‍य कल्‍पनाओं का बंधन नष्‍ट करने में सहायता करती हैं। समग्र जगत ही कल्‍पना है, किंतु एक प्रकार की कल्‍पनासमष्टि अन्‍य सभी कल्‍पनासमष्टियों को नष्‍ट कर देती है। जो यह कहती हैं कि जगत में पाप, दु:ख और मृत्‍यु विद्यमान हैं, वे सभी अत्यंत भयानक हैं; किंतु दूसरे प्रकार की कल्‍पनासमष्टि है जो सदा कहती है-'मैं पवित्रस्‍वरूप हूँ, जगत में दु:ख कुछ नहीं है'-वे सब शुभ हैं, और उन्‍हीं के द्वारा अन्‍यान्‍य कल्‍पनाओं का बंधन छिन्‍न हो जाता है। वैयक्तिक ईश्‍वर ही मानव की वह सर्वोच्‍च कल्‍पना है, जिससे हमारी बंधन-श्रृंखला की कड़ियाँ छिन्‍न हो सकती हैं।

ॐ तत्‍सत्, अर्थात् एकमात्र वह निर्गुण ब्रह्म ही मायातीत है; किंतु सगुण ईश्‍वर भी नित्‍य है। जब तक नायग्रा जलप्रपात है, तब तक इंद्रधनुष भी रहेगा; किंतु जलराशि सर्वदा प्रवाहित होती रहती है। यह जलप्रपात जगत्‍प्रपंच है और इंद्रधनुष सगुण ईश्‍वर है, और ये दानों ही नित्‍य हैं। जब तक जगत रहता हैं, तब तक ईश्‍वर अवश्‍यमेव है। जगत की सृष्टि करता है, और जगत ईश्‍वर की सृष्टि करता है-दोनों ही नित्‍य हैं। माया सत् नहीं है, असत् भी नहीं। नायग्रा प्रपात और इंद्रधनुष दोनों ही अनंत काल के लिए परिणामशील हैं-वे मायाच्‍छादित ब्रह्म हैं। पारसी और ईसाई लोग माया को दो भागों में विभक्‍त कर उत्तम अर्ध भाग को ईश्‍वर और बुरे अर्ध भाग को शैतान कहते हैं। वेदांत माया को समष्टि या संपूर्ण रूप में ग्रहण करता है और उस माया के पीछे ब्रह्मरूपी एक अखंड वस्‍तु की सत्ता स्‍वीकार करता है।

* * *

मुहम्‍मद ने देखा, ईसाई धर्म सेमिटिक भाव से दूर चला जा रहा है। इस सेमिटिक भाव के बीच रहते हुए ईसाई धर्म किस प्रकार का होना उचित है अर्थात् उसे एकमात्र ईश्‍वर में ही विश्‍वास करना चाहिए-यही उनके उपदेश का विषय है। 'मैं और मेरा पिता एक है', इस आर्य-विचार से वह घृणा करते थे और अत्‍यंत संत्रस्‍त थे। वास्‍तव में मानव से नित्‍य पृथक जिहोवा संबंधी द्वैत धारणा की अपेक्षा त्रित्‍ववाद (Trinitarian) का तम अधिक उन्‍नत है। अवतारवाद का सिद्धांत ईश्‍वर और मानव का एकत्‍व सिद्ध करानेवाली विचार-श्रृंखला की पहली कड़ी है। पहले एक मनुष्‍य में, तदुपरांत विभिन्‍न समयों में अन्‍य मानव शरीरों में आविर्भूत होनेवाले ईश्‍वर को अंतत: हर मनुष्‍य में स्‍वीकारि किया गया। अद्वैतवाद सर्वोच्‍च सोपान है-एकेश्‍वरवाद उसकी अपेक्षा निम्‍नतर सोपान है। बुद्धि की भी अपेक्षा कल्‍पना तुम्‍हें शीघ्र और सहज ही उस सर्वोच्‍च अवस्‍था में पहुँचा देगी।

कम से कम कुछ लोग केवल ईश्‍वर के लिए जीवन दें और समग्र जगत के लिए धर्म की रक्षा करें। जब तक तुम भ्रांतियों के 'जनक' हो, तब तक 'मैं राजा जनक के समान निर्लिप्‍त हूँ', इस प्रकार का ढोंग मत करो। निष्‍कपट होकर कहो-'मैं जानता हूँ कि आदर्श क्‍या है, किंतु अभी मैं उसकी ओर अग्रसर नहीं हो पाता हूँ।' किंतु सच्‍चा त्‍याग किए बिना त्‍याग करने का ढोंग मत करो। यदि सचमुच ही त्‍याग करो, तो फिर दृढ़ भाव से इस त्‍याग को पकड़े रहो। युद्ध में यदि सौ मनुष्‍यों का पतन हो जाए, तो भी तुम ध्‍वजा उठा लो और आगे बढ़ते रहो। कोई भी क्‍यों न गिर पड़े, पर ईश्‍वर सत्‍य है। युद्ध में जिसका पतन हो जाए, वह उस ध्‍वजा को अन्‍य व्‍यक्ति के हाथ में समर्पित कर दे- फिर वह व्‍यक्ति उस ध्‍वजा का वहन करे। उसका पतन कभी नहीं हो सकता।

जब मैं स्‍नात और शुद्ध हूँ तो अपवित्रता मुझे कैसे लगेगी ? (बाइबिल में कहा है) पहले भगवान् के राज्‍य का अन्‍वेषण करो, फिर जो कुछ तुम्‍हें चाहिए वह सब तुम्‍हें मिल जाएगा। किंतु मैं कहता हूँ, सर्वप्रथम स्वर्गराज्‍य का अन्‍वेषण करो और शेष जो कुछ है, सबको चला जाने दो। 'तुम्‍हें कुछ और प्राप्‍त हो', इसकी आकांक्षा न करो,वरन् उसके चले जाने पर खुशी मनाओ। त्‍याग करो और समझ लो कि तुम स्‍वयं न भी देख पाओ तो भी सफलता मिलेगी। ईसा ने केवल बारह मछुए छोड़े थे, किंतु इन थोड़े से व्‍यक्तियों ने प्रबल रोम साम्राज्‍य को उलट-पलट दिया था।

पृथिवी में पवित्रतम और सर्वोत्‍कृष्‍ट जो कुछ है, उसे ईश्‍वर की वेदी पर बलिरूप में अर्पण कर दो। जो त्‍याग की चेष्‍टा कभी भी नहीं करते, उनकी अपेक्षा जो चेष्‍टा करते हैं, वे बहुत अच्‍छे हैं। एक त्‍यागी मनुष्‍य को देखने से भी हृदय पवित्र होता है। ईश्‍वर को प्राप्‍त करूँगा-केवल उन्‍हीं को चाहता हूँ-यह कहकर दृढ़ भाव से खड़े हो जाओ, संसार को उड़ जाने दो; ईश्‍वर और संसार इन दोनों के बीच किसी प्रकार का समझौता मत करो। संसार का त्‍याग करो, केवल ऐसा करने से ही तुम देह-बंधन से मुक्‍त हो सकोगे। और इस प्रकार देह से आसक्ति हट जाने के बाद देह-त्‍याग होते ही तुम आज़ाद या मुक्‍त हो जाओगे। मुक्‍त होओ, केवल देह की मृत्‍यु हमें कभी मुक्‍त नहीं कर सकती। जीवित रहते ही हमें अपनी चेष्‍टा द्वारा मुक्ति-लाभ करना होगा। तभी, देहपात हो जाने पर उस मुक्‍त पुरुष का फिर पुनर्जन्‍म नहीं होगा।

सत्‍य का निर्णय सत्‍य के द्वारा ही करना होगा, अन्‍य किसी के द्वारा नहीं। लोगों का हित करना ही सत्‍य की कसौटी नहीं है। सूर्य को देखने के लिए मशाल की आवश्‍यकता नहीं है। यदि सत्‍य समस्‍त जगत का ध्‍वंस करता है, तो भी वह सत्‍य ही है; इस सत्‍य को पकड़े रहो।

धर्म के स्‍थूल रूपों का अनुसरण सहज है और इसीलिए वह साधारण मनुष्‍यों को आकृष्‍ट करता है, किंतु वस्‍तुत: बाह्य अनुष्‍ठान में कुछ नहीं है।

'जिस प्रकार मकड़ी अपने भीतर से ही जाल का विस्‍तार करती है, और फिर स्‍वयं उसे अपने भीतर समेट लेती है, उसी प्रकार ईश्‍वर इस जगत्‍प्रपंच का विस्‍तार करता है, और फिर उसे अपने भीतर समेट लेता है।'

६ अगस्‍त , मंगलवार

'मैं' न रहने पर बाहर का 'तुम' नहीं रह सकता। इससे कुछ दार्शनिकों ने यह सिद्धांत निकाला कि 'मैं' में ही बाह्य जगत रहता है-'मैं' को छोड़कर इसका स्‍वतंत्र अस्तित्‍व नहीं हैं। 'तुम' केवल 'मैं' में ही रहता है। दूसरों ने ठीक इसी प्रकार इसके विपरीत तर्क करके प्रमाणित करने की चेष्‍टा की है कि 'तुम' न रहने पर 'मैं' का अस्तित्‍व प्रमाणित ही नहीं हो सकता। उनके पक्ष में भी युक्ति का बल समान है। ये दोनों ही मत आंशिक रूप से सत्‍य हैं- कुछ सत्‍य हैं, कुछ मिथ्‍या। देह जिस प्रकार जड़ है और प्रकृति में अवस्थित हैं, उसकी प्रकार विचार भी है। जड़ और मन दोनों ही एक तृतीय में अवस्थित हैं-एक अखंड ने मानो अपने को दो भागों में विभक्‍त किया है। इसी अखंड का नाम है आत्‍मा।

वह मूल सत्ता मानो 'क' है, व‍ही चेतन और जड़-इन दो रूपों में अपने को प्रकाशित करती है। इस परिदृश्‍यमान जगत में इसकी गति कुछ निर्दिष्‍ट प्रणालियों के अनुसार होती रहती है, उन्‍हीं को हम नियम कहते है। एक अखंड सता की दृष्टि से यह मुक्‍तस्‍वभाव हैं, पर बहुत्‍व की दृष्टि से यह नियमाधीन है। तथापि इस बंधन के रहने पर भी हमारे भीतर मुक्ति की एक धारणा सर्वदा वर्तमान रहती है, इसी का नाम है निवृत्ति अर्थात् आसक्ति का त्‍याग। और वासनावश जो जड़त्‍वविधायिनी शक्तियाँ हमें सांसारिक कार्य में विशेष रूप से प्रवृत्त करती हैं, उन्‍हीं का नाम प्रवृत्ति है।

उसी कार्य को नीतिसंगत या सत्‍कर्म कहा जाता है, जो हमें जड़ के बंधन से मुक्‍त करता है। तद्विपरीत जो कुछ हैं, वह असत्‍कर्म है। यह जगत्‍प्रपंच अनंत प्रतीत होता है, क्‍योंकि इसमें सभी वस्तुएँ चक्रगति में चलती रहती हैं-जहाँ से आती हैं, वहीं लौट जाती हैं। वृत्त की रेखा के दोनों सिरे बढ़ते बढ़ते फिर स्‍वयं में मिल जाते हैं, अत एवं यहाँ-इस संसार में कहीं भी विश्राम या शांति नहीं है। इस संसार रूपी वृत्त के भीतर से हमें निकलना ही होगा। मुक्ति ही हमारा एकमात्र लक्ष्‍य है-एकमात्र गति है।

* * *

अशुभ का केवल आकार बदलता है, किंतु उसका गुणगत कोई परिवर्तन नहीं होता। प्राचीन काल में शक्ति का शासन था, आज चालाकी का। अमेरिका में दु:ख-क्‍लेश जितना तीव्र है, भारत में उतना नहीं है; क्‍योंकि यहाँ (अमेरिका में) गरीब लोग अपनी दुरवस्‍था तथा दूसरों की संपन्नशील अवस्‍था में अत्‍यधिक अंतर पाते हैं।

शुभ और अशुभ ये दोनों अच्‍छेद्य भाव से संबद्ध हैं-एक को लेने पर दूसरे को लेना ही होगा। इस जगत की शक्तिसमष्टि मानो एक सरोवर के समान है- उसमें जैसी तरंग का उत्‍थान होता है, ठीक उसी के अनुसार पतन भी होता है। संपूर्ण योग वही रहता है- अतएव एक व्‍यक्ति को सुखी करने का अर्थ है, एक दूसरे व्‍यक्ति को अ-सुखी करना। बाहर का सुख केवल जड़ सुख है, और उसका परिमाण निर्धारित है। अतएव सुख का एक कण भी दूसरे के पास से छीने बिना हमें प्राप्‍त नहीं हो सकता। केवल वही सुख जो जड़ जगत से अतीत है, बिना किसीको कुछ हानि पहुँचाये प्राप्‍त किया जा सकता है। भौतिक सुख केवल भौतिक दु:ख का रूपांतर मात्र है।

जो इस तरंग के उत्‍थानांश में उत्‍पन्‍न हुए हैं और वहीं रहते हैं, वे उसका पतनांश और उसमें क्‍या है, यह नहीं देख पाते। कभी भी यह मत सोचो कि तुम जगत को अच्‍छा और सुखी बना सकते हो। कोल्‍हू का बैल अपने सामने बँधी हुई घास की पिंडी पाने की चेष्‍टा करता है अवश्‍य; किंतु उस पिंडी तक किसी भी तरह पहुँच नहीं पाता, केवल कोल्‍हू घुमाता रहता है। हम लोग भी इसी प्रकार सर्वदा सुखरूपी मृगतृष्‍णा के पीछे घूमते रहते हैं किंतु वह सर्वदा ही हम लोगों के सामने से दूर होती जाती है और हम केवल प्रकृति का कोल्‍हू घुमाते रहते हैं। इस प्रकार कोल्हू घुमाते-घुमाते हमारी मृत्‍यु हो जाती है और उसके बाद फिर से नए सिरे से कोल्‍हू घुमाना आरंभ होता है। यदि हम अशुभ को दूर करने में समर्थ होते तो कभी भी किसी उच्‍चतर वस्‍तु का आभास तक न पाते; अशुभ के नष्‍ट हो जाने के बाद ह संतुष्‍ट होकर बैठे रहते, और कभी मुक्‍त होने की चेष्‍टा न करते। जब मनुष्‍य यह देख पाता है कि जड़ जगत में सुख का अन्‍वेषण बिल्‍कुल व्‍यर्थ है, तभी धर्म का आरंभ होता है। मनुष्‍य का समस्‍त ज्ञान केवल धर्म का अंश है।

मानव-देह में शुभ और अशुभ, ये दोनों आपस में इस प्रकार सामंजस्‍य बनाए रहते हैं कि इसी कारण मनुष्‍य में इन दोनों से मुक्‍त हो जाने की इच्छा की संभावना रहती है।

जो मुक्‍त हैं, वे किसी काल में भी बद्ध नहीं होते। मुक्‍त किस प्रकार बद्ध हुए, यह प्रश्‍न ही युक्तियुक्‍त नहीं है। जहाँ कोई बंधन नहीं है, वहाँ कार्य-कारण भाव भी नहीं है। 'मैं स्‍वप्‍न में एक श्रृंगाल हुआ था, और कुत्ते ने मेरा पीछा किया था।'अब हम यह प्रश्‍न कैसे कर सकते हैं कि कुत्ते ने मेरा पीछा क्‍यों किया था ? श्रृंगाल स्‍वप्‍न का ही एक अंश था, ओर कुत्ता भी। दोनों ही स्‍वप्‍न हैं, वास्‍तव में इनका स्‍वतंत्र अस्तित्‍व नहीं है। विज्ञान और धर्म दोनों ही हमारे इस बंधन के अतिक्रमण में सहायक हैं। किंतु विज्ञान की अपेक्षा धर्म प्राचीन है, और हमारा यह अंधविश्‍वास है कि वह विज्ञान की अपेक्षा पवित्र है। एक दृष्टि से वह पवित्र है भी, क्‍योंकि धर्म नैतिकता को अपना प्राणवान अंग समझता है, किंतु विज्ञान वैसा नहीं समझता।

'पवित्र हृदय धन्‍य हैं, क्‍योंकि वे ईश्‍वर का दर्शन करेंगे।' जगत के सभी शास्‍त्र और सभी अवतार यदि लुप्‍त हो जाएं, तो भी एकमात्र यह वाक्‍य समस्‍त मानवजाति को बचा सकेगा। हृदय की इस पवित्रता से ही ईश्‍वर का दर्शन होगा। विश्‍वरूपी समग्र संगीत में यह पवित्रता ध्‍वनित होती है। पवित्रता में कोई बंधन नहीं। पवित्रता के द्वारा अज्ञानरूपी आवरण को दूर कर दो, ऐसा करने पर हमारा यथार्थ आत्‍मस्‍वरूप प्रकाशित होगा और हम जान सकेंगे कि हम किसी काल में बद्ध नहीं थे। नानात्‍व-दर्शन ही जगत में सबसे बड़ा पाप है-सबको आत्‍मा-रूप में देखो तथा सबसे प्रेम करो। भेदभाव को पूर्ण रूप से दूर कर दो।

* * *

पैशाचिक मानव एक घाव या जलने की तरह मेरे शरीर का ही एक अंश है। पैशाचिक मानव की परिचर्या निरंतर तब तक करते रहो, जब तक वह पूर्ण नीरोग और पुन: सुखी एवं स्‍वस्‍थ न हो जाए।

हम जब तक सापेक्षिक स्‍तर पर विचार करते रहते हैं, तब तक हमें यह विश्‍वास करने का अधिकार है कि इस सापेक्षिक जगत की वस्‍तुओं द्वारा शरीर रूप में हमारा अनिष्‍ट हो सकता है और ठीक उसी प्रकार हमें उनके सहायता भी मिल सकती है। सहायता का यह अमूर्त भाव ही ईश्‍वर है। सहायता संबंधी संपूर्ण भावों का पूर्ण योग ईश्‍वर है।

जो कुछ भी हम लोगों के प्रति करुणासंपन्न है, जो कुछ कल्‍याणप्रद है, या जो कुछ हमारा सहायक है, ईश्‍वर उस सबका समष्टिरूप है। यही एकमात्र धारणा उचित है। आत्‍मा-रूप में हमारा कोई शरीर नहीं होता। अतएव 'हम ब्रह्म हैं, विष भी हमें कोई क्षति नहीं पहुँचा सकता', यह कथन ही एक स्‍ववि‍रोधी वाक्‍य है। जब तक हमारा शरीर रहता है, और उस शरीर को हम देखते हैं, तब तक हमें ईश्‍वरोपलब्धि नहीं होती। नदी का ही जब लोप हो गया, तब क्‍या उसके भीतर का छोटा आवर्त रह सकता है ? सहायता के लिए रुदन करो, ऐसा करने पर सहायता पाओगे- फिर अंत: में देखोगे, सहायता के लिए रोना भी चला गया, साथ साथ सहायता देनेवाले भी चले गए- खेल समाप्‍त हो गया है, शेष रह गई है केवल आत्‍मा।

एक बार यह हो जाने पर फिर लौटकर यथेच्‍छ खेल कर सकते हो। तब फिर देह के द्वारा कोई बुरा कार्य नहीं हो सकेगा; कारण, जब तक हमारे भीतर की कुप्रवृत्तियाँ जलकर भस्‍मसात् नहीं हो जातीं, तब तक मुक्ति-लाभ नहीं होगा। जब यह अवस्‍था प्राप्‍त होती है, तब हमारा सभी पाप भस्‍म हो जाता है, और अवशिष्‍ट रह जाता है-

ज्योतिरिव अधूमकम् तथा दग्धेन्धनमिवानलम्।

उस समय प्रारब्‍ध हमारे शरीर को संचालित करता है, किंतु उसके द्वारा उस समय केवल शुभ ही कार्य हो सकता है, क्‍योंकि मुक्ति-लाभ होने के पहले सब अशुभ चला जाता है। चोर ने क्रूस पर विद्ध होकर मरने के समय अपने प्राक्‍तन कर्म का फल-लाभ किया था। [6] वह निश्चित ही पूर्व जन्‍म में योगी था, उसके बाद योगभ्रष्‍ट हो जाने के कारण उसे जन्‍म लेना पड़ा; उसका इस प्रकार पतन होने से उसे परजन्म में चोर होना पड़ा। किंतु भूतकाल में उसने जो शुभ कर्म किया था, वह फलित हुआ। मुक्ति प्राप्‍त करने का उसका जब समय आया, तभी उसकी ईसा मसीह के साथ भेंट हुई, और वह उनके एक शब्‍द से ही मुक्‍त हो गया।

बुद्ध ने अपने प्रबलतम शत्रु को मुक्ति दी थी, क्‍योंकि वह व्‍यक्ति उनसे इतना द्वेष करता था कि इस द्वेष के कारण वह सर्वदा उनका चिंतन करता रहता था। बुद्ध का लगातार चिंतन करने से उसका चित्त शुद्ध हो गया था और वह मुक्ति-

लाभ करने का अधिकारी हो गया। अतएव सर्वदा ईश्वर का चिंतन करो, इस चिंतन के द्वारा तुम पवित्र बन जाओगे।

* * *

(इसके बाद दूसरे दिन स्‍वामी जी 'सहस्र द्वीपोद्यान'(Thousand Island park) छोड़कर न्‍यूयार्क चले गए; अतएव यह उपदेशावली यहीं समाप्‍त हुई



[१] . दुर्लभं त्रयमेवैतद्देवानुग्रहहेतुकम्।

मनुष्‍यत्‍वं मुमुक्षुत्‍वं महापुरुषसंश्रय:।।

विवेक चूड़ामणि।।

[2] प्रोटेस्टैण्ट-धर्म-संस्‍थापक

[3] समाज का आदर्श अत्‍यन्‍त उच्‍च होने पर सभी उसका पालन नहीं कर पाते, अधिकांश व्‍यक्ति आदर्श पालन करने की चेष्‍टा में हीनावस्‍था को प्राप्‍त हो जाते हैं, किन्‍तु फिर भी उनकी सहायता के बिना इस आदर्श का पालन असम्‍भव है। जैसे सौ सैनिकों ने शुत्र पक्ष पर आक्रमण किया। उनमें से अस्‍सी व्‍यक्ति मर गये, बीस व्‍यक्ति कृतकार्य हुए। इन अस्‍सी सैनिकों ने इस युद्धजय में मूल्‍य प्रदान नहीं किया ᣛ? ठीक ऐसा ही यहाँ भी समझना चाहिए।

[4] णुरानी प‍कहानी यह है- एक ग़रीब मनुष्‍य ने एक देवता से वर प्राप्‍त किया था। देवता संतुष्‍ट होकर बोले- ''तुम यह पासा लो। इस पासे का जिन किन्‍हीं तीन कामनाओं से तीन बार फेंकोगे, वे तीनों पूरी हो जायँगी।'' वह आनन्‍दोल्‍लसित हो घर जाकर अपनी स्‍त्री के साथ परामर्श करने लगा- क्‍या वर माँगना चाहिए। स्‍त्री ने कहा- ''धन-दौलत माँगो।'' किन्‍तु पति ने कहा- ''देखो, हम दोनों की नाक चपटी है, उसे देखकर लोग हमारी बड़ी हँसी करते हैं, अतएव प्रथम बार पासा फेंककर सुंदर नाक की प्रार्थना करनी चाहिए।'' किन्‍तु स्‍त्री का मत वैसा नहीं था। अंत में दोनों में खूब तर्क प्रारम्‍भ हुआ। आखिर पति ने क्रोध में आकर यह कहकर पासा फेंक दिया- ''हम लोगों को केवल सुन्‍दर नाक मिले, और कुछ नहीं चाहिए।'' आश्‍चर्य, जैसे ही उसने पासा फेंका वैसे ही उसके शरीर में ढेर की ढेर नाक उत्‍पन्‍न हो गयीं। तब उसने देखा- यह क्‍या विपत्ति हुई; फिर उसने दूसरी बार पासा फेंकर कहा- नाक चली जायें। इस बार सभी नाक चली गयीं- साथ ही उनकी अपनी अपनी नाक भी चली गयीं। अब शेष रहा एक वर। तब उन्‍होंने सोचा- यदि इस बार पासा फेंककर चपटी नाक के बदले में अच्‍छी नाक प्राप्‍त करें, तो लोग अवश्‍य ही चपटी नाक के स्‍थान में अच्‍छी नाक देखकर उसके बारे मे पूछ-ताछ करेंगे। फिर तो हमें सभी बातें बतानी पड़ेंगी। तब वे हमें मूर्ख समझकर और भी हमारी हँसी उड़ायेंगे; कहेंगे कि ये लोग ऐसे तीन वरों को प्राप्‍त करके भी अपपनी अवस्‍था की उन्‍नति नहीं कर सके। यह सोचकर उन्‍होंने पासा फेंककर अपनी पुरानी चपटी नाक ही माँग ली।

[5] . ईसा के पूर्व छठी शताब्‍दो में लाओत्‍से द्वारा चीन देश में स्‍थापित धर्म-सम्‍प्रदाय। इस सम्‍प्रदाय का मत प्राय : वेदान्‍त सदृश है। 'ताओं' की धारणा अधिकांशत: वेदान्‍त के निर्गुण ब्रह्म सदृश है।

[6] बाइबिल में उल्लेख है कि ईसा मसीह को क्रूसित करने के समय एक चोर को भी क्रूस पर विद्ध कर दिया गया था। वह ईसा मसीह में विश्‍वास करके मुक्‍त हो गया। उसने अपने पूर्व कर्मफल से ही ईसा की कृपा प्राप्‍त की थी।


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हिंदी समय में स्वामी विवेकानंद की रचनाएँ